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फटी चादर और फैलता पैर…

कहानी 2: सपने और सीमाएं

लक्ष्मी एक गरीब बुनकर महिला थी। उसके पास एक पुरानी, फटी हुई चादर थी जिसे उसने खुद बुना था. वह बड़े सपने देखती थी – एक बड़ा घर, ढेर सारे रंगीन कपड़े बुनना और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना.

हर रात, जब वह अपनी फटी चादर ओढ़कर सोती, तो वह सपने देखती कि उसकी चादर फैलती जा रही है, उसमें से रंगीन धागे निकल रहे हैं और वे धागे सुंदर कपड़ों में बदल रहे हैं. सपने में वह देखती कि उसका छोटा सा घर एक विशाल हवेली बन गया है और उसके बच्चे अच्छी तरह पढ़-लिख रहे हैं.

एक दिन, गाँव में एक धनी व्यापारी आया. उसने लक्ष्मी के बुने हुए साधारण कपड़ों को देखा और उसकी मेहनत की सराहना की. उसने लक्ष्मी को कुछ पैसे दिए और कहा कि वह उसके लिए कुछ खास डिज़ाइन के कपड़े बुने.

लक्ष्मी बहुत खुश हुई. उसे लगा कि उसके सपने सच होने वाले हैं. उसने दिन-रात मेहनत की, लेकिन उसकी फटी चादर की सीमाएं थीं. वह उतने बड़े और जटिल डिज़ाइन नहीं बुन पा रही थी जैसा व्यापारी चाहता था.

अंत में, व्यापारी निराश हो गया और उसने किसी और बुनकर को काम दे दिया, और लक्ष्मी टूट गई. उसे एहसास हुआ कि सपने देखना अच्छी बात है, लेकिन अपनी सीमाओं को समझना भी ज़रूरी है. उसकी फटी चादर, उसकी वर्तमान क्षमता का प्रतीक थी. उसे पहले अपनी चादर को बड़ा और मजबूत बनाना होगा, तभी वह बड़े सपने पूरे कर पाएगी.

इस कहानी से यह सीख मिलती है कि हमें बड़े सपने देखने चाहिए, लेकिन अपनी वर्तमान क्षमताओं और सीमाओं को भी पहचानना चाहिए और धीरे-धीरे उन्हें बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए.

शेष भाग अगले अंक में…,

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