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व्यक्ति विशेष– 539.

स्वतंत्रता सेनानी अनुग्रह नारायण सिन्हा

अनुग्रह नारायण सिन्हा एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, वकील, राजनीतिज्ञ, और आधुनिक बिहार के निर्माता थे. उनका जन्म 18 जून 1887 को बिहार के गया जिले में हुआ था. वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय एक प्रमुख नेता थे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़कर कई आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया.

अनुग्रह नारायण सिन्हा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गया में प्राप्त की और बाद में पटना कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की. इसके बाद, वे वकालत की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए और बैरिस्टर बने. शिक्षा के प्रति उनका गहरा लगाव था और उन्होंने अपने जीवन के विभिन्न चरणों में शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

महात्मा गांधी के साथ उनकी निकटता ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं में शामिल किया. उन्होंने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भाग लिया. वे महात्मा गांधी के सिद्धांतों और आदर्शों से प्रभावित थे और उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह को अपने जीवन में अपनाया.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री बने. उनके कार्यकाल में बिहार के आर्थिक और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण प्रगति हुई. वे ग्रामीण विकास, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार के लिए प्रतिबद्ध थे.

अनुग्रह नारायण सिन्हा को आधुनिक बिहार का निर्माता माना जाता है. उन्होंने बिहार के विभिन्न हिस्सों में कई विकासात्मक परियोजनाओं का आरंभ किया और राज्य के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनके योगदान को सम्मानित करते हुए, बिहार में कई संस्थानों और सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है.

उनका निधन 5 जुलाई 1957 को हुआ, लेकिन उनके योगदान और विरासत को आज भी बिहार और भारत में याद किया जाता है. उनका जीवन और कार्य हमें सेवा, समर्पण, और नेतृत्व के मूल्य सिखाते हैं.

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स्वतंत्रता सेनानी दादा धर्माधिकारी

दादा धर्माधिकारी, जिनका पूरा नाम शांताराम धर्माधिकारी था, एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, गांधीवादी विचारक और समाज सुधारक थे. उनका जन्म 18 जून 1899 को हुआ था और वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण नेताओं में से एक थे. वे महात्मा गांधी के करीबी सहयोगी थे और उनके विचारों और सिद्धांतों का पालन करते थे.

दादा धर्माधिकारी का जन्म  मध्य प्रदेश के बैतूल ज़िले में हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में प्राप्त की और बाद में उच्च शिक्षा के लिए नागपुर विश्वविद्यालय गए. वे प्रारंभ से ही सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों में रुचि रखते थे और उन्होंने अपने छात्र जीवन के दौरान ही स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना शुरू कर दिया था.

दादा धर्माधिकारी ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में विभिन्न आंदोलनों में भाग लिया, जिनमें असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन शामिल हैं. उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों का पालन करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, दादा धर्माधिकारी ने गांधीवादी विचारधारा को फैलाने और समाज सुधार के लिए अपना जीवन समर्पित किया. उन्होंने सामाजिक न्याय, समानता, और नैतिकता के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया और विभिन्न संगठनों और आंदोलनों के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाने का काम किया. वे भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ सक्रिय रूप से संघर्ष करते रहे.

दादा धर्माधिकारी ने अपने जीवनकाल में कई किताबें और लेख लिखे, जिनमें उन्होंने गांधीवादी विचारधारा, सामाजिक न्याय, और नैतिकता के मुद्दों पर अपने विचार प्रस्तुत किए. उनके लेखन और विचारों ने कई लोगों को प्रेरित किया और वे आज भी समाज सुधार के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत हैं.

उनका निधन 1 दिसम्बर 1985 को हुआ, लेकिन उनके योगदान और विचारों को आज भी समाज में सम्मानित किया जाता है. दादा धर्माधिकारी का जीवन और कार्य हमें सेवा, समर्पण, और नैतिकता के महत्व को सिखाते हैं.

