
विकाश की सुबह हमेशा धुंधली होती थी, मानो रात की बची हुई उदासी अभी भी हवा में तैर रही हो. सूरज की पहली किरणें उसके कमरे में झाँकतीं, लेकिन उसके मन के भीतर का अँधेरा टस से मस नहीं होता था. वह बिस्तर पर लेटा रहता, छत पर घूमती हुई पंखे की परछाइयों को देखता रहता. हर करवट एक भारी बोझ उठाने जैसा लगता था.
आज भी कुछ अलग नहीं था. बाहर पक्षियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी, एक नई सुबह का वादा करती हुई, लेकिन विकाश के लिए हर सुबह एक अनचाहा मेहमान की तरह आती थी, जो पिछली रात की घुटन को फिर से याद दिलाती थी.
उसने धीरे-धीरे उठकर खिड़की खोली. नीचे सड़क पर जीवन अपनी सामान्य गति से चल रहा था. बच्चे स्कूल जा रहे थे, फेरीवाले अपनी आवाजें लगा रहे थे. यह सब कुछ इतना सामान्य और सहज लग रहा था, जबकि उसके भीतर सब कुछ बिखरा हुआ और अशांत था.
उसके मन में एक अनकही उदासी का सागर लहराता रहता था. कोई विशेष कारण नहीं था, कम से कम ऐसा कोई कारण जिसे वह शब्दों में बयाँ कर सके. बस एक खालीपन था, एक भारीपन था जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था.
चाय बनाते समय भी उसके हाथ काँप रहे थे. गर्म प्याली को पकड़कर उसे थोड़ी राहत मिली, लेकिन वह क्षणिक थी. चाय का पहला घूँट गले से नीचे उतरते ही वह खालीपन फिर से लौट आया.
वह जानता था कि उसे काम पर जाना है. उसे अपनी जिम्मेदारियाँ निभानी हैं. लेकिन हर कदम एक पहाड़ चढ़ने जैसा लगता था. उसके सहकर्मी उसे हंसमुख और मिलनसार मानते थे, लेकिन उनके पीछे वह एक ऐसा बोझ छिपाए रखता था जिसका उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था.
आज उसे एक महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेना था. उसे अपनी राय रखनी थी, निर्णय लेने में योगदान देना था. यह सोचकर ही उसके पेट में एक अजीब सी मरोड़ उठी. उसे डर लग रहा था, असफलता का नहीं, बल्कि खुद के ही भीतर के शोर का, जो उसे सही से सोचने और बोलने नहीं देगा.
उसने आईने में अपना चेहरा देखा थकी हुई आँखें, मुरझाया हुआ चेहरा. क्या कोई यह देखकर बता सकता है कि इस चेहरे के पीछे कितना तूफान छिपा है? शायद नहीं. लोग बाहरी दुनिया को देखते हैं, भीतर की गहराइयों को नहीं.
तैयार होकर वह घर से निकला. बाहर की धूप थोड़ी राहत देने वाली थी, लेकिन उसके मन की छाया अभी भी उसके साथ-साथ चल रही थी. सड़क पर चलते हुए उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी और की जिंदगी जी रहा हो, एक ऐसी भूमिका निभा रहा हो जो उसकी अपनी नहीं है.
उसने एक गहरी साँस ली, एक झूठी उम्मीद के साथ कि शायद आज का दिन अलग होगा. लेकिन उसके भीतर की आवाज फुसफुसाई, “यह कभी अलग नहीं होगा.”
शेष भाग अगले अंक में…,