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मन का टिस…

अध्याय 4: मुक्त पंछी

रवि और शीला अक्सर मिलते रहे. वे पुरानी यादों को साझा करते, अपने वर्तमान जीवन के बारे में बताते. धीरे-धीरे, उनके बीच एक नई तरह की समझ विकसित हुई. वह पहला प्यार, जो कभी अधूरा रह गया था, अब एक गहरी दोस्ती में बदल रहा था.

एक दिन, रवि ने शीला से कहा, “हम उस वक़्त बहुत नादान थे, शीला. ज़िंदगी को लेकर, रिश्तों को लेकर. शायद उस वक़्त अलग होना ही हमारी नियति थी.”

शीला ने सहमति में सिर हिलाया. “शायद, अगर हम साथ रह भी जाते, तो क्या वह भोलापन, वह कच्चापन हमेशा बना रहता? ज़िंदगी हमें बहुत कुछ सिखाती है, रवि.”

उस दिन, शीला को पहली बार महसूस हुआ कि मन की वह टीस, जो बरसों से उसके साथ थी, अब धीरे-धीरे शांत हो रही है. रवि के मिलने से उस दर्द को एक अभिव्यक्ति मिली थी. उसे यह एहसास हुआ कि उस पहले प्यार का अधूरापन उसकी ज़िंदगी का अंत नहीं था, बल्कि एक पड़ाव था.

उन्होंने अतीत को स्वीकार करना सीख लिया था. उस ‘काश’ की जगह अब एक संतोष का भाव था. वे उस समय के लिए शुक्रगुज़ार थे जो उन्होंने साथ बिताया था, और उस मोड़ के लिए भी जिसने उन्हें अलग किया, क्योंकि शायद उसी अलगाव ने उन्हें आज इस मुकाम पर पहुँचाया था.

एक सुबह, शीला बालकनी में खड़ी थी. सूरज की सुनहरी किरणें धरती पर फैल रही थीं. गुलमोहर के पेड़ पर फिर से चिड़िया चहचहा रही थी. पर आज, उस चहचहाहट में उसे उदासी नहीं, बल्कि जीवन का एक नया संगीत सुनाई दे रहा था.

उसने गहरी साँस ली. मन अब हल्का था, जैसे कोई पंछी बरसों के बाद पिंजरे से आज़ाद हुआ हो. वह टीस, जो कभी उसके हृदय का स्थायी भाव बन गई थी, अब धुंधली पड़ चुकी थी.

रवि अब भी उसकी ज़िंदगी का हिस्सा था, पर एक दोस्त के रूप में, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसके साथ उसने अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय साझा किया था. अब उनके बीच कोई अधूरापन नहीं था, कोई शिकायत नहीं थी. सिर्फ़ एक गहरी समझ थी, एक मौन स्वीकृति थी.

शीला ने आसमान की ओर देखा. बादल हल्के-हल्के तैर रहे थे. उसे लगा, जैसे उसके मन के सारे बोझ भी उन्हीं बादलों की तरह उड़ गए हों. मन का वह टीस… आखिरकार शांत हो गया था.

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