गांवों मे खत्म होतीं गौरैया
बचपन से लेकर 1970 तक मैंने यह देखा है कि हमारे गाँव में अवस्थित पेड़ों और झुरमुटों में गौरैयों का संयुक्त कलरव का स्वरगान ऐसा मधुर होता था कि मैं प्रतिदिन कम से कम एक घंटे तक मंत्रमुग्ध होकर चुपचाप सुनता रहता था. बड़े और घने पेड़ों पर तो हजार तक उनकी संख्या होती थी, और उनका संयुक्त गान ऐसा मादकता पैदा करता था कि हर सुनने वाला उन स्वरलहरियों में खो जाता. संयुक्त गायन के पहले उनका गाँव के ऊपर आकाश में इधर से उधर पैंतरेबाज़ी भरी उड़ानें होती थीं. फिर धीरे-धीरे उनका स्वर कम होता जाता और फिर एकदम शांत. सभी गौरैये मानो शयनकक्ष में सोने चले जाते. सुबह होते ही यही क्रम फिर दुहराया जाता. चन-चन, चिन-चिन और चुन-चुन का झंकार भरी स्वरलहरियां एक अजीब शमां बांधती थीं ऐसा लगता था मानो सारी गौरैये मिलकर गांववासियों को उस प्रतिदान के रूप में सुबह और शाम गीत सुनाती थीं, जो उन्हें ग्रामीणों द्वारा उनकी जरूरतों के रूप में मुहैया कराई जाती. मड़ई, छप्पर, झुरमुट और मिट्टी की दीवारें उनकी शरणस्थली होती थीं, जहाँ वे अपने घोंसलों में सुरक्षित रहतीं और अंडे भी देती थीं, जो कुछ ही दिनों में अंडों से बाहर आकर आसमान में उड़ान भरने लगतीं. गर्मी का मौसम आते-आते उनकी संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती. छप्पर पर और आंगन में उनका झुंड के झुंड उतरना, अनाज या भोजन के दाने चुगना और फिर फुर्र करके उड़ जाना बड़ा ही मोहक लगता था. गर्मी बढ़ने पर हर घर में छाए में मिट्टी के बर्तन में उनके लिए ठंडा पानी रखा जाता, जिसे पीकर वे तृप्त हो जातीं. आंगन या बाहर सहन की धूल में उनका लोटना, जिसे घर की औरतें नहान कहती थीं, हम बच्चों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था पर आज वे सारे दृश्य स्मृतियों तक सिमट कर रह गए हैं. बाग-बगीचे तो कट ही गए, गाँव के भीतर के पेड़ भी कट गए. अब तो कहीं-कहीं सहजन के कुछ एक पेड़ बचे हुए हैं, जिन पर कभी-कभार कोई गौरैया दो-चार की झुंड में दिखाई देती हैं. आखिर सिमेंट के जंगल वे मंगल कैसे मनातीं? गाँव और गांववालों के लिए अब वे अवांछित बन गई हैं. कोई अब उनके बारे में सोचता तक नहीं. किसी को इसकी कोई परवाह ही नहीं है कि गाँव में गौरैयों का ऐसा अकाल क्यों है? पत्थर के घर में रहते-रहते सभी खुद भी पत्थर के हो गए हैं. अब तो घरों में आंगन और बाहर सहन तक नहीं हैं. उन्हें घर से बेघर कर दिया गया है. अंडे देने के लिए भी कहीं कोई जगह नहीं. बैलों से खेती का रिवाज ही खत्म हो गया. गाय और भैंस भी अब सबके घरों में नहीं हैं. अब वे एक शरणार्थी की तरह एकाकी जीवन यापन के लिए मजबूर हो गई हैं. आज के बच्चों या जवानों पर इसका कोई असर शायद न हो, पर जिन लोगों ने उस परिदृश्य को देखा है और देखकर कभी आनंदित हुए हैं, उनके लिए यह दृश्य किसी पीड़ा से कम नहीं है. हम पहले गाँव के न सिर्फ लोगों को, बल्कि सभी घरों के जानवरों और पक्षियों तक को पहचानते थे. अब तो लोग अपनों को भी पहचानने से इंकार कर रहे हैं. अपने-आप में सिमट कर रहने वालों के लिए ऐसा होना भले ही स्वाभाविक लगे, पर हमें तो यही लगता है कि हमारा अपना कुछ खो गया है।
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From childhood till 1970, I have observed that the combined chirping of sparrows in the trees and clumps of our village was so melodious that I used to listen silently for at least an hour every day, mesmerized. Their number was up to a thousand on big and dense trees, and their combined song was used to create such intoxication that every listener would get lost in those vocal waves. Before joint singing, they used to have maneuvered flights from here and there in the sky above the village. Then gradually his voice used to decrease and then he became completely silent. All the sparrows seem to have gone to sleep in the bedroom. The same sequence would be repeated again in the morning. The chiming waves of Chan-Chan, Chin-Chin, and Chun-Chun created a strange harmony. It seemed as if all the sparrows together sang to the villagers in the morning and evening as a recompense to the villagers for their needs. Provided Mud, thatch, clumps, and mud walls were their refuge, where they used to stay safe in their nests and also lay eggs, which would come out of the eggs in a few days and start flying in the sky. By the time the summer season comes, their number increases a lot. It was very tempting to descend in herds on the thatch and in the courtyard, pick grains or food grains and then fly away. When the heat increased, cold water was kept for them in an earthen vessel under the shade in every house, drinking which they would be satisfied. His rolling in the dust of the courtyard or outside, which the women of the house used to call bathing, was no less than a surprise for us children, but today all those scenes have been reduced to memories. Not only the gardens were cut, but the trees inside the village were also cut. Now in some places, some drumstick trees are left, on which sometimes a sparrow is seen in a flock of two or four. After all, how would they celebrate Mars in the cement jungle? Now she has become unwanted by the village and the villagers. Nobody even thinks about them anymore. Does no one care that why there is such a famine of sparrows in the village? While living in a stone house, everyone has also turned to stone. Now there is no tolerance in the courtyard and outside in the houses. He has been made homeless. No place to lay eggs. The custom of farming with oxen ended. Cow and buffalo are also not in everyone’s homes now. Now she is forced to lead a lonely life like a refugee. It may not have any effect on today’s children or youth, but for those who have seen that scenario and have ever enjoyed seeing it, this scene is no less than a pain. Earlier we used to recognize not only the people of the village but even the animals and birds of all the houses. Now people are refusing to recognize even their own people. It may seem natural for those who are confined to themselves, but we feel that something of our own has been lost.
Prabhakar Kumar.