
एक दोपहर, अनन्या अपनी दादी माँ के कमरे में पुरानी तस्वीरों का एक एल्बम देख रही थी. उनमें अनुपमा निवास के सुनहरे दिनों की झलकियाँ थीं – हँसते-मुस्कुराते चेहरे, साथ में मनाए गए त्योहार, और एक अटूट बंधन का एहसास कराती हुई तस्वीरें.
एक तस्वीर पर उसकी नज़र अटक गई. वह उसके दादा जी और उनके छोटे भाई की थी, दोनों कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे, उनकी आँखों में गहरी दोस्ती और प्यार झलक रहा था.
“दादी माँ,” अनन्या ने वह तस्वीर दिखाते हुए कहा, “दादा जी और छोटे दादा जी में तो बहुत प्यार था, है ना?”
सुमित्रा देवी ने तस्वीर को अपने हाथों में लिया और उनकी आँखों में एक पुरानी चमक लौट आई. “हाँ बिटिया, दोनों भाइयों में बहुत प्यार था. एक दूसरे के लिए जान भी दे सकते थे. लेकिन… समय सब बदल देता है.”
अनन्या ने उत्सुकता से पूछा, “क्या हुआ था दादी माँ? क्यों अब सब कुछ इतना अलग है?”
सुमित्रा देवी ने एक गहरी साँस ली और अतीत के पन्ने पलटने लगीं. उन्होंने बताया कि कैसे उनके ससुर और उनके देवर ने मिलकर इस हवेली और पारिवारिक व्यवसाय को खड़ा किया था. दोनों में अटूट एकता थी और हर फैसले में दोनों की सहमति होती थी.
लेकिन फिर, समय बदला. दादा जी के गुजर जाने के बाद, व्यवसाय की जिम्मेदारी आलोक और रवि के कंधों पर आ गई. दोनों के स्वभाव और काम करने के तरीके अलग थे. धीरे-धीरे, छोटी-छोटी बातों पर मतभेद बढ़ने लगे और बाहरी लोगों ने भी आग में घी डालने का काम किया.
सुमित्रा देवी ने बताया कि कैसे एक समय ऐसा भी आया था जब दोनों भाइयों ने एक-दूसरे से बात करना बंद कर दिया था. परिवार के बड़े-बुजुर्गों ने सुलह कराने की बहुत कोशिश की, लेकिन कड़वाहट इतनी गहरी हो गई थी कि वह आसानी से मिट नहीं पाई.
अनन्या यह सब सुनकर हैरान थी. उसे यह जानकर दुख हुआ कि उसके परिवार में कभी इतना गहरा प्यार और एकता थी, जो अब कहीं खो गई थी. उसे लगा कि शायद अतीत की इन कहानियों में आज के बिखरे हुए रिश्तों को जोड़ने का कोई सूत्र छिपा हो.
शेष भाग अगले अंक में…,