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1857 की कहानी

नहीं हाल-ए-देहली सुनाने के क़ाबिल

ये क़िस्सा है रोने रुलाने के क़ाबिल

उजाड़े लुटेरों ने वो क़स्र उसके

जो थे देखने और दिखाने के क़ाबिल

न घर है न दर है, रहा इक ज़फ़र है

फ़क़त हाल-ए-देहली सुनाने के क़ाबिल

अगर मुगल बादशाह शाह आलम की रियासत दिल्ली से शुरू होकर पालम में खत्म होती, तो बहादुर शाह ज़फ़र की लाल किले की दीवारों में ही खत्म हो जाती। हालात यह थे कि कोई मेहमान भी बिना रेज़िडेंट मेटकाफ़ की इजाज़त के लाल किले में नहीं आ सकता था। न बादशाह अंग्रेजों की मर्जी के बिना कोई तोहफ़ा या खिलत (सम्मान) दे सकते थे।जब मेरठ से सिपाही उनके ‘ज़ेर झरोखा’ के नीचे आए, तो उनके सलाहकार एहसान-उल्ला ख़ान ने घबरा कर किले के दरवाजे बंद कर दिए। कुछ सिपाही दरवाज़े के पास आकर गुहार लगाने लगे, “दुहाई बादशाह! हमारे मज़हब की इस ज़ंग में हमारा साथ दें 82 वर्ष के ज़फ़र हर चीज में अंग्रेजों की इजाज़त के इतने आदी हो गए थे कि उन्होंने अपने वकील गुलाम अब्बास से कहा कि पैलेस गार्ड कैप्टन डगलस को ख़बर कर दें। कैप्टन को तो पहले ही खबर हो गयी थी। उन्होंने वहाँ पहुँच कर मुंडेर से नीचे झाँक कर कहा तुम लोग यहाँ से चले जाओ! यहाँ बादशाह और जनाना के कमरे हैं। तुम लोग यहाँ हंगामा कर उनकी तौहीन कर रहे हो।सिपाही वहाँ से निकल कर यमुना किनारे राज घाट दरवाजे पर जमा होने लगे। वहाँ दरियागंज के कुछ यूरोपीय बंगलों पर उन्होंने गोली चलानी शुरू की, जिसमें एक क्लर्क निक्सन की मृत्यु हुई, और दो अन्य घायल हुए। कैप्टन डगलस घोड़े पर सवार होकर आए, जिनको सिपाहियों ने खदेड़ दिया, और वह एक पत्थर पर गिर गए। घायल डगलस जैसे-तैसे लाहौर गेट की ओर भागे।एक अन्य गार्ड फ़्रेज़र तलवार लेकर लाल किले से निकले। उनके साथ कुछ बादशाह के सहायक भी थे। किले से बाहर अब दिल्ली की भीड़ जमा थी। घटना के चश्मदीद जाट मल के अनुसार,

फ़्रेज़र को देखते ही एक हाजी तलवार लेकर दौड़े फ़्रेज़र ने अपने हवलदार को डाँट कर कहा कि इसे रोको। हवलदार ने कुछ इशारे किए, मगर वह भी भीड़ से मिला हुआ था…हाजी ने उछल कर फ़्रेज़र के गले पर वार किया, और उसके बाद भीड़ ने बेरहमी से उनके सर, छाती और चेहरे को तलवार से काट डाला”

