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जेठ की अल्हड़ पवन…

खेतों में उड़ती चुनरिया

जेठ की तेज़ धूप में खेतों में काम करने वाली औरतों की हंसी लहरों की तरह गूँजती थी. उनकी मेहनत और उमंग इस तपती धरती को भी हरा-भरा बनाए रखते. उनके सिर पर बंधे घूँघट और कंधों पर डाली चुनरिया इस मौसम की चंचल हवा से लगातार अठखेलियाँ करती.

जब दोपहर का समय होता और जेठ की पवन खेतों पर सरसराती, तो लाल, पीली और हरी चुनरियाँ उड़ने लगतीं. मानो इन कपड़ों ने भी आज़ादी की भाषा सीख ली हो. एक दिन, जब राधा खेतों में काम कर रही थी, उसकी गुलाबी चुनरिया अचानक हवा के झोंके में उड़ गई. वह घबराकर उसे पकड़ने के लिए दौड़ी, लेकिन हवा इतनी तेज़ थी कि चुनरिया उसके हाथ से फिसलती चली गई.

चुनरिया उड़ती-उड़ती आम के पेड़ की ऊँची शाखा पर जाकर अटक गई. राधा ने हँसते हुए कहा, “लगता है मेरी चुनरिया को भी इस जेठ की हवा से प्यार हो गया है!” गाँव के छोटे बच्चे दौड़कर उसे उतारने लगे, और उनकी हँसी से पूरा खेत गूँज उठा.

इस हवा में एक तरह की नटखट चंचलता थी, जो हर चीज़ को जीवन से भर देती थी. खेतों में काम करने वाले लोग इसे महसूस करते थे—उनकी मेहनत में भी यह हवा साथ देती थी, और उनकी हँसी में भी यह शामिल रहती थी.

गर्मी के इस तपते मौसम में जेठ की पवन का खेल निराला था. वह कभी हल्के झोंके से गालों को सहलाती, तो कभी तेज़ रफ्तार में उड़ती चुनरियों को आसमान की ओर ले जाती. गाँव के खेतों में काम करती महिलाओं के लिए यह हवा मानो साथी थी—थोड़ी चंचल, थोड़ी शरारती.

शेष भाग अगले अंक में…,

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