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फटी चादर और फैलता पैर…

कहानी 1: विरासत का बोझ

गंगाधर एक जमींदार थे, जिनकी शानो-शौकत कभी दूर-दूर तक फैली थी. अब, वृद्धावस्था और बदलते समय के साथ, उनकी संपत्ति सिमटती चली गई थी. उनके पास अब बस एक पुरानी, फटी हुई चादर बची थी, जो उनके पूर्वजों की निशानी थी. गंगाधर उस चादर को बड़े जतन से रखते थे, मानो उसमें उनके बीते वैभव की आत्मा बसी हो.

उनके दो बेटे थे, रमाकांत और शशिकांत. रमाकांत, बड़ा बेटा, महत्वाकांक्षी और आधुनिक विचारों वाला था. उसे वह फटी चादर पुरानी और बेकार लगती थी. वह चाहता था कि पिता अपनी बाकी बची ज़मीन बेचकर एक आरामदायक जीवन जिएँ. शशिकांत, छोटा बेटा, शांत और पारंपरिक था. उसे उस चादर से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस होता था, वह उसे अपने परिवार की जड़ों का प्रतीक मानता था.

एक रात, गंगाधर बीमार पड़ गए. रमाकांत ने फिर से ज़मीन बेचने की बात छेड़ी. शशिकांत ने विरोध किया, “पिताजी की यह आखिरी निशानी भी बेच दोगे? इसमें हमारे पुरखों की यादें हैं.”

गंगाधर ने कमजोर आवाज में कहा, “यह चादर… यह सिर्फ कपड़ा नहीं है. यह हमारी मर्यादा थी, हमारी इज़्ज़त थी. जब हमारे पास सब कुछ था, तो यह छोटी सी लगती थी. अब, जब सब कुछ सिमट गया है, तो भी यह उतनी ही है, पर इसे ओढ़ने वाले हम सिकुड़ गए हैं.” उन्होंने आगे कहा, “रमाकांत, तुम पैर फैलाना चाहते हो, यह अच्छी बात है, तरक्की करो. लेकिन शशिकांत, कभी अपनी चादर को मत भूलना. यह तुम्हें याद दिलाती रहेगी कि तुम्हारी शुरुआत कहाँ से हुई थी.”

गंगाधर चल बसे. रमाकांत ने ज़मीन बेच दी और शहर चला गया. शशिकांत गाँव में ही रहा, उस फटी चादर को ओढ़कर अपने पूर्वजों की सादगी और मूल्यों को याद रखता रहा. उसने थोड़ी सी बची ज़मीन को मेहनत से सींचा और अपने परिवार की नींव को बनाए रखा.

इस कहानी से यह सीख मिलती है कि भौतिक समृद्धि क्षणिक हो सकती है, लेकिन अपनी जड़ों और मूल्यों को याद रखना हमेशा महत्वपूर्ण होता है.

 

शेष भाग अगले अंक में…,

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