भीड़ कैप्टन डगलस के बंगले में घुस गयी, और उनके साथ उनके परिवार को मार डाला। ब्रिटिश अख़बारों ने छापा कि महिलाओं का पहले बलात्कार किया गया। बाद की जाँच में दिल्ली के कमिश्नर ने स्पष्ट किया कि हत्याएँ हुई, किंतु महिलाओं के साथ बलात्कार के सबूत नहीं मिलते। जब भीड़ हत्यायें कर रहे थी, मेरठ से आए घुड़सवार लाल किले के अंदर घुस गए और हवा में गोलियाँ चलाने लगे। आखिर बादशाह बाहर निकले।ग़ुलाम अब्बास के अनुसार सिपाहियों ने कहा, “खाविंद! हमें कारतूस में गाय और सूअर चबाने कहा जा रहा था, तो हमने फिरंगियों को काट डाला।बहादुर शाह ज़फ़र ने उन्हें समझाया कि इस तरह की हरकतें नहीं करनी चाहिए थी। वह अभी समझा ही रहे थे कि मेरठ से आ रहे लगभग सवा सौ सिपाही जमा हो गए। कश्मीरी गेट में तैनात दिल्ली के 38वें और 54वें रेजिमेंट ने भी विद्रोह कर दिया था। उन्होंने अपने पाँच अंग्रेज़ अफ़सरों को मार गिराया, और लाल किला पहुँच गए।उन्होंने कहा, “अगर आप अपना हाथ हमारे सर पर नहीं रखेंगे, तो हम सब मारे जाएँगे।कुछ स्थानीय मौलवी भी बादशाह पर दबाव डालने लगे। आखिर बादशाह एक कुर्सी पर बैठ गए, और कुछ अगली पंक्ति के सिपाहियों ने उनका आशीर्वाद लिया। मेजर एब्बॉट ने अपने वक्तव्य में बादशाह को ही दंगा फैलाने और सिपाहियों को भड़काने का ज़िम्मेदार ठहराया है; लेकिन इसकी संभावना कम लगती है कि बूढ़े और कमज़ोर हो चुके बादशाह ने फिरंगियों को मारने के लिए कोई जोश भरा भाषण दिया होगा।13 मई, 1857 को दिल्ली के मेजर एब्बॉट ने लिखा अब पूरी दिल्ली में मात्र पाँच यूरोपीय बचे हैं। बाकी सभी मार डाले गए!…पोस्ट ऑफिस, टेलीग्राफ़, दिल्ली बैंक, दिल्ली गजट प्रेस, छावनी की हर इमारत जला दी गयी है। जो इस नरसंहार में बचे, वे बड़ी मुश्किल से भागे। हमने तीन दिनों से अपने कपड़े भी नहीं बदले हैं।ऐसा नहीं कि अंग्रेज़ बिना लड़े डर कर भाग गए। एक बड़े बारूदखाने पर कब्जे के लिए जब भारतीय सीढ़ी लगा कर चढ़ने लगे, तो वहाँ तैनात लेफ़्टिनेंट विलौबी ने स्वयं ही बारूदखाना उड़ा दिया। इस विस्फोट में कुछ अंग्रेजों की जान गयी जबकि कई भारतीय (सावरकर के शब्दों में सैकड़ों, ब्रिटिश डिस्पैच के अनुसार हज़ार) एक झटके में मारे गए।अब बात सिर्फ़ दिल्ली की नहीं थी, रोज कुछ न कुछ नयी खबर आ रही थी। मेरठ में मार्शल लॉ लग गया। लाहौर में भारतीय सिपाहियों से हथियार ले लिए गए। आगरा से चिट्ठी आयी कि वहाँ के सैयद मुसलमान और आस-पास के जाट अंग्रेजों के साथ हैं, लेकिन गुर्जरों ने संगठित होकर छावनियों में गड़बड़ी शुरू की है। 17 मई तक कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, और दानापुर (पटना) की छावनियों से खबर आ रही थी कि दिल्ली के बाद भारतीय जवानों में उत्साह जगा है, लेकिन विद्रोह नहीं हुए अंग्रेज़ों ने अपने साथी ढूँढने शुरू कर दिए थे। पटियाला महाराज ने साथ देने का वादा किया। महाराज सिंधिया ने अपने तीन सौ जवान दिल्ली-आगरा के मध्य मदद के लिए भेजे। बागपत के ज़मींदारों ने दिल्ली से भागे कुछ अंग्रेजों को शरण दी। सिख और गुरखा सिपाहियों ने पूर्ण अनुशासन का पालन किया, और विद्रोह में नहीं जुड़े।1857 में इतने बिखरे हुए इतिहास हैं, कि अपने क्षेत्र, या धर्म के नायक ढूँढने का कोई अंत नहीं। शुरुआत में इतनी स्पष्टता नहीं थी कि कौन धर्म-रक्षा में लड़ रहा है, कौन मुग़ल बादशाहत की असंभव वापसी चाह रहा है, कौन बस यूँ ही अफ़वाहों से प्रेरित हो रहा है। न रोड-मैप स्पष्ट था, न इतने बड़े देश में आम सहमति बनानी आसान थी। जब बादशाह ही बड़ी मुश्किल से दरवाज़ा खोल रहे थे, तो लोग किस नेतृत्व पर भरोसा करते मई के अंत तक लखनऊ और आस-पास की कुछ छावनियों से विद्रोह की खबर आने लगी। उस समय कानपुर छावनी के जनरल ह्यूग व्हीलर ने अपनी दो टुकड़ियाँ लखनऊ रवाना कर दी। व्हीलर भारतीय रंग-ढंग में जम गए थे, अच्छी हिंदी बोल लेते थे, तो उन्हें विश्वास था कि उनकी छावनी के सैनिक कभी विद्रोह नहीं करेंगे। लेकिन, उनकी सोच ग़लत थी।

1857 के बाद जब कोई अफ़सर भारतीयों से ढीले बर्ताव की बात करते, तो उनके अंग्रेज़ साथी उकसाने के लिए कहते मत भूलना कि कानपुर में क्या हुआ था।

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Story of 1857

Not able to tell about Delhi

This story is worth crying

The robbers ravaged that palace of his

who were able to see and show

There is no house, there is no door, there is only one journey

Only able to tell the situation of Delhi.

