व्यक्ति विशेष -613.
क्रिकेट खिलाड़ी रणजीत सिंह
भारतीय क्रिकेट के एक महान खिलाड़ीयों में से एक थे रणजीत सिंह. उनके नाम पर ही भारत में प्रथम श्रेणी क्रिकेट टूर्नामेंट ‘रणजी ट्रॉफी’ का नाम रखा गया है. रणजीत सिंह का जन्म 10 सितम्बर, 1872 को गुजरात के काठियावाड़ में सरोदर नामक स्थान पर एक धनी परिवार में हुआ था. उनका पूरा नाम कुमार रणजीत सिंह हैं लोग उन्हें प्यार से रणजी, स्मिथ, रणजीतसिंहजी के नाम से जानते हैं. उनका निधन 2 अप्रैल 1933 को जामनगर , गुजरात में हुआ था.
रणजीत सिंह अपने छात्र जीवन में वे क्रिकेट के अतिरिक्त फ़ुटबॉल व टेनिस भी खेलते थे. वर्ष 1888 में रणजीत सिंह ट्रिनिटी कॉलेज, कैंब्रिज में दाखिला लेने ब्रिटेन चले गए. वहीं पर पढ़ते हुए फ़ाइनल वर्ष में वह क्रिकेट ‘ब्लू’ में शामिल हो गए.
णजीत सिंह ने वर्ष 1896 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ इंग्लैंड के लिए टेस्ट क्रिकेट में डेब्यू किया. उन्हें अपनी कलाईयों के जादू और ‘लेग ग्लांस’ जैसे नए शॉट्स के लिए जाना जाता था. उस समय क्रिकेट में ऑफ-साइड का बोलबाला था, लेकिन रणजी ने अपने लेग साइड के शॉट्स से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया.
उनका प्रथम श्रेणी कैरियर बहुत शानदार रहा. उन्होंने 307 मैचों में 56.37 की औसत से 24,692 रन बनाए, जिसमें 72 शतक और 109 अर्धशतक शामिल थे. वर्ष 1897 में उन्हें ‘विजडन क्रिकेटर ऑफ द ईयर’ का पुरस्कार मिला. उन्होंने भारत में कोई पेशेवर क्रिकेट नहीं खेला, लेकिन उनकी उपलब्धियों ने भारतीय क्रिकेटरों को प्रेरित किया. उन्हें ‘भारतीय क्रिकेट का जनक’ और ‘ब्लैक प्रिंस’ भी कहा जाता था.
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स्वतंत्रता सेनानी गोविंद बल्लभ पंत
गोविंद बल्लभ पंत भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानी और भारतीय राजनीतिक नेता थे. उनका जन्म 10 सितंबर 1887 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में हुआ था. पंत ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और गांधीजी के अनुयायी के रूप में विभिन्न आंदोलनों में भाग लिया.
पंत उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने और बाद में भारतीय गणराज्य के गृह मंत्री के रूप में भी कार्य किया. उन्हें उनके प्रशासनिक कौशल और जनता के प्रति समर्पण के लिए याद किया जाता है. गोविंद बल्लभ पंत ने भारतीय समाज में सुधारों की दिशा में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने जाति प्रथा के उन्मूलन, शिक्षा के प्रसार और महिलाओं के अधिकारों के लिए काम किया.
गोविंद बल्लभ पंत को उनके योगदान के लिए भारतीय गणराज्य के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया. उनकी मृत्यु 7 मार्च 1961 को हुई. उनका जीवन और कार्य आज भी भारतीय राजनीति और समाज में प्रेरणादायक बने हुए हैं.
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साहित्यकार राधिकारमण प्रसाद सिंह
राधिकारमण प्रसाद सिंह एक हिंदी साहित्यकार थे, जिनका जन्म 10 सितम्बर, 1890 को बिहार के शाहाबाद जिले में हुआ था. वे द्विवेदी युग के एक प्रसिद्ध कथाकार और उपन्यासकार थे. उनकी आरंभिक शिक्षा घर पर हुई और बाद में उन्होंने आरा ज़िला स्कूल, सेंट जेवियर्स कॉलेज, कलकत्ता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की. उन्होंने वर्ष 1914 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की.
राधिकारमण प्रसाद सिंह को अंग्रेज सरकार द्वारा ‘राजा’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था और उन्हें सी.आई.ई. की उपाधि भी मिली. वे गांधीवादी विचारधारा के प्रभाव में थे और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे. उनकी रचनाओं में कहानी संग्रह जैसे – ‘कुसुमांजलि’, ‘अपना पराया’, ‘गांधी टोपी’, और ‘धर्मधुरी’ शामिल हैं. उन्होंने उपन्यास ‘राम-रहीम’, ‘पुरुष और नारी’, ‘सूरदास’, ‘संस्कार’, ‘पूरब और पश्चिम’, और ‘चुंबन और चाँटा’ जैसी कृतियाँ भी लिखीं. उनके लघु उपन्यास, नाटक, संस्मरण और गद्यकाव्य भी हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण हिस्से हैं.
