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व्यक्ति विशेष -512.

समाज सुधारक राजा राममोहन राय

राजा राममोहन राय भारत के एक महान समाज सुधारक, शिक्षाविद, और आधुनिक भारत के निर्माण में अग्रणी व्यक्ति थे. उन्हें भारतीय पुनर्जागरण के पिता के रूप में जाना जाता है. राजा राममोहन राय ने समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वासों, और भेदभाव को खत्म करने के लिए कई सुधार आंदोलनों की शुरुआत की, और उन्होंने भारतीय समाज को आधुनिक और प्रगतिशील दिशा में ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

राजा राममोहन राय  का जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के राधानगर गांव (वर्तमान पश्चिम बंगाल में) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनका बचपन धार्मिक और परंपरागत परिवेश में बीता, लेकिन वे प्रारंभ से ही आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की ओर झुके हुए थे. उन्होंने बंगाली, संस्कृत, फारसी, अरबी और अंग्रेजी जैसी कई भाषाओं में दक्षता हासिल की.

राममोहन राय ने विभिन्न भाषाओं और धर्मों का गहन अध्ययन किया, जिससे उनकी सोच में व्यापकता और गहराई आई. उन्होंने भारतीय और पाश्चात्य शिक्षा को एक साथ मिलाने का पक्ष लिया. फारसी और अरबी का अध्ययन करते हुए उन्होंने इस्लामी और पश्चिमी विचारधाराओं का भी अध्ययन किया, जिससे उनके विचारों में धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता आई. उन्होंने हिंदू धर्मग्रंथों का भी अध्ययन किया और समाज में सुधार लाने के लिए भारतीय धर्म और परंपराओं को नए दृष्टिकोण से देखा.

राजा राममोहन राय ने समाज में व्याप्त कई कुरीतियों को खत्म करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए.  उन्होंने सती प्रथा (जिसमें पति की मृत्यु के बाद पत्नी को जीवित जला दिया जाता था) का कड़ा विरोध किया. उन्होंने इस प्रथा को अमानवीय और अत्याचारी माना और इसके खिलाफ जन जागरूकता अभियान चलाया. उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप, लॉर्ड विलियम बेंटिक की सरकार ने वर्ष 1829 में सती प्रथा को कानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया.

राजा राममोहन राय विधवा पुनर्विवाह के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने महिलाओं के अधिकारों की वकालत की और समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए कार्य किया. उनके विचारों ने बाद में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (1856) का मार्ग प्रशस्त किया.

उन्होंने हिंदू धर्म में व्याप्त अंधविश्वास और मूर्तिपूजा का विरोध किया और एकेश्वरवाद (एक ईश्वर की पूजा) का समर्थन किया. वे ब्रह्म समाज के संस्थापक थे, जो ईश्वर की एकता, नैतिकता, और धर्म में सुधार की वकालत करता था.

राजा राममोहन राय ने आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई प्रयास किए. उन्होंने संस्कृत और पारंपरिक शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी और विज्ञान की शिक्षा को महत्व दिया. उन्होंने वर्ष 1817 में हिंदू कॉलेज (जिसे अब प्रेसीडेंसी यूनिवर्सिटी के नाम से जाना जाता है) की स्थापना में मदद की, जो आधुनिक शिक्षा का प्रमुख केंद्र बना. वे अंग्रेजी, विज्ञान, और गणित की पढ़ाई के पक्षधर थे, ताकि भारतीय युवा विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकें और देश के विकास में योगदान दे सकें.

राजा राममोहन राय ने प्रेस की स्वतंत्रता का समर्थन किया और संपादक और लेखक के रूप में कार्य किया. उन्होंने ‘सम्वाद कौमुदी’ (बंगाली भाषा में) और ‘मिरात-उल-अखबार’ (फारसी भाषा में) जैसे पत्रों का संपादन किया, जिनके माध्यम से उन्होंने अपने समाज सुधार विचारों का प्रसार किया. उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाए गए प्रतिबंधों का विरोध किया और भारतीय पत्रकारिता की नींव रखी.

