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क्या सेवा ही परम सुख है?

नदी के किनारे, एक छोटा सा गाँव बसा हुआ था. इस गाँव में एक वृद्ध साधु रहते थे, जिनका नाम रामदास था. रामदास जी का कोई अपना परिवार नहीं था और उनकी कुटिया गाँव के बाहरी छोर पर बनी हुई थी. उनके पास कुछ साधारण वस्त्र और एक कमंडल था, जिसमें वे गंगाजल भरकर पीते थे.

रामदास जी का दिन नदी स्नान से शुरू होता था. उसके बाद वे अपनी कुटिया के पास एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान करते थे. गाँव के लोग उन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे, लेकिन वे अपनी दुनिया में ही मग्न रहते थे. वे किसी से ज्यादा बात नहीं करते थे और न ही किसी प्रकार की सांसारिक इच्छा रखते थे.

एक वर्ष, गाँव में भयंकर बाढ़ आ गई. नदी का जलस्तर तेजी से बढ़ने लगा और देखते ही देखते गाँव के कई घर पानी में डूब गए. लोग अपनी जान बचाने के लिए ऊंचे स्थानों की ओर भागने लगे। चारों ओर चीख-पुकार और निराशा का माहौल था. रामदास जी अपनी कुटिया में बैठे सब कुछ देख रहे थे. पहले तो वे शांत रहे, लेकिन जब उन्होंने बच्चों और बूढ़ों को बेघर और असहाय देखा, तो उनका हृदय करुणा से भर गया. उन्होंने अपना कमंडल और थोड़ा सा सूखा भोजन उठाया और बाढ़ पीड़ितों की ओर चल पड़े.

उन्होंने गाँव के ऊंचे स्थानों पर शरण लिए हुए लोगों के बीच जाकर उनकी सहायता करनी शुरू कर दी. वे छोटे बच्चों को गोद में उठाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाते, बूढ़ों को सहारा देकर चलने में मदद करते और भूखे लोगों को अपना थोड़ा सा भोजन बाँट देते. उन्होंने दिन-रात एक कर दिया। बिना थके, बिना रुके वे लोगों की सेवा में लगे रहे.

गाँव के युवा भी धीरे-धीरे रामदास जी से प्रेरित होकर बचाव और राहत कार्यों में जुट गए. उन्होंने मिलकर अस्थायी आश्रय बनाए, भोजन और पानी की व्यवस्था की और बीमार लोगों की देखभाल की. रामदास जी सबसे आगे रहकर उनका मार्गदर्शन करते रहे. उनकी शांत और निस्वार्थ सेवा ने लोगों के दिलों में उम्मीद की किरण जगाई. जब बाढ़ का पानी उतरा और स्थिति सामान्य हुई, तो गाँव के लोग रामदास जी के पास कृतज्ञता व्यक्त करने आए. उन्होंने कहा कि अगर रामदास जी ने आगे बढ़कर उनकी मदद न की होती, तो शायद बहुतों की जान चली जाती. रामदास जी ने शांत भाव से कहा, “यह तो मेरा धर्म था. जब कोई संकट में हो, तो उसकी सहायता करना ही मनुष्य का कर्तव्य है.”

बाढ़ के बाद गाँव के लोगों के मन में रामदास जी के प्रति सम्मान और भी बढ़ गया. अब वे उन्हें सिर्फ एक साधु के रूप में नहीं, बल्कि एक सच्चे सेवक और मार्गदर्शक के रूप में देखते थे. एक दिन, गाँव का एक युवक रामदास जी के पास आया और पूछा, “बाबा, आपने इतनी निस्वार्थ सेवा की. क्या आपको इससे कोई विशेष सुख या आनंद मिला?” रामदास जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, जब मैं किसी भूखे बच्चे को भोजन देता था, या किसी डरे हुए बूढ़े को सहारा देता था, तो उनके चेहरे पर जो संतोष और कृतज्ञता का भाव दिखता था, वही मेरा सबसे बड़ा सुख था. उस क्षण, मुझे ऐसा लगता था जैसे मेरा जीवन सार्थक हो गया हो. अपना दुख भूलकर दूसरों के दुख में शामिल होने और उसे कम करने का जो आनंद है, वह किसी भी सांसारिक सुख से कहीं बढ़कर है.”

उस युवक को रामदास जी की बातों से गहरा अनुभव हुआ. उसने समझा कि सच्ची खुशी अपने लिए जीने में नहीं, बल्कि दूसरों के लिए जीने और उनकी सेवा करने में है. इस कहानी से यही संदेश मिलता है कि जब हम निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा करते हैं, तो हमें एक ऐसा आंतरिक सुख और संतोष प्राप्त होता है, जो किसी भी भौतिक वस्तु या व्यक्तिगत उपलब्धि से कहीं अधिक गहरा और स्थायी होता है. सेवा हमारे हृदय को खोलती है, हमें दूसरों से जोड़ती है और हमें जीवन का सही अर्थ समझाती है. इसलिए, यह कहना सत्य है कि सेवा ही परम सुख है.

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