
एक संयुक्त परिवार था जिसमें दादाजी, उनके तीन बेटे और उनके परिवार साथ रहते थे. दादाजी के पास एक पुरानी, फटी हुई चादर थी जो उन्हें अपने पिता से मिली थी. वह चादर पूरे परिवार के लिए एक भावनात्मक बंधन की तरह थी. सर्दी में बच्चे उसमें छिपकर खेलते थे, बीमार होने पर दादाजी उसे ओढ़कर आराम करते थे और रात को वह सबके पैरों को ढकती थी, भले ही वह छोटी पड़ जाती थी.
जैसे-जैसे परिवार बढ़ता गया, चादर छोटी पड़ने लगी. बेटों में आपस में बहस होने लगी कि किसे वह चादर मिलेगी. बड़ा बेटा कहता था कि वह घर का मुखिया है, इसलिए उस पर उसका हक है. दूसरा बेटा कहता था कि वह दादाजी की ज़्यादा सेवा करता है, इसलिए उसे मिलनी चाहिए. तीसरा बेटा शांत रहता था, लेकिन उसकी भी इच्छा थी कि वह चादर उसे मिले.
दादाजी ने उनकी बहस सुनी और दुखी हुए. उन्होंने कहा, “यह चादर सिर्फ एक कपड़ा नहीं है, यह हमारे परिवार की एकता का प्रतीक है. इसे बाँटकर तुम इसे छोटा और महत्वहीन बना दोगे.”
उन्होंने एक उपाय निकाला. उन्होंने कहा कि हर रात, परिवार का एक सदस्य उस चादर को ओढ़ेगा और बाकी सदस्य उसके पास बैठकर कहानियाँ सुनेंगे. इस तरह, चादर हर किसी के साथ रहेगी और परिवार का बंधन भी बना रहेगा.
धीरे-धीरे, बच्चे बड़े हो गए और अपने-अपने घरों में रहने लगे. वह फटी चादर अब दादाजी के पास ही रहती थी, लेकिन जब भी परिवार के सदस्य मिलते, वे उस चादर के बारे में ज़रूर बात करते और पुरानी यादों को ताज़ा करते. वह चादर अब एक भौतिक वस्तु नहीं, बल्कि उनके साझा इतिहास और प्यार का प्रतीक बन गई थी.
इस कहानी से यह सीख मिलती है कि कुछ चीजें भौतिक मूल्य से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण होती हैं और उन्हें बाँटने की बजाय साझा करने से उनका महत्व और भी बढ़ जाता है.