
क्या वर्तमान बिहार में व्यवस्था परिवर्तन संभव है?…
बिहार का इतिहास गवाह है कि यह धरती व्यवस्था परिवर्तन की ललक को कभी भुला नहीं पाई. सम्पूर्ण क्रांति से लेकर सामाजिक न्याय की लहर तक, इस राज्य ने बड़े सपने देखे और बड़े उथल-पुथल झेले. लेकिन आज, 21वीं सदी के तीसरे दशक में, जब बिहार विकास, रोजगार और पहचान के नए संकटों से जूझ रहा है, एक बार फिर वही मौलिक सवाल उठ खड़ा हुआ है: क्या वर्तमान बिहार में कोई मौलिक व्यवस्था परिवर्तन संभव है?
इस प्रश्न का उत्तर सीधा ‘हाँ’ या ‘नहीं’ नहीं है. यह एक जटिल समीकरण है, जिसमें बदलाव के शक्तिशाली संकेत और उन्हें रोकने वाली गहरी जड़ें एक साथ मौजूद हैं. आइए, इसकी संभावनाओं और चुनौतियों को विस्तार से समझने की कोशिस करते हैं.
सबसे पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आखिर इस ‘व्यवस्था परिवर्तन’ का मतलब क्या है। यह केवल सरकार बदलने का नाम नहीं है। यह एक मौलिक बदलाव है: – जाति-आधारित पहचान की जगह विकास और सुशासन के मुद्दों का केंद्र में आना, पलायन और कृषि-निर्भरता की जगर् औद्योगिकरण, नवाचार और रोजगार-केंद्रित मॉडल का उभरना, जातिगत भेदभाव और पिछड़ेपन की जगह समतामूलक, शिक्षित और आधुनिक समाज का निर्माण वहीं, भ्रष्टाचार और अकुशलता की जगह पारदर्शिता, जवाबदेही और नागरिक-केंद्रित शासन का स्थापित होना.
बिहार की एक बहुत बड़ी आबादी युवा है. यह युवा पीढ़ी पुराने जमाने की राजनीतिक विचारधाराओं से कहीं अधिक रोजगार, शिक्षा और बेहतर जीवन स्तर की माँग कर रही है. सोशल मीडिया और डिजिटल जागरूकता ने इनकी आवाज को नई ताकत दी है. साक्षरता दर में हुई उल्लेखनीय वृद्धि (वर्ष 2011: 61.8% से वर्ष 2023 अनुमान: 70%+) एक नई सोच वाले मतदाता वर्ग का निर्माण कर रही है. शिक्षित युवा और महिलाएं अब राजनीतिक फैसलों पर सवाल उठा रहे हैं. पिछले दो दशकों में हुई प्रगति के बावजूद, विकास के लाभ समान रूप से नहीं पहुँचे हैं. इससे एक नया असंतोष पन्न रहा है, जो सिर्फ सत्ताधारी दल के खिलाफ नहीं, बल्कि पूरी व्यवस्था के प्रश्न पर केन्द्रित है.
महिला सशक्तिकरण की दिशा में हुए प्रयासों (जैसे – पंचायतों में आरक्षण, साइकिल योजना) ने महिलाओं को एक सक्रिय और जागरूक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभारा है. यह वर्ग अक्सर मौलिक मुद्दों को प्राथमिकता देता है. अब चुनावी राजनीति में केवल जाति समीकरण या सामाजिक न्याय का नारा ही नहीं, बल्कि बेरोजगारी, शिक्षा की गुणवत्ता, स्वास्थ्य सेवाएँ और बुनियादी ढाँचे जैसे मुद्दे भी प्रमुखता से उठने लगे हैं.। यह एक सकारात्मक बदलाव है.
बिहार की राजनीति और सामाजिक व्यवस्था की रीढ़ जाति ही है. कोई भी बड़ा राजनीतिक दल या नेता जातीय समीकरणों से ऊपर उठकर सोचने का जोखिम नहीं उठा पाता. मतदान प्रवृत्तियाँ अब भी काफी हद तक जातिगत निष्ठा से प्रभावित हैं. राज्य का सबसे मेधावी और उद्यमी युवा वर्ग रोजगार की तलाश में बिहार छोड़ रहा है. इस ‘दिमागी दिवालियेपन’ (ब्रेन ड्रेन) से राज्य को एक सक्रिय, जागरूक और परिवर्तन की माँग करने वाला वर्ग खो रहा है.
स्कूलों और अस्पतालों की दयनीय स्थिति एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रही है जो बुनियादी दक्षताओं से भी वंचित हो सकती है. बिना गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य के, एक आलोचनात्मक और सक्षम नागरिक समाज का निर्माण असंभव है. दशकों से चली आ रही व्यवस्था को बदलने के लिए जिस स्तर की राजनीतिक इच्छाशक्ति और साहस की जरूरत है, वह अक्सर दिखाई नहीं देती. त्वरित लाभ के लिए जातिगत कल्पनाएँ और सत्ता के गठजोड़, दीर्घकालिक सुधारों पर भारी पड़ते हैं. न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति और प्रशासनिक ढाँचे में व्याप्त भ्रष्टाचार किसी भी मौलिक बदलाव को अवरुद्ध करने की क्षमता रखते हैं.
तो, क्या वर्तमान बिहार में व्यवस्था परिवर्तन संभव है?
संभव तो है, लेकिन यह एक जादुई रातोंरात बदलाव नहीं, बल्कि एक लंबी, कठिन और सामूहिक लड़ाई होगी. चूकिं, बिहार अभी एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है. पुरानी व्यवस्था की जड़ें अभी भी गहरी और मजबूत हैं, लेकिन नए बदलाव के बीज अंकुरित होने शुरू हो गए हैं. युवाओं की आकांक्षाएँ, महिलाओं की बढ़ती भागीदारी और डिजिटल जागरूकता एक ‘साइलेंट रिवोल्यूशन’ को जन्म दे रही हैं.
युवा मतदाता केवल वोट बैंक नहीं, बल्कि एक जागरूक नीति-निर्माता के रूप में उभरेंगे. राजनीतिक दल अपनी छोटी सियासी चालों से ऊपर उठकर राज्य के दीर्घकालिक हित में सोचने को मजबूर होंगे.सिविल सोसाइटी, मीडिया और बुद्धिजीवी एक सशक्त भूमिका निभाते हुए जनता को जागरूक और एकजुट करेंगे.
बिहार में व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता पटना की सड़कों से नहीं, बल्कि राज्य के हर गाँव-शहर के युवाओं के दिल-दिमाग से होकर गुजरेगा. यह एक ऐसी क्रांति होगी, जो नारों से नहीं, बल्कि शिक्षा, रोजगार और न्याय की माँग करते लाखों लोगों की दृढ़ इच्छाशक्ति से जन्मेगी. सम्भावना की किरण दिख रही है, लेकिन सूरज का निकलना अभी बाकी है.
संजय कुमार सिंह
(पोलिटिकल, सहायक एडिटर) ,
ज्ञानसागरटाइम्स.