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बेबसी… भूख की.

अध्याय 2: शहर की कठोरता

शहर गाँव से बिल्कुल अलग था। यहाँ भीड़ थी, शोर था, और दौलत और गरीबी का एक अजीब मिश्रण था. ऊँची इमारतें आसमान छू रही थीं, और सड़कों पर रंगीन कपड़े पहने लोग घूम रहे थे. लेकिन रामदीन को इस चमक-दमक में अपनी भूख और बेबसी ही दिखाई दे रही थी.

उसने कई दुकानों और कारखानों के चक्कर लगाए, काम की भीख माँगता रहा. लेकिन हर जगह उसे निराशा ही मिली. शहर के लोगों के पास गाँव के एक भूखे किसान के लिए कोई हमदर्दी नहीं थी. वे अपनी दुनिया में व्यस्त थे, और रामदीन उनकी भीड़ में एक गुमनाम चेहरा था.

पेट की आग अब असहनीय हो रही थी. उसके सिर में चक्कर आ रहे थे, और उसके पैर जवाब दे रहे थे. उसने एक जगह पर बैठकर सुस्ताने का फैसला किया. पास ही एक मिठाई की दुकान थी, जहाँ से स्वादिष्ट खुशबू आ रही थी. रामदीन ने अपनी आँखें बंद कर लीं, उस खुशबू को अपने अंदर भरने की कोशिश की, जैसे कि उससे उसकी भूख मिट जाएगी.

तभी उसकी नजर एक कूड़ेदान पर पड़ी. उसमें फेंके हुए जूठे पत्तलों का ढेर था. उसका मन घिन से भर गया, लेकिन भूख ने उसे मजबूर कर दिया. उसने धीरे से एक पत्तल उठाया, जिस पर थोड़ी सी बची हुई मिठाई लगी थी. उसने उसे धीरे-धीरे खाया, हर कौर उसके गले से मुश्किल से उतर रहा था.

उसी पल, उसे किसी के पैर की आहट सुनाई दी. उसने डरकर पत्तल छिपा लिया. एक अच्छी तरह से कपड़े पहने आदमी उसकी ओर देख रहा था, उसकी आँखों में घृणा थी.

“तुम यहाँ क्या कर रहे हो? भागो यहाँ से!” आदमी ने गुस्से से कहा.

रामदीन बिना कुछ कहे वहाँ से उठ खड़ा हुआ और भीड़ में गुम हो गया. शहर उसके लिए उम्मीद की जगह नहीं, बल्कि एक कठोर वास्तविकता का आईना बन गया था.

शेष भाग अगले अंक में…,

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