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क्या सृष्टि का आधार परिवर्तन है?

सनातन धर्म के अनुसार, परिवर्तन ही सृष्टि का आधार है. यह परिवर्तन एक नियोजित चक्र के रूप में होता है, जिसे ब्रह्मांडीय सिद्धांतों, पुराणों और वेदों में विस्तार से समझाया गया है.सनातन धर्म के अनुसार, सृष्टि सृजन , पालन और संहार के निरंतर चक्र चलता रहता है. यह तीन कार्य मुख्य रूप से त्रिमूर्ति द्वारा संचालित होते हैं. नए संसार का सृजन भगवान ब्रह्मा करते हैं वहीं, संसार का संतुलन भगवान विष्णु बनाते हैं और संहार भगवान शिव करते हैं.

सनातन परंपरा में कहा गया है कि परिवर्तन संसार का शाश्वत नियम है. इसे विभिन्न सिद्धांतों और तत्वों के माध्यम से समझाया गया है:- संसार पंचमहाभूत (पाँच तत्व) से बना है – पृथ्वी (Earth – Solid), जल (Water – Liquid), अग्नि (Fire – Energy), वायु (Air – Gas), आकाश (Space – Ether). इन तत्वों का निरंतर रूपांतरण सृष्टि में बदलाव का कारण बनता है.

सनातन धर्म के अनुसार, कालचक्र चार युगों में विभाजित है, जो सृष्टि में क्रमिक परिवर्तन का प्रतीक हैं: –

     युग                   अवधि (वर्ष में)                   विशेषता
   सतयुग                                         17,28,000                         सत्य और धर्म का युग, 100% नैतिकता.
    त्रेतायुग                                        12,96,000                          धर्म कम होकर 75% रह जाता है.
   द्वापरयुग              8,64,000 धर्म 50% शेष रहता है.
   कलियुग              4,32,000 अधर्म बढ़ता है, सत्य केवल 25% बचा रहता है.

  • कलियुग के अंत में महाप्रलय होगी, और फिर नया सतयुग शुरू होगा.

प्राचीन ग्रंथ वेद और उपनिषदों के अनुसार सृष्टि का आधार परिवर्तन होता है. ऋग्वेद (10.129) के नासदीय सूक्त में कहा गया है कि सृष्टि एक अनंत शून्य (अव्यक्त) से उत्पन्न हुई और निरंतर परिवर्तनशील है. ब्रह्म ही परिवर्तन का मूल है. अद्वैत वेदांत कहता है कि ब्रह्मांड ब्रह्म (परम तत्व) से उत्पन्न हुआ है और यह माया के कारण बदलता रहता है. वहीं, संसार एक “मिथ्या” है, लेकिन इसका भी परिवर्तन अनिवार्य है.

श्रीमद्भगवद्गीता (2.14) में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं: –

“मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।

आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥”

अर्थात – सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी आदि द्वंद्व जीवन में आते-जाते रहते हैं. ये अस्थायी हैं, इसलिए इनका धैर्यपूर्वक सामना करना चाहिए. इससे स्पष्ट होता है कि परिवर्तन सृष्टि का अनिवार्य नियम है.

भगवान शिव का तांडव नृत्य सृष्टि, स्थिति और संहार का प्रतीक है. जब संसार में असंतुलन बढ़ता है, तो शिव का रुद्र रूप सृष्टि का संहार कर देता है. इसके बाद नया सृजन होता है, जिससे संतुलन बना रहता है. सनातन धर्म में कर्म सिद्धांत कहता है कि जीव के कर्मों के आधार पर उसका पुनर्जन्म होता है. यह भी सृष्टि के निरंतर परिवर्तन और विकास का एक हिस्सा है.

सनातन धर्म के अनुसार, परिवर्तन ही सृष्टि का मूल आधार है.यह परिवर्तन त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) के सिद्धांत, पंचमहाभूत, युग चक्र, और कर्म सिद्धांत के माध्यम से होता है.भगवद्गीता, वेदों और उपनिषदों में भी स्पष्ट बताया गया है कि संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है, केवल परिवर्तन ही सत्य है. “संसार में जो कुछ भी है, वह बदलता रहता है. परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है.

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से: –

सृष्टि (ब्रह्मांड) का आधार निरंतर परिवर्तनशील है. बिग बैंग सिद्धांत के अनुसार, ब्रह्मांड लगातार विस्तार कर रहा है और इसमें समय के साथ परिवर्तन हो रहा है. पृथ्वी पर जीवों का विकास, जलवायु परिवर्तन, भूगर्भीय हलचल (भूकंप, ज्वालामुखी) सभी परिवर्तन के उदाहरण हैं.

आइंस्टीन के समीकरण E=mc के अनुसार, ऊर्जा और द्रव्य एक-दूसरे में परिवर्तित हो सकते हैं.

यूनानी दार्शनिक हेरेकलिटस ने कहा था, “परिवर्तन ही संसार का नियम है.भारतीय दर्शन में “विवर्तनवाद” और “परिणामवाद” के अनुसार संसार लगातार बदलता रहता है. सृष्टि का आधार ही परिवर्तन है. हर स्तर पर—भौतिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक और सामाजिक—परिवर्तन अनिवार्य है. परिवर्तन के बिना जीवन और ब्रह्मांड स्थिर नहीं रह सकते.

वाल व्यास सुमन जी महाराज,

महात्मा भवन, श्रीराम-जानकी मंदिर,

राम कोट, अयोध्या. 

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