
सुरमई शाम—वह पल जब आसमान हल्का गुलाबी और नारंगी रंगों से भर जाता है, एक जादुई एहसास सा घिर जाता है.
संध्या की उस बेला में सूरज थककर समंदर के किनारे विश्राम कर रहा था. आकाश हल्की गुलाबी और नारंगी रोशनी में सजीव चित्र-सा प्रतीत हो रहा था. वहीं, एक पुरानी हवेली की छत पर बैठा था राघव—एक संगीतकार, जो कभी अपने सुरों से दिलों को झकझोर देता था.
आज उसकी उंगलियाँ सितार के तारों पर हल्की सी थरथरा रही थीं, मानो वे खुद अपने ही संगीत को भूल गई हों. बरसों से कोई नई धुन नहीं बनी थी, और पुरानी रागों में अब वह जादू नहीं था.
पर उस शाम कुछ अलग था… हवा में एक हल्का स्वर लहराया, जैसे कोई पुराना राग अधूरा रह गया हो और अब अपनी पूर्णता खोज रहा हो. राघव ने सिर उठाया। वहाँ कोई नहीं था। फिर भी, वह धुन कहीं आस-पास तैर रही थी.
अचानक, नीचे गली से किसी की बाँसुरी की धुन सुनाई दी—एक धुन जो उसकी अपनी थी, पर वह कब का भूल चुका था. दिल की गहराइयों में कोई याद जागी, कोई भूली-बिसरी संगीतमय छवि लौट आई. क्या वह केवल एक संयोग था, या कोई अदृश्य संगीतकार उसके राग को लौटा रहा था?
राघव ने सितार उठाया… और तारों पर उसकी उंगलियाँ उस भूले हुए राग को दोबारा जीवंत कर रही थीं.
क्या राघव का खोया हुआ राग एक रहस्य से जुड़ा है? क्या वह धुन किसी पुराने परिचित की निशानी थी?
शेष भाग अगले अंक में…,