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पाँचवें सरसंघचालक के एस सुदर्शन

के एस सुदर्शन (कुप्पहल्लि सीतारमैया सुदर्शन) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के पाँचवें सरसंघचालक थे. उनका कार्यकाल वर्ष 2000 – 09 तक रहा. सुदर्शन जी एक प्रमुख हिंदू राष्ट्रवादी विचारक और संघ के समर्पित कार्यकर्ता थे, जिन्होंने भारतीय संस्कृति, हिंदुत्व और राष्ट्रीय एकता के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए. के एस सुदर्शन का जन्म 18 जून 1931 को रायपुर (तब मध्य प्रदेश, अब छत्तीसगढ़) में हुआ था. उनके परिवार का मूल रूप से कर्नाटक से संबंध था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा रायपुर में पूरी की और बाद में उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक्स और संचार इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री हासिल की.

सुदर्शन जी के जीवन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बहुत गहरा प्रभाव था. उन्होंने 9 साल की उम्र में ही आरएसएस के साथ जुड़ गए थे और अपनी शिक्षा के साथ-साथ संघ के कार्यों में भी सक्रिय रूप से हिस्सा लेने लगे.

के एस सुदर्शन ने वर्ष 1954 में पूर्णकालिक प्रचारक के रूप में आरएसएस के साथ अपना करियर शुरू किया. उन्हें धीरे-धीरे संघ के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर काम करने का मौका मिला. वे वर्ष 1970 में आरएसएस के प्रचार विभाग में काम करने लगे और वर्ष 1990 में उन्हें सह-सरकार्यवाह के पद पर नियुक्त किया गया.

सुदर्शन जी ने वर्ष 2000 में बाबासाहेब देवरस के बाद आरएसएस के पाँचवें सरसंघचालक के रूप में कार्यभार संभाला. उनके कार्यकाल में संघ ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की धारा को और भी मजबूत किया. वे तकनीकी दृष्टिकोण और भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण पर बल देते थे.

स्वदेशी आंदोलन: – सुदर्शन जी ने स्वदेशी विचारधारा का समर्थन किया और देश के आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ आवाज उठाई. वे स्वदेशी तकनीक और उद्योग को बढ़ावा देने के पक्षधर थे.

भारतीय संस्कृति और परंपराओं पर जोर: – सुदर्शन जी भारतीय संस्कृति, परंपराओं और हिंदू धर्म के गहरे समर्थक थे. उन्होंने भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार और संस्कृत के अध्ययन को बढ़ावा देने पर जोर दिया.

तकनीकी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण: – अपने तकनीकी पृष्ठभूमि के कारण, सुदर्शन जी ने संघ के कार्यक्रमों में तकनीकी और वैज्ञानिक विकास पर भी ध्यान केंद्रित किया. वे आधुनिक विज्ञान और भारतीय परंपराओं को साथ में बढ़ाने की बात करते थे.

धर्मांतरण के खिलाफ: – सुदर्शन जी ने देश में चल रहे धर्मांतरण के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया और इसे भारतीय समाज के लिए खतरा बताया.

वर्ष 2009 में के एस सुदर्शन ने स्वास्थ्य कारणों से सरसंघचालक पद से इस्तीफा दे दिया और उनके स्थान पर मोहन भागवत को आरएसएस का नया सरसंघचालक नियुक्त किया गया. के एस सुदर्शन का निधन 15 सितंबर 2012 को हुआ. वे अपने कार्यों और विचारधारा के कारण आरएसएस और हिंदुत्व विचारधारा में एक प्रमुख व्यक्ति माने जाते हैं.

के एस सुदर्शन एक विचारशील और समर्पित नेता थे, जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान आरएसएस को मजबूत करने और भारतीय संस्कृति तथा हिंदू समाज के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनका जीवन संघ और देश सेवा के प्रति समर्पित था, और वे अपने विचारों और कार्यों के माध्यम से हमेशा याद किए जाते रहेंगे.