उनकी सेवाओं के लिए उन्हें ‘पद्मभूषण’ और ‘साहित्यवाचस्पति’ की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था. राधिकारमण प्रसाद सिंह का देहांत 24 मार्च, 1971 को हुआ था.
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आर्यसमाजी भवानी दयाल सन्यासी
भवानी दयाल सन्यासी आर्य समाज के प्रमुख सदस्य थे, जो एक हिन्दू सुधारवादी आंदोलन है जिसकी स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने की थी. उनका जन्म 10 सितंबर, 1892 को जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ़्रीका में हुआ और उनका निधन 9 मई, 1959को हुआ था.
भवानी दयाल ने आर्य समाज ने वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना, जाति प्रथा के खिलाफ लड़ाई और महिला शिक्षा के प्रसार पर जोर दिया. भवानी दयाल सन्यासी ने इन सिद्धांतों को अपनाया और अपने लेखन तथा सामाजिक कार्य के माध्यम से इन्हें बढ़ावा दिया.
भवानी दयाल ने विशेष रूप से फिजी में आर्य समाज की स्थापना में मदद की और वहाँ के भारतीय प्रवासियों के बीच शिक्षा और समाज सुधार के प्रोग्राम चलाए. उनका मानना था कि शिक्षा से ही सच्ची समाजिक परिवर्तन संभव है, और इस विश्वास के साथ उन्होंने अनेकों विद्यालयों की स्थापना में भी योगदान दिया. उनके इस अद्वितीय योगदान के कारण उन्हें फिजी और भारतीय दियास्पोरा के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है.
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कार्यवाहक राष्ट्रपति, कार्यवाहक उपराष्ट्रपति, बी डी जत्ती
बी डी जत्ती, जिनका पूरा नाम बसप्पा दानप्पा जत्ती है, भारत के प्रमुख राजनीतिज्ञों में से एक थे. उनका जन्म 10 सितंबर 1912 को बीजापुर ज़िले के सवालगी ग्राम में हुआ था और उनकी मृत्यु 7 जून 2002 को हुई. जत्ती ने भारतीय राजनीति में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया.
उन्होंने भारत के उप-राष्ट्रपति के रूप में वर्ष 1974- 79 तक कार्य किया और इस दौरान वर्ष 1977 में उन्होंने कुछ महीनों के लिए कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में भी कार्य किया था. यह तब हुआ जब राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का निधन हो गया था. जत्ती का कार्यकाल राष्ट्रपति के रूप में अल्पकालिक था, लेकिन उन्होंने इस पद पर रहते हुए संयम और गरिमा का परिचय दिया.
जत्ती ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में भी कार्य किया था और वे लंबे समय तक विधायिका में सक्रिय रहे. उनका राजनीतिक जीवन समाज के कमजोर वर्गों के उत्थान और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए समर्पित था. जत्ती की नीतियाँ और उनका नेतृत्व आज भी कर्नाटक और भारतीय राजनीति में सराहनीय मानी जाती हैं.
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अभिनेत्री भक्ति बर्वे
भक्ति बर्वे एक भारतीय अभिनेत्री हैं. जो मुख्यत: मराठी, गुजराती और हिंदी हिंदी फिल्मों में अपने काम के लिये जाने जाती हैं. उनका जन्म 10 सितंबर 1948 को सांगली, महाराष्ट्र में हुआ था और उनका निधन 12 फरवरी 2001 को एक कार दुर्घटना में हुआ. उनके पति का नाम अभिनेता शफी इनामदार है.
भक्ति बर्वे ने अपने कैरियर की शुरुआत थिएटर से की थी. उन्हें मराठी नाटक “ती फुलराणी” में अपनी शीर्षक भूमिका के लिए सबसे अधिक जाना जाता है. इस नाटक के 1111 से अधिक शो हुए थे. इसके अलावा, उन्होंने “आई रिटायर होतेय” (950 से अधिक शो), “नाग मंडला”, “हैंड्स अप” और “रंग माझा वेगळा” जैसे कई अन्य लोकप्रिय नाटकों में भी काम किया.
उन्होंने हिंदी फिल्मों में भी काम किया.उनकी सबसे प्रसिद्ध भूमिका कुंदन शाह की कॉमेडी फिल्म “जाने भी दो यारो” (1983) में शोभा सेन की थी. उन्होंने गोविंद निहलानी की फिल्म “हज़ार चौरासी की माँ” (1998) में भी अभिनय किया.
