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जेठ की अल्हड़ पवन…

पीपल के नीचे की बैठक

जेठ की अल्हड़ पवन, जो तपते सूरज की गर्मी में भी अपनी चंचलता और स्वच्छंदता बनाए रखती है, अपने आप में कई कहानियों को समेटे हुए है. यह हवा, जो कभी हल्की गुदगुदी करती है और कभी तेज़ झकोरो में उड़ती है, किसी पुरानी याद की तरह मन को स्पंदित कर देती है.

गाँव के बीचों-बीच वह पुराना पीपल का पेड़, जिसके विशाल तने पर कितनी ही कहानियों की छाप थी. दादा जी कहते थे कि यह पेड़ उनके बचपन में भी उतना ही घना था, जितना आज है। इसकी छाया में दोपहर की तपिश मानो घुल जाती थी, और वहाँ बैठने वाले हर व्यक्ति को सुकून की छत मिलती थी.

गर्मी के दिनों में जब जेठ की पवन सरसराकर चलती थी, तो पीपल के पत्ते उसकी हरकतों पर खिलखिलाने लगते. हवा के साथ बजते इन पत्तों की सरगम मानो प्रकृति का संगीत थी. गाँव के बुजुर्ग वहीं बैठकर बीते दिनों की बातें करते, तो छोटे बच्चे उनकी कहानियों में खो जाते.

एक दिन, उस बैठक में गाँव के सबसे वृद्ध बुजुर्ग बैठे थे—रामू काका, जो गाँव के इतिहास का चलता-फिरता खजाना थे. उन्होंने बताया कि इसी पीपल के नीचे कभी उनके पिता की बैठक लगती थी, जहाँ गाँव के सभी लोग जुटते थे. कोई खेती-बाड़ी की बात करता, कोई पुरानी मान्यताओं पर चर्चा करता, तो कोई बस हवा के झोंकों में अपनी थकान मिटाने आता.

तभी, एक तेज़ झोंका आया और पेड़ की सबसे ऊँची शाखा से कुछ सूखे पत्ते टूटकर नीचे गिरे. रामू काका ने मुस्कुराकर कहा, “देखो, यह हवा है, जो हमारी स्मृतियों को भी यूँ ही उड़ाकर कहीं दूर ले जाती है, लेकिन कुछ बातें—जैसे इस पीपल की छाया—हमेशा हमारे साथ रहती हैं.”

उस दिन, पीपल की बैठक में हर किसी ने उस क्षण को महसूस किया—जेठ की अल्हड़ पवन, जो अपने साथ अनगिनत यादें लेकर आती है, और हर उस व्यक्ति को जोड़ती है जो उसकी छाँव में बैठता है.

शेष भाग अगले अंक में…,

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