राजा राममोहन राय धार्मिक सहिष्णुता के प्रबल समर्थक थे. उन्होंने हिंदू, इस्लाम, और ईसाई धर्मों के बीच संवाद स्थापित करने के प्रयास किए और सभी धर्मों को समान मानने की आवश्यकता पर जोर दिया. वर्ष 1828 में राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की, जो एक सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन था. ब्रह्म समाज ने एकेश्वरवाद का प्रचार किया. जातिवाद, छुआछूत, और सामाजिक असमानता का विरोध किया. मूर्तिपूजा का विरोध किया और तर्कसंगत और नैतिक जीवन पर जोर दिया. ब्रह्म समाज भारतीय समाज में प्रगतिशील विचारों का एक प्रमुख मंच बना और राजा राममोहन राय के सुधारवादी विचारों का प्रतीक बन गया.

राजा राममोहन राय ने न केवल भारतीय समाज में सुधार किया, बल्कि उन्होंने विदेशों में भी भारतीय संस्कृति और समस्याओं को लेकर आवाज उठाई. उन्हें ब्रिटेन में ‘भारत का पहला राजदूत’ कहा जाता है, क्योंकि वे ब्रिटिश सरकार से भारतीय अधिकारों के लिए संवाद करने गए थे. राजा राममोहन राय की मृत्यु 27 सितंबर 1833 को इंग्लैंड के ब्रिस्टल में हुई. वे वहां भारतीय समाज की समस्याओं और अधिकारों के बारे में ब्रिटिश सरकार से संवाद करने गए थे.

राजा राममोहन राय ने भारतीय समाज में सुधार के लिए जो प्रयास किए, वे आज भी भारतीय समाज के विकास और प्रगति की नींव माने जाते हैं. उन्होंने न केवल सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि भारतीय समाज को आधुनिक और प्रगतिशील बनाने के लिए भी काम किया. उनके विचार और उनके योगदान आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं.

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हिंदी और रूसी साहित्यकार मदन लाल मधु

मदन लाल मधु हिंदी और रूसी साहित्य के एक प्रमुख विद्वान थे. उन्होंने हिंदी और रूसी साहित्य के बीच सांस्कृतिक सेतु का काम किया और दोनों भाषाओं में साहित्यिक कृतियों का अनुवाद और प्रचार-प्रसार किया. उनका जन्म 28 जुलाई 1925 को हुआ था और वे हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वानों में से एक थे.

मदन लाल मधु का जन्म पंजाब में हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पंजाब से प्राप्त की और बाद में उच्च शिक्षा के लिए रूस चले गए. वहां उन्होंने रूसी भाषा और साहित्य में गहरी पकड़ बनाई. मदन लाल मधु ने हिंदी और रूसी साहित्य के बीच पुल का निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने रूसी साहित्य की अनेक महान कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया और हिंदी साहित्य को रूसी पाठकों के बीच लोकप्रिय बनाया.

प्रमुख कृतियाँ और अनुवाद: –

मदन लाल मधु ने लियो टॉल्स्टॉय, फ़्योडोर दोस्तोयेव्स्की, अलेक्जेंडर पुश्किन और कई अन्य प्रमुख रूसी लेखकों की रचनाओं का हिंदी भाषा में अनुवाद किया वहीं , उन्होंने प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद और अन्य हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं का रूसी भाषा में अनुवाद किया. मधु ने अपने साहित्यिक करियर में कई मूल रचनाएँ भी लिखीं, जो हिंदी साहित्य के समृद्ध कोष का हिस्सा हैं.

मदन लाल मधु ने भारत और रूस के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देने के लिए अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया. उन्होंने साहित्यिक गोष्ठियों, संगोष्ठियों और सेमिनारों के माध्यम से दोनों देशों के साहित्यकारों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया. मदन लाल मधु के योगदान को सम्मानित करने के लिए उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान मिले. उन्हें दोनों देशों में उनके साहित्यिक योगदान के लिए मान्यता दी गई.

मदन लाल मधु का निधन 11 जनवरी 2014 को हुआ था. उनके निधन से हिंदी और रूसी साहित्य को अपूरणीय क्षति हुई, लेकिन उनका योगदान और उनकी कृतियाँ आज भी साहित्य प्रेमियों के बीच जीवित हैं.

