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क्या ब्राह्मण ! जाति है या कर्म…

ब्राह्मण शब्द भारतीय समाज में एक जटिल और बहुआयामी अवधारणा है. इसे अक्सर जाति के रूप में समझा जाता है, जो जन्म के आधार पर निर्धारित होती है. हालांकि, प्राचीन भारतीय ग्रंथों और ऐतिहासिक संदर्भों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण की पहचान केवल जन्म पर आधारित नहीं थी, बल्कि कर्म (कार्य, कर्तव्य) और गुणों का भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान था.

आधुनिक समय में और ऐतिहासिक रूप से भी, ब्राह्मण को हिंदू वर्ण व्यवस्था के शीर्ष पर स्थित एक जाति के रूप में व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है/ यह मान्यता वेदों, उपनिषदों और स्मृतियों जैसे प्राचीन ग्रंथों पर आधारित है, जिनमें समाज को चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – में विभाजित किया गया है/ इस पारंपरिक दृष्टिकोण के अनुसार: – ब्राह्मण वह है जो ब्राह्मण माता-पिता के घर में पैदा हुआ है. यह पहचान वंशानुगत होती है और जन्म से ही व्यक्ति को ब्राह्मण वर्ण का सदस्य बना देती है. ब्राह्मणों के पारंपरिक कर्तव्य अध्यापन, यज्ञ करना, दान देना और लेना, तथा धार्मिक और बौद्धिक कार्यों का निर्वहन करना माना जाता है. वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों को धार्मिक ज्ञान और अनुष्ठानों के संचालन के कारण स्वाभाविक रूप से उच्च स्थान प्राप्त है. इस दृष्टिकोण के समर्थक वर्ण व्यवस्था को एक दैवीय या प्राकृतिक व्यवस्था मानते हैं, जिसमें प्रत्येक वर्ण का समाज में एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण कार्य है.

हालांकि, प्राचीन भारतीय ग्रंथों और इतिहास का गहराई से अध्ययन करने पर एक दूसरा दृष्टिकोण भी सामने आता है, जो ब्राह्मण की पहचान को केवल जन्म पर आधारित न मानकर कर्म और गुणों पर अधिक महत्व देता है. इस दृष्टिकोण के अनुसार: – ब्राह्मण वह है जो विशिष्ट गुणों (जैसे सत्य, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य) को धारण करता है और ब्राह्मणोचित कर्मों (जैसे अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ, दान) का पालन करता है, भले ही उसका जन्म किसी भी कुल में हुआ हो.  प्राचीन ग्रंथों और इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहां गैर-ब्राह्मणों ने अपने गुणों और कर्मों के आधार पर ब्राह्मणों जैसा सम्मान और स्थान प्राप्त किया, और ब्राह्मणों ने अपने कर्तव्यों से विमुख होकर निम्न स्थिति प्राप्त की.

ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख जरूर है, लेकिन प्रारंभिक वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था इतनी कठोर नहीं थी जितनी बाद में हुई. उपनिषदों में ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार पर अधिक बल दिया गया है, जो किसी भी वर्ण के व्यक्ति के लिए संभव था. महाभारत में विदुर का जन्म एक दासी से हुआ था, लेकिन वे अपनी बुद्धि और ज्ञान के कारण उच्च सम्मान प्राप्त करते हैं. रामायण में वाल्मीकि, जो पहले एक डाकू थे, तपस्या और ज्ञान के बल पर महान ऋषि बने. गीता में भगवान कृष्ण कर्म के सिद्धांत पर जोर देते हैं और कहते हैं कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करता है. यह वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में भी देखा जा सकता है, जहां व्यक्ति के कर्म उसकी सामाजिक स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं.

इस दृष्टिकोण के समर्थक मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था का मूल उद्देश्य समाज में श्रम का विभाजन और विशिष्ट गुणों का विकास था, न कि जन्म के आधार पर कठोर सामाजिक स्तरीकरण. समय के साथ, वर्ण व्यवस्था अधिक कठोर होती गई और जन्म आधारित पहचान प्रमुख हो गई. इसके कई कारण थे. जैसे –

वंशानुगत व्यवसाय: व्यवसायों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही परिवार में बने रहना. सामाजिक नियम और रीति-रिवाज: -विवाह और सामाजिक अंतः क्रियाओं पर कठोर नियम लागू होना.

राजनीतिक और आर्थिक कारण: शासक वर्गों और प्रभावशाली समूहों द्वारा अपनी शक्ति और विशेषाधिकारों को बनाए रखने के लिए वर्ण व्यवस्था का उपयोग करना.

स्मृति ग्रंथों का प्रभाव: – मनु स्मृति जैसे ग्रंथों ने वर्ण व्यवस्था को और अधिक कठोर और अपरिवर्तनीय बना दिया. इन कारणों से, ब्राह्मण की पहचान मुख्य रूप से जन्म के आधार पर निर्धारित होने लगी और कर्म तथा गुणों का महत्व गौण हो गया.

आधुनिक भारत में, जाति एक जटिल सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है. कानूनी रूप से जाति के आधार पर भेदभाव को समाप्त कर दिया गया है, लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर पर इसके प्रभाव आज भी देखे जा सकते हैं. ब्राह्मण समुदाय को आज भी पारंपरिक रूप से उच्च जाति के रूप में माना जाता है, लेकिन शिक्षा, शहरीकरण और सामाजिक आंदोलनों के कारण जाति की पहचान और भूमिका में बदलाव आ रहा है.

आज कई लोग ब्राह्मण की पहचान को केवल जन्म पर आधारित मानने का विरोध करते हैं और कर्म, ज्ञान और सामाजिक योगदान को अधिक महत्व देने की बात करते हैं. उनका मानना है कि किसी भी व्यक्ति को उसके जन्म के आधार पर नहीं, बल्कि उसके गुणों और कर्मों के आधार पर सम्मान मिलना चाहिए. आधुनिक संदर्भ में, ब्राह्मण की पहचान को लेकर बहस जारी है. एक तरफ पारंपरिक दृष्टिकोण है जो इसे जन्म आधारित जाति मानता है, वहीं दूसरी तरफ कर्म और गुणों को महत्व देने वाला दृष्टिकोण है. यह समझना महत्वपूर्ण है कि ब्राह्मण की अवधारणा ऐतिहासिक रूप से विकसित हुई है और इसके कई पहलू हैं. अंततः, किसी व्यक्ति की पहचान केवल उसके जन्म से नहीं, बल्कि उसके कर्मों, गुणों और समाज में उसके योगदान से निर्धारित होनी चाहिए.

संजय कुमार सिंह,

संस्थापक, ब्रह्म बाबा सेवा एवं शोध संस्थान निरोग धाम

अलावलपुर पटना.

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