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साहित्यकार सेठ गोविन्द दास

सेठ गोविन्द दास भारत के एक प्रमुख साहित्यकार, स्वतंत्रता सेनानी, और राजनीतिज्ञ थे. उनका जन्म 16 अक्टूबर 1896 को जबलपुर, मध्य प्रदेश में हुआ था. वे हिन्दी साहित्य के एक महत्वपूर्ण स्तंभ थे और उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक, और सामाजिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

सेठ गोविन्द दास का जन्म एक समृद्ध मारवाड़ी परिवार में हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा घर पर प्राप्त की और बाद में वे उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय गए. बचपन से ही उन्हें साहित्य और संस्कृति में गहरी रुचि थी, और उन्होंने अपने जीवन को साहित्य और समाज सेवा के लिए समर्पित कर दिया.

सेठ गोविन्द दास ने हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनकी प्रमुख रचनाओं में नाटक, उपन्यास, और निबंध शामिल हैं. उन्होंने भारतीय संस्कृति, समाज, और राष्ट्रीयता पर कई लेख और पुस्तकें लिखीं.

प्रमुख कृतियाँ: –

नाटक:  – “दुर्गेश नन्दिनी,” “राणा प्रताप,” “भगत सिंह,” आदि.

उपन्यास: “विजयपथ,” “विजयिनी,” आदि.

निबंध:  –हिन्दी साहित्य का इतिहास,” “भारतीय संस्कृति,” आदि.

सेठ गोविन्द दास महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल हुए. उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में कई आंदोलनों में भाग लिया और स्वतंत्रता संग्राम में अपने लेखन और भाषणों के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया. वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी शामिल थे और इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा.

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, सेठ गोविन्द दास भारतीय संसद के सदस्य बने. उन्होंने संसद में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस की और भारतीय संस्कृति और भाषा के संरक्षण के लिए अपने विचार प्रस्तुत किए. वे हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के प्रबल समर्थक थे और इस मुद्दे पर उन्होंने संसद में कई बार आवाज उठाई.

सेठ गोविन्द दास को उनके साहित्यिक और सामाजिक योगदान के लिए कई सम्मान और पुरस्कार मिले. उनकी स्मृति में कई संस्थानों और सड़कों का नामकरण किया गया है. उनकी साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर आज भी हिन्दी साहित्य और भारतीय समाज में महत्वपूर्ण स्थान रखती है.

उनका निधन 18 जून 1974 को हुआ. सेठ गोविन्द दास का जीवन और कार्य हमें साहित्य, समाज सेवा, और राष्ट्रीयता के महत्व को सिखाते हैं. उनके योगदान को सदैव स्मरण किया जाएगा.

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सरोद वादक अली अकबर ख़ाँ

अली अकबर ख़ाँ भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक महान सरोद वादक थे. उनका जन्म 14 अप्रैल 1922 को वर्तमान बांग्लादेश के शिबपुर गांव में हुआ था. वे भारतीय शास्त्रीय संगीत के मशहूर मैहर घराने से ताल्लुक रखते थे और उनके पिता उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ, जो स्वयं एक महान संगीतकार थे, उनके गुरु थे.

अली अकबर ख़ाँ ने बहुत ही कम उम्र में संगीत की शिक्षा प्राप्त करनी शुरू कर दी थी. उनके पिता, उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ, उनके प्रमुख गुरु थे और उन्होंने अपने पुत्र को न केवल सरोद वादन, बल्कि विभिन्न वाद्ययंत्रों और गायन की भी शिक्षा दी. उनके संगीत का प्रशिक्षण अत्यंत कठोर और व्यापक था, जिसमें विभिन्न रागों और तालों का गहन अध्ययन शामिल था.

अली अकबर ख़ाँ ने अपने जीवनकाल में भारतीय शास्त्रीय संगीत को वैश्विक मंच पर पहचान दिलाई. उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रदर्शन किया और पश्चिमी दर्शकों के बीच भारतीय शास्त्रीय संगीत की लोकप्रियता बढ़ाई. उन्होंने कई प्रतिष्ठित संगीत समारोहों में भाग लिया और अपने अद्वितीय सरोद वादन शैली के लिए प्रसिद्ध हुए.