मदन लाल मधु के कार्यों ने न केवल साहित्यिक दृष्टि से बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनकी साहित्यिक धरोहर और दोनों भाषाओं के साहित्य में उनके योगदान को सदैव याद किया जाएगा.

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मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती

महबूबा मुफ्ती एक भारतीय राजनीतिज्ञ हैं जो जम्मू और कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री रही हैं. उन्होंने 4 अप्रैल 2016 से 19 जून 2018 तक इस पद पर कार्य किया। महबूबा मुफ्ती जम्मू और कश्मीर की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं और वह जम्मू और कश्मीर पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) की संस्थापक सदस्य भी हैं.

महबूबा मुफ्ती का जन्म 22 मई 1959 को बिजबेहारा, जम्मू और कश्मीर में हुआ था. उन्होने कश्मीर विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल की. उनका राजनीतिक कैरियर उनके पिता, मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ काम करते हुए शुरू हुआ, जो स्वयं दो बार जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे थे. महबूबा मुफ्ती ने अपने पिता के साथ मिलकर 1999 में पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य राज्य में शांति और विकास सुनिश्चित करना था.

महबूबा के मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान, उन्होंने कश्मीर घाटी में शांति और स्थिरता के लिए कई पहल की, हालांकि उनके कार्यकाल को कई चुनौतियों और विवादों का सामना भी करना पड़ा। उनकी सरकार ने विशेष रूप से शिक्षा और पर्यटन के क्षेत्र में कई परियोजनाएं शुरू कीं. उनका राजनीतिक जीवन कई उतार-चढ़ावों से भरा रहा है.

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अभिनेता राजित कपूर

राजित कपूर एक भारतीय अभिनेता हैं, जो अपने विविध और प्रभावशाली अभिनय कौशल के लिए जाने जाते हैं. वे खास तौर पर दूरदर्शन के लोकप्रिय टीवी धारावाहिक “ब्योमकेश बक्शी” में ब्योमकेश बक्शी की भूमिका के लिए बेहद प्रसिद्ध हुए. इस शो में उनकी बारीक और गहन अभिनय शैली ने दर्शकों के बीच उन्हें बहुत लोकप्रिय बना दिया.

रजित का जन्म 22 मई 1960 को अमृतसर, पंजाब, भारत में हुआ था. उन्होंने थिएटर में भी अपनी एक मजबूत पहचान बनाई है और विभिन्न नाटकों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई हैं. उनका अभिनय कैरियर फिल्मों और टेलीविजन दोनों में समान रूप से सराहा गया है. फिल्मों में भी उन्होंने विविध भूमिकाएं निभाई हैं और कई अलग-अलग प्रकार की फिल्मों में काम किया है.

उनकी कुछ अन्य उल्लेखनीय फिल्मों में “ट्रेन टू पाकिस्तान”, “मोनसून वेडिंग” और “द मेकिंग ऑफ़ महात्मा” शामिल हैं. इन फिल्मों में उनके अभिनय की गहराई और विविधता ने उन्हें एक सम्मानित और प्रशंसित अभिनेता के रूप में स्थापित किया है.

राजित कपूर का कैरियर उनके अभिनय कौशल और विविध भूमिकाओं के चयन के लिए प्रशंसा का विषय बना रहता है, और वह भारतीय सिनेमा और रंगमंच के महत्वपूर्ण स्तंभों में से एक हैं.

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अभिनेत्री सुहाना खान

सुहाना खान जानी-मानी बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान की बेटी हैं. उनका जन्म 22 मई 2000 को हुआ था. सुहाना का नाम अक्सर मीडिया में उनके प्रसिद्ध पिता के संदर्भ में आता है, लेकिन उन्होंने खुद भी अपनी पहचान बनाई है.