भक्ति बर्वे ने दूरदर्शन के लिए एक समाचार वाचक और प्रस्तुतकर्ता के रूप में भी काम किया. दूरदर्शन पर उन्होंने कवि-संत बहिणाबाई चौधरी के किरदार को भी निभाया, जिसे समीक्षकों ने काफी सराहा था. वर्ष 1990 में, उन्हें मराठी थिएटर में अभिनय के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
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फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप
अनुराग कश्यप एक भारतीय फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, निर्माता और अभिनेता हैं. वे हिंदी सिनेमा में अपने ऑफबीट, डार्क और रियलिस्टिक सिनेमा के लिए जाने जाते हैं.
अनुराग का जन्म 10 सितम्बर 1972 को गोरखपुर, बिहार में हुआ था. उनके पिता का नाम प्रकाश सिंह है. उनके एक भाई और एक बहन भी हैं जिनका नाम अभिनव कश्यप और अनुभूति कश्यप है. उनकी शुरूआती पढ़ाई ग्रीन स्कूल देहरादून और सिंधिया स्कूल, ग्वालियर से हुई थी. इसके बाद वे पढ़ाई के लिए हंसराज कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) भी गए. इसके बाद उन्होंने थियेटर ज्वाइन कर लिया.उनकी शादी आरती बजाज से हुई थी. बाद में उन्होंने अभिनेत्री कल्कि कोचलीन से शादी कर ली.
अनुराग कश्यप ने वर्ष 1990 के दशक में बतौर पटकथा लेखक अपना कैरियर शुरू किया. उन्होंने राम गोपाल वर्मा की फिल्म ‘सत्या’ (1998) की पटकथा लिखकर पहचान हासिल की. बाद में उन्होंने खुद के निर्देशन में फिल्में बनाना शुरू किया. फिल्म निर्देशक के तौर पर उनके कैरियर की शुरूआत फिल्म ‘पांच’ से हुई थी.
फिल्में: – गैंग ऑफ़ वासेपुर पार्ट 1, गैंग ऑफ़ वासेपुर पार्ट 2, मसान, क्वीन, उड़ता पंजाब, सांड की आँख और घूमकेतु.
अनुराग कश्यप ने कई नए और प्रतिभाशाली कलाकारों जैसे नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, पंकज त्रिपाठी और रिचा चड्ढा को पहचान दिलाई है. उनका काम अक्सर सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों, अपराध, और मानवीय मनोविज्ञान के गहरे पहलुओं पर केंद्रित होता है.
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क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी
जतीन्द्रनाथ मुखर्जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान क्रांतिकारी थे. उन्हें “बाघा जतिन” के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने एक बार निहत्थे ही एक बाघ का सामना किया और उसे मार गिराया था. यह उनकी वीरता और साहस का प्रतीक बन गया. जतीन्द्रनाथ का जन्म 7 दिसंबर 1879 को बंगाल के कुस्टिया जिले (अब बांग्लादेश में) के कायाग्राम के एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम उपेंद्रनाथ मुखर्जी और माता का नाम शारदा देवी था. बाल्यकाल से ही उनमें साहस और नेतृत्व के गुण दिखने लगे थे.
जतीन्द्रनाथ मुखर्जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान युगांतर दल के प्रमुख नेता थे. इस संगठन का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना था. उन्होंने जर्मन योजना के तहत प्रथम विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह की योजना बनाई. इस योजना के तहत जर्मनी से हथियारों की आपूर्ति की व्यवस्था की गई थी. हालांकि, यह योजना सफल नहीं हो पाई, लेकिन इससे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ व्यापक असंतोष पैदा हुआ.
जतीन्द्रनाथ मुखर्जी स्वदेशी आंदोलन के सक्रिय समर्थक थे और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार को प्रोत्साहित करते थे.उन्होंने युगांतर दल को मजबूत किया और इसे क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बनाया.उनके द्वारा बाघ का वध उनकी साहसिकता का प्रतीक बन गया। इस घटना के कारण उन्हें “बाघा जतिन” का उपनाम मिला था.
9 सितंबर 1915 को उड़ीसा के बालासोर में ब्रिटिश सैनिकों के साथ एक मुठभेड़ में वह बुरी तरह घायल हो गए. उनकी वीरता और संघर्ष ब्रिटिश अधिकारियों के लिए भी प्रेरणा का विषय था. इस संघर्ष के बाद वह गिरफ्तार कर लिए गए और 10 सितंबर 1915 को उनकी मृत्यु हो गई.
