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जेठ की अल्हड़ पवन…

चुनरिया का सफर

एक शाम, जब सूरज हल्का झुकने लगा था, राधा खेतों में काम कर रही थी. उसके कंधे पर पड़ी गुलाबी चुनरिया बार-बार उड़ने को मचल रही थी. वह उसे बार-बार सँभालती, लेकिन जेठ की पवन की नट खटता कम न होती.

अचानक, एक तेज़ झोंका आया और चुनरिया उसके कंधे से उड़कर खेतों में लहलहाती फसल के ऊपर तैरने लगी. राधा चौंकी, लेकिन फिर मुस्कुरा उठी—”लगता है मेरी चुनरिया को भी इस हवा से दोस्ती करनी है.”

चुनरिया हवा में लहराती हुई आम के बाग़ की तरफ बढ़ी और आखिरकार एक ऊँचे पेड़ की शाखा पर जाकर अटक गई. गाँव के छोटे बच्चे हँसते हुए दौड़ पड़े. “हम इसे उतारेंगे!” वे चिल्लाए, और छोटे-छोटे हाथों से उसे पकड़ने की कोशिश करने लगे.

हवा की शरारत और गाँव की हँसी, इसी बीच, गाँव की दूसरी महिलाएँ भी हँस पड़ीं. उनके कपड़ों की झालरें भी हवा में फड़फड़ा रही थीं, मानो जेठ की पवन हर किसी से खेलना चाह रही हो.

बच्चों ने मिलकर चुनरिया को पेड़ से उतार लिया और राधा के हाथ में दे दी. लेकिन तब तक वह चुनरिया जेठ की हवा की छुअन से एक नई कहानियों से भर चुकी थी.

राधा ने अपनी चुनरिया को देखकर कहा, “अब यह सिर्फ़ मेरा कपड़ा नहीं है, यह जेठ की पवन की कहानी भी है.”

गाँव में ऐसी छोटी-छोटी घटनाएँ ही जीवन की मिठास बढ़ा देती थीं. खेतों की मिट्टी, उड़ती चुनरिया और जेठ की अल्हड़ पवन—तीनों मिलकर हर किसी के चेहरे पर मुस्कान लाने का जादू कर रहे थे.

शेष भाग अगले अंक में…,

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