सुहाना ने अपनी शिक्षा दुनिया के कई प्रतिष्ठित संस्थानों से की है और उन्होंने न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में फिल्म स्टडीज का अध्ययन किया है. वह रंगमंच और अभिनय में भी रुचि रखती हैं और अपने स्कूल और कॉलेज में विभिन्न नाटकों में हिस्सा ले चुकी हैं. वह सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रहती हैं और उनके कई प्रशंसक हैं जो उनकी पोस्ट्स को फॉलो करते हैं. सुहाना की फिल्म उद्योग में आने की अटकलें हमेशा से रही हैं, और उनके प्रशंसक उन्हें बड़े पर्दे पर देखने का इंतज़ार कर रहे हैं.

अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत करने से पहले, सुहाना ने कुछ लघु फिल्मों और वीडियो प्रोजेक्ट्स में काम किया है, जिससे उनके अभिनय कौशल की एक झलक मिलती है.

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शेरशाह सूरी

शेरशाह सूरी जिनका वास्तविक नाम फरीद खान था और वो एक प्रमुख अफगान शासक थे जिन्होंने मुगल साम्राज्य को पराजित कर भारत पर 1540 – 45 तक शासन किया. वे अपने कुशल प्रशासन और सैन्य कौशल के लिए जाने जाते हैं. शेरशाह सूरी ने बहुत कम समय में अपने प्रशासनिक ढांचे को मजबूत किया और उसमें सुधार किए, जिसका प्रभाव बाद के युगों में भी महसूस किया गया.

उन्होंने कई महत्वपूर्ण सुधार किए जैसे कि चलनी मुद्रा (रूपया) की शुरुआत, जिसे बाद में मुगल शासकों ने भी अपनाया. शेरशाह ने भारतीय राजमार्ग प्रणाली का विस्तार और सुधार किया.  उनका प्रशासन बहुत ही केंद्रीकृत और संगठित था, और उन्होंने अपने राज्य में कानून और व्यवस्था को मजबूती से लागू किया. शेरशाह ने साम्राज्य की आंतरिक सुरक्षा और विकास के लिए भी कई योजनाएं बनाईं.

शेरशाह सूरी का निधन 1545 में हुआ था, लेकिन उनके द्वारा किए गए सुधार और प्रशासनिक नीतियां मुगल साम्राज्य के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करती रहीं. उनके शासनकाल को भारतीय इतिहास में एक उल्लेखनीय काल के रूप में देखा जाता है.

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इतिहासवेत्ता गोविन्द चन्द्र पाण्डे

गोविन्द चन्द्र पाण्डे एक प्रमुख भारतीय इतिहासवेत्ता, विद्वान, और शिक्षाविद थे. उन्हें भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन और धर्म के गहन अध्ययन के लिए जाना जाता है. उनके कार्यों ने भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनका जन्म 30 जुलाई 1923 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज), उत्तर प्रदेश में हुआ था. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा प्राप्त की, जहाँ उन्होंने संस्कृत, पाली, और प्राचीन भारतीय इतिहास में विशेषज्ञता हासिल की.

 गोविन्द चन्द्र पाण्डे इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में इतिहास और संस्कृति के प्रोफेसर रहे. उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय और जम्मू विश्वविद्यालय के उपकुलपति के रूप में भी कार्य किया. उन्होंने भारतीय इतिहास, दर्शन, और धर्म पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें और लेख लिखे. उनकी कृतियों में प्राचीन भारतीय समाज और संस्कृति, बौद्ध धर्म, और भारतीय दर्शन शामिल हैं.

प्रमुख पुस्तकें: –

Foundations of Indian Culture

Buddhism in India

Studies in the Origins of Buddhism

History of Science, Philosophy and Culture in Indian Civilization

गोविन्द चन्द्र पाण्डे को उनके विद्वतापूर्ण योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान मिले. वे भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) के अध्यक्ष भी रहे. उन्हें 2010 में भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया.

उनके शोध कार्य ने भारतीय इतिहास और दर्शन को नई दृष्टि प्रदान की. उन्होंने भारतीय सभ्यता के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से प्रकाश डाला. उन्होंने भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार और उच्च शिक्षा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

गोविन्द चन्द्र पाण्डे का निधन 11 मई 2011 को हुआ था. उनका जीवन और कार्य भारतीय इतिहास और संस्कृति के अध्ययन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. उनके योगदान को आज भी विद्वानों और छात्रों द्वारा सराहा जाता है.

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