If Mughal emperor Shah Alam’s princely state had started from Delhi and ended at Palam, then Bahadur Shah Zafar’s would have ended within the walls of the Red Fort. The condition was that even a guest could not enter the Red Fort without the permission of Resident Metcalf. Neither could the emperor give any gift or khilat (honor) without the consent of the British. When the soldiers from Meerut came under his ‘Zer Jharokha’, his advisor Ehsan-Ullah Khan panicked and closed the doors of the fort. Some soldiers came near the door and started pleading, “O king! Support us in this war of our religion 82-year-old Zafar had become so used to British permission in everything that he asked his lawyer Ghulam Abbas to inform the palace guard, Captain Douglas. The captain had already got the news. After reaching there, he peeped down from the murder and said, you people go away from here! Here are the rooms of the emperor and the Zenana. You people are insulting them by creating a ruckus here. There they opened fire on some European bungalows in Daryaganj, killing a clerk, Nixon, and injuring two others. Captain Douglas came on horseback, was driven off by the soldiers, and fell on a stone. Wounded Douglas somehow ran towards Lahore Gate. Another guard Fraser left the Red Fort with a sword. He was accompanied by some assistants of the emperor. The crowd of Delhi was now gathered outside the fort. According to Jat Mal, the eyewitness of the incident,

On seeing Fraser, Fraser ran with a Haji sword and scolded his sergeant, and asked him to stop it. The sergeant made some gestures, but he too joined the mob… Haji sprang up and stabbed Frazer in the neck, and then the mob mercilessly slashed his head, chest, and face with swords”

The mob broke into Captain Douglas’ bungalow and killed his family along with him. British newspapers printed that women were raped first. In the subsequent investigation, the commissioner of Delhi clarified that the murders took place, but there was no evidence of rape of the women. While the mob was killing, horsemen from Meerut entered the Red Fort and started firing in the air. At last, the king came out. According to Ghulam Abbas, the soldiers said, “Khavind! We were being told to chew cows and pigs in cartridges, so we cut the firangis. Bahadur Shah Zafar explained to them that such acts should not have been done. He was just explaining that about 150 soldiers coming from Meerut had gathered. The 38th and 54th Regiments of Delhi stationed at Kashmere Gate also mutinied. They killed five of their British officers and reached the Red Fort. They said, “If you don’t keep your hand on our heads, we will all be killed.” Some local clerics also started putting pressure on the emperor. At last, the emperor sat down on a chair, and some soldiers in the front row took his blessings. Major Abbott, in his statement, has held the emperor responsible for spreading the riot and inciting the soldiers; But it seems unlikely that the old and emaciated emperor would have made any rousing speech to kill the Firangis. On May 13, 1857, Major Abbott of Delhi wrote that there are now only five Europeans left in the whole of Delhi. The rest were executed!… The Post Office, the Telegraph, the Delhi Bank, the Delhi Gazette Press, and every building in the cantonment has been burnt. Those who survived the massacre ran with great difficulty. We have not even changed our clothes for three days. It is not that the British ran away in fear without fighting. When the Indians started climbing a ladder to capture a large gunpowder, Lt. Willoughby, stationed there, himself blew up the gunpowder. In this explosion, some Britishers lost their lives while many Indians (hundreds according to Savarkar, thousands according to British dispatches) were killed in one stroke. Now it was not only about Delhi, every day some new news was coming. Martial law was imposed in Meerut. Weapons were taken from Indian soldiers in Lahore. A letter came from Agra that the Syed Muslims there and the nearby Jats were with the British, but the Gurjars got organized and started disturbances in the cantonments. By May 17, the news was coming from the cantonments of Kanpur, Allahabad, Lucknow, Banaras, and Danapur (Patna) that after Delhi, the Indian soldiers were excited, but the rebellion did not happen, the British had started looking for their allies. Patiala Maharaj promised to support. Maharaj Scindia sent his three hundred soldiers between Delhi and Agra for help. The zamindars of Baghpat gave shelter to some Englishmen who fled from Delhi. The Sikh and Gurkha sepoys observed perfect discipline and did not join in the mutiny. There are so many scattered histories of 1857, that there is no end to finding heroes of their region, or religion. In the beginning, there was not so much clarity as to who was fighting in the defense of religion, who was seeking the impossible return of the Mughal Empire, and who was simply being inspired by rumors. Neither was the road-map was clear nor was it easy to build a consensus in such a large country. When the emperor was opening the door with great difficulty, what leadership did the people trust? By the end of May, news of mutiny started pouring in from Lucknow and some nearby cantonments. At that time, General Hugh Wheeler of Kanpur Cantonment sent two of his troops to Lucknow. Wheeler had settled into the Indian manners and spoke good Hindi, so he was sure that the soldiers in his cantonment would never rebel. But, his thinking was wrong.

After 1857, when an officer used to talk about lax behavior with Indians, his British comrades used to provoke him by asking him not to forget what had happened in Kanpur.

Prabhakar Kumar.

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