अली अकबर ख़ाँ ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को सिखाने के लिए अली अकबर कॉलेज ऑफ म्यूजिक की स्थापना की. इस कॉलेज का मुख्यालय कैलिफोर्निया, अमेरिका में है और इसकी शाखाएँ विभिन्न स्थानों पर हैं. इस संस्थान ने भारतीय शास्त्रीय संगीत की शिक्षा और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

अली अकबर ख़ाँ को उनके संगीत के लिए कई सम्मान और पुरस्कार मिले. इनमें से कुछ प्रमुख हैं: –  पद्म भूषण (1967), पद्म विभूषण (1989) व मैकआर्थर फाउंडेशन पुरस्कार (1991). अली अकबर ख़ाँ की संगीत शैली और शिक्षा ने कई संगीतकारों और छात्रों को प्रेरित किया है. उनके शिष्य और अनुयायी उनकी विधा को आगे बढ़ा रहे हैं और भारतीय शास्त्रीय संगीत की धरोहर को संरक्षित कर रहे हैं. उनकी संगीत रिकॉर्डिंग और प्रदर्शन आज भी संगीत प्रेमियों के बीच अत्यधिक मूल्यवान हैं.

अली अकबर ख़ाँ का निधन 18 जून 2009 को सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया में हुआ. उनकी संगीत विधा, शिक्षा, और योगदान को हमेशा याद किया जाएगा और भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनकी विरासत अमर रहेगी.

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अभिनेत्री नसीम बानो

नसीम बानो भारतीय सिनेमा की एक अभिनेत्री थीं, जिन्हें उनके शानदार अभिनय और सुंदरता के लिए जाना जाता था. उन्हें “ब्यूटी क्वीन” के नाम से भी प्रसिद्धि मिली थी. नसीम बानो का जन्म 4 जुलाई 1916 को दिल्ली में हुआ था. उनके पिता, नवाब अब्दुल वाहिद खान, रईस थे और उनकी माता, शम्सुन्निसा बेगम, एक प्रसिद्ध गायिका थीं.

नसीम बानो ने अपने फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत वर्ष 1935 में फिल्म “ख़ून का ख़ून” से की, जो शेक्सपियर के नाटक “हेमलेट” का एक रूपांतर था. उनकी प्रमुख फिल्में शामिल हैं  –  “पुकार” (1939), “अनारकली” (1953), और “चाँदनी रात” (1949). ” पुकार” में उनके अभिनय ने उन्हें एक प्रमुख अभिनेत्री के रूप में स्थापित किया वहीँ, ” अनारकली” में उनके शानदार प्रदर्शन ने उन्हें भारतीय सिनेमा की शीर्ष अभिनेत्रियों में शुमार कर दिया.

नसीम बानो की खूबसूरती और फैशन सेंस के कारण उन्हें भारतीय सिनेमा की “ब्यूटी क्वीन” कहा जाता था. वे अपनी अदाओं और अभिनय शैली के लिए प्रसिद्ध थीं, जिसने उन्हें दर्शकों के दिलों में विशेष स्थान दिलाया. नसीम बानो की शादी एजाजुल हसन से हुई थी. उनकी बेटी, सायरा बानो भी भारतीय सिनेमा की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं, जिन्होंने दिलीप कुमार से विवाह किया. नसीम बानो ने अपने अभिनय और खूबसूरती के जरिए भारतीय सिनेमा में एक अमिट छाप छोड़ी है, उनकी फिल्मों और अभिनय को आज भी सिने प्रेमियों द्वारा सराहा जाता है. नसीम बानो का निधन 18 जून 2002 को हुआ था.

नसीम बानो भारतीय सिनेमा की एक महत्वपूर्ण अभिनेत्री थीं, जिन्होंने अपनी कला और खूबसूरती से दर्शकों का दिल जीत लिया और आज भी उनकी यादें सिने-प्रेमियों के दिलों में जीवित हैं.

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