
रामदीन की आँखें सुबह की धुंधली रोशनी में खुलीं। उसकी झोपड़ी, जो मिट्टी और फूस से बनी थी, ठंड से काँप रही थी। बाहर, शहर के बाहरी इलाके में जीवन धीरे-धीरे करवट ले रहा था. पक्षियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी, लेकिन रामदीन के पेट में एक अलग ही चीख गूँज रही थी – भूख की चीख.
कल रात से उसने कुछ नहीं खाया था. उसका शरीर कमजोर पड़ गया था, और हर हरकत एक पहाड़ चढ़ने जैसा लग रहा था. उसकी पत्नी, सीता, बगल में लेटी थी, उसकी साँसें धीमी और उखड़ी हुई थीं. उनके दो छोटे बच्चे, आठ वर्षीय मोहन और छह वर्षीय सोहन, एक-दूसरे से चिपके हुए थे, उनकी आँखें बड़ी और सहमी हुई थीं. वे भी कल रात से भूखे थे.
रामदीन एक किसान था, लेकिन इस साल मानसून की बेरुखी ने उसकी छोटी सी जमीन को बंजर बना दिया था. फसलें सूख गईं, और जो थोड़ा बहुत अनाज बचा था, वह साहूकार के कर्ज़ में चला गया. अब उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था.
उसने धीरे से बिस्तर छोड़ा, उसके पैर लड़खड़ा रहे थे. सीता ने कमजोर आवाज में पूछा, “कहाँ जा रहे हो?”
“देखता हूँ, कहीं कुछ मिल जाए तो,” रामदीन ने जवाब दिया, उसकी आवाज में निराशा घुली हुई थी.
वह झोपड़ी से बाहर निकला. सुबह की ठंडी हवा उसके कमजोर शरीर से टकराई. गाँव के दूसरे घरों से भी धुएँ के हल्के बादल उठ रहे थे, लेकिन रामदीन जानता था कि कई घरों में चूल्हे नहीं जले होंगे. गरीबी और भूख ने पूरे गाँव को अपनी चपेट में ले लिया था.
वह गाँव के बाहर की ओर चल पड़ा, उम्मीद की एक धुंधली किरण उसके दिल में टिमटिमा रही थी. शायद शहर में उसे कोई काम मिल जाए, जिससे वह अपने परिवार के लिए कुछ रोटी ला सके.
शेष भाग अगले अंक में…,