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मानसिक वेदना…

उम्मीद की एक किरण

अनिता के शब्द विकाश के भीतर कहीं गहरे उतर गए. उस अँधेरे कमरे में, उसकी उपस्थिति एक शांत रोशनी की तरह थी.  विकाश ने उसकी ओर देखा. अनिता की आँखों में चिंता और सहानुभूति थी.

“मुझे पता है कि तुम किस दौर से गुजर रहे हो,” अनिता ने धीरे से कहा. “मैंने भी कभी ऐसा महसूस किया है.”

विकाश हैरान था. अनिता हमेशा हंसमुख और मजबूत दिखाई देती थी. उसे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वह भी कभी ऐसी मानसिक पीड़ा से गुजरी है.

“तुम्हें… तुम्हें क्या हुआ था?” विकाश ने हिचकिचाते हुए पूछा.

अनीता ने एक गहरी साँस ली. “एक समय था जब मुझे लगता था कि मेरे आसपास सब कुछ धुंधला हो गया है. उठने का मन नहीं करता था, किसी से बात करने की इच्छा नहीं होती थी. ऐसा लगता था जैसे एक भारी बोझ हमेशा मेरे ऊपर रखा हो.”

विकाश को लगा जैसे वह अपने ही मन की बात सुन रहा हो. पहली बार उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह अकेला नहीं है.

“तुम… तुम इससे बाहर कैसे निकलीं?” उसने पूछा.

“यह आसान नहीं था,” अनीता ने कहा. “मैंने एक थेरेपिस्ट से बात की. उसने मुझे अपनी भावनाओं को समझने और उनसे निपटने के तरीके सिखाए. और सबसे महत्वपूर्ण, उसने मुझे यह महसूस कराया कि यह मेरी गलती नहीं है, और मदद माँगने में कोई शर्म नहीं है.”

थेरेपिस्ट… विकाश ने इस बारे में कभी गंभीरता से नहीं सोचा था. उसे लगता था कि यह उन लोगों के लिए है जो ‘सच में’ बीमार हैं. लेकिन अनीता की बातों ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया.

“क्या… क्या इससे सच में मदद मिलती है?” उसने पूछा.

“हाँ, विकाश, बहुत मदद मिलती है. यह ऐसा है जैसे कोई आपको उस अँधेरे कमरे से बाहर निकलने का रास्ता दिखा रहा हो जिसमें आप खो गए हैं.”

उस रात, अनिता काफी देर तक विकाश के साथ बैठी रही. उसने उससे उसकी भावनाओं के बारे में पूछा, बिना किसी जजमेंट के उसे सुना. विकाश ने धीरे-धीरे अपने अंदर दबी हुई बातों को बाहर निकालना शुरू किया. यह आसान नहीं था, लेकिन अनिता की शांत उपस्थिति ने उसे हिम्मत दी.

अगले कुछ दिनों तक अनिता विकाश से मिलती रही. वह उसे सुबह टहलने के लिए ले जाती, कभी-कभी साथ में चाय पीती, और बस उसके साथ बैठी रहती, बिना किसी दबाव के.

एक दिन अनिता ने विकाश से कहा, “मैंने तुम्हारे लिए एक थेरेपिस्ट का नंबर पता किया है. क्या तुम उनसे एक बार मिलकर देखना चाहोगे?”

विकाश थोड़ा हिचकिचाया. “मुझे नहीं पता, अनिता, मुझे डर लग रहा है.”

“मुझे पता है,” अनिता ने कहा. “लेकिन कभी-कभी हमें अपनी डर का सामना करना पड़ता है ताकि हम बेहतर महसूस कर सकें. मैं तुम्हारे साथ चलूँगी, अगर तुम चाहो तो.”

अनिता के इस प्रस्ताव ने विकाश को थोड़ी हिम्मत दी. उसे लगा कि शायद, सिर्फ शायद, इस अँधेरे से बाहर निकलने का कोई रास्ता हो सकता है. कुछ दिनों बाद, विकाश अनिता के साथ एक थेरेपिस्ट के ऑफिस में बैठा था. उसे घबराहट हो रही थी, लेकिन अनिता का शांत चेहरा उसे थोड़ा सुकून दे रहा था.

थेरेपिस्ट, डॉ. नैना, एक शांत और समझदार महिला थीं. उन्होंने विकाश को ध्यान से सुना, बिना किसी जल्दबाजी के. उन्होंने उससे उसकी भावनाओं के बारे में पूछा, उसके बचपन के बारे में, और उन चीजों के बारे में जो उसे परेशान करती थीं.

पहली बार विकाश को ऐसा लगा कि कोई उसे सच में सुन रहा है, बिना किसी राय या सलाह के.

उस पहली मुलाकात के बाद विकाश को थोड़ा हल्का महसूस हुआ. ऐसा नहीं था कि उसकी सारी परेशानियाँ तुरंत गायब हो गई थीं, लेकिन कम से कम उसे यह उम्मीद तो मिली कि शायद चीजें बेहतर हो सकती हैं.

क्या विकाश इस थेरेपी को जारी रखेगा? क्या वह धीरे-धीरे अपनी मानसिक वेदना से उबर पाएगा?

शेष भाग अगले अंक में…,

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