
नई शुरुआत
स्थान: –
अस्पताल की छत, सुबह 5:17 बजे
पहली किरणों वाली भोर, कोयल की आवाज़
कागज पर उतरता उजाला
नलिन ने काँपते हाथों से एक कविता की कॉपी गायत्री की ओर बढ़ाई। कागज पर दवाओं के दाग थे, पर शब्द चमक रहे थे.
“खोया था जो सागर में,
मिल गया है किनारे में,
तुम्हारी यादों की नाव ने,
किया है पार इस पागलपन के मारे में.”
गायत्री ने देखा – कविता के किनारे पर एक छोटा सा चित्र था. दो हाथ जो एक दूसरे से उलझे हुए थे, मानो डूबते हुए बचाए जा रहे हों.
आँसुओं की व्याख्या
गायत्री (आवाज़ भर्राते हुए)-
“ये… ये तुमने कब लिखी?”
नलिन (घुटनों पर कागज सहलाते हुए)-
“कल रात… जब मुझे फिर वो आवाज़ें सुनाई दीं. पर इस बार, मैंने उन्हें कागज पर उतार दिया… बजाय कि…”
उसने अपनी बाँहों के निशानों को छुपाने की कोशिश की.
डॉक्टर का आश्चर्य…
डॉ. मल्होत्रा ने कविता को मेडिकल चार्ट में जोड़ा-
“मरीज ने पहली बार नकारात्मक विचारों को रचनात्मकता में बदला है. ECT का आखिरी सेशन रद्द करें.”
नर्स (फुसफुसाते हुए)-
“पर सर, ये तो चमत्कार है! ऐसा केस मैंने पहले कभी नहीं—”
डॉक्टर ने उसे चुप कराया और खिड़की से बाहर देखा – जहाँ नलिन और गायत्री सूरज की पहली किरणों में नहा रहे थे.
भविष्य की पहली पंक्ति
नलिन ने अचानक गायत्री से पूछा-
“क्या तुम मेरे साथ… एक कैफ़े खोलोगी? जहाँ… जहाँ लोग चाय के साथ अपनी कहानियाँ भी शेयर कर सकें?”
गायत्री ने उसके हाथों के निशानों को चूम लिया – ये उसका जवाब था.
कला थेरेपी: शब्दों ने वह किया जो दवाएँ नहीं कर पाईं
साझा सपना: एक ऐसी जगह जहाँ मानसिक पीड़ा को छुपाया नहीं जाता
अधूरा इलाज: निशान तो रहेंगे, पर वे अब दर्द नहीं, इतिहास बन चुके हैं.
शेष भाग अगले अंक में…,