बाघा जतिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अमिट नाम हैं. उनकी वीरता, संगठन कौशल और बलिदान आज भी भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है. उनके सम्मान में भारत के विभिन्न हिस्सों में स्मारक और संस्थान स्थापित किए गए हैं. जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का जीवन इस बात का उदाहरण है कि व्यक्तिगत साहस और संगठन शक्ति के माध्यम से बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं.
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बंगाली उपन्यासकार सुकुमार राय
सुकुमार राय बांग्ला साहित्य के एक विख्यात लेखक, कवि, चित्रकार और उपहासात्मक साहित्य के जनक माने जाते हैं. उनका जन्म 30 अक्टूबर 1887 को कोलकाता में हुआ था. सुकुमार राय अपने हास्य, व्यंग्य, और नॉनसेंस साहित्य के लिए प्रसिद्ध थे और बंगाली बाल साहित्य में उनका योगदान अतुलनीय है. वे जाने-माने फिल्मकार सत्यजीत राय के पिता थे.
सुकुमार राय की सबसे प्रसिद्ध कृति “आबोल ताबोल” (Abol Tabol) है, जो हास्यपूर्ण और नॉनसेंस कविताओं का संग्रह है. इस संग्रह में उनकी लेखनी का जादू देखने को मिलता है, जहां बच्चों के लिए अनोखे और कल्पनात्मक चरित्र रचे गए हैं. इनकी कहानियां और कविताएं बांग्ला साहित्य में आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं और पाठकों को हंसी और प्रेरणा से भर देती हैं.
उन्होंने “हजबरल” (HaJaBaRaLa), “पगला दासू” (Pagla Dashu), और “लखोर बंधु” (Lakkhar Bondhu) जैसी लोकप्रिय रचनाएं भी लिखीं, जो बच्चों और बड़ों के बीच समान रूप से लोकप्रिय हैं. उनकी रचनाओं में सहज भाषा और सरल कथानक होने के बावजूद उनमें सामाजिक व्यंग्य और आलोचना भी दिखाई देती है, जो उनके लेखन को गहराई और अर्थ देती है.
सुकुमार राय का जीवन बहुत ही संक्षिप्त रहा. वे 10 सितंबर 1923 को केवल 35 वर्ष की आयु में कालाजार बीमारी के कारण चल बसे. लेकिन उनकी लेखनी का प्रभाव आज भी बंगाली साहित्य में जीवित है और उनकी रचनाओं को कई भाषाओं में अनुवादित किया गया है.
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परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद
अब्दुल हमीद भारतीय सेना के एक महान सैनिक थे, जिन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. यह भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान है, जो युद्ध के दौरान असाधारण वीरता और बलिदान के लिए दिया जाता है. अब्दुल हमीद का जन्म 1 जुलाई 1933 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के धरमपुर गांव में हुआ था. उनका परिवार एक साधारण पृष्ठभूमि से था और बचपन से ही वे सेना में शामिल होने का सपना देखते थे.
अब्दुल हमीद वर्ष 1954 में भारतीय सेना में भर्ती हुए और ग्रेनेडियर रेजिमेंट में शामिल हुए. वे अपने अनुशासन, वीरता और उच्चतम सैनिक गुणों के लिए जाने जाते थे.10 सितंबर 1965 को, खेमकरण सेक्टर के असल उत्तर गांव में, अब्दुल हमीद ने अपनी रेजिमेंट की स्थिति को बचाने के लिए अकेले ही कई पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नष्ट कर दिया. अपनी जीप में लगी रेकोइललेस राइफल का कुशलतापूर्वक उपयोग करते हुए, उन्होंने अद्भुत साहस और सैन्य कौशल का प्रदर्शन किया. इस दौरान वे दुश्मन के हमले में गंभीर रूप से घायल हो गए और उनकी मृत्यु हो गई.
अब्दुल हमीद की वीरता और बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. उनका अद्वितीय साहस और बलिदान भारतीय सेना के इतिहास में अमर है और उन्हें एक राष्ट्रीय नायक के रूप में सम्मानित किया जाता है. अब्दुल हमीद का नाम भारतीय सैन्य इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है. उनकी स्मृति में कई स्कूल, सड़कें और संस्थान नामित किए गए हैं. उनकी पत्नी रसूलन बीबी और उनके परिवार ने उनके बलिदान की विरासत को जीवित रखा है.
अब्दुल हमीद का जीवन और बलिदान भारतीय सेना के सभी सैनिकों और देशवासियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है. उनका अद्वितीय साहस, देशभक्ति और बलिदान हमेशा भारतीय जनता की स्मृति में जीवित रहेगा.



