
कई साल बीत गए. रामदीन अब बूढ़ा हो चला था, लेकिन उसकी आँखों में आज भी वही चमक थी. गाँव में अब काफी बदलाव आ गया था. बच्चों के लिए स्कूल खुल गया था, और लोगों को स्वास्थ्य सेवाएँ भी मिलने लगी थीं.
मोहन और सोहन पढ़-लिखकर अच्छे नागरिक बन गए थे. मोहन अब गाँव की पंचायत में सक्रिय था और लोगों के हक के लिए लड़ रहा था. सोहन शहर में नौकरी करता था और गाँव के विकास में मदद करता था.
सीता अब एक मजबूत महिला थी, जिसने गाँव की महिलाओं को एकजुट करके उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित किया था.
रामदीन अपनी झोपड़ी के बाहर बैठा धूप सेंक रहा था. उसके चेहरे पर संतोष का भाव था. उसने भूख की बेबसी को करीब से देखा था, लेकिन उसने हार नहीं मानी थी. उसने अपने और अपने गाँव के लोगों के लिए एक बेहतर भविष्य बनाने के लिए संघर्ष किया था.
आज भी देश के कई हिस्सों में भूख और गरीबी की समस्या मौजूद है. लेकिन रामदीन की कहानी हमें यह सिखाती है कि अगर हम एकजुट होकर प्रयास करें, तो हम इस बेबसी को हरा सकते हैं और एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं जहाँ कोई भी भूखा न सोए.
यह उपन्यास भूख की बेबसी और उससे लड़ने के मानवीय संकल्प की एक कहानी है. यह हमें याद दिलाता है कि गरीबी सिर्फ एक आर्थिक समस्या नहीं है, बल्कि यह मानवीय गरिमा और न्याय का भी सवाल है.