
अबुल फ़ज़ल
अबुल फ़ज़ल मुग़ल सम्राट अकबर के दरबार के प्रमुख मंत्री, विद्वान और लेखक थे. वे अकबर के करीबी मित्र और सलाहकार भी थे. अबुल फ़ज़ल अपने अद्वितीय साहित्यिक और प्रशासनिक योगदान के लिए जाने जाते हैं.
अबुल फ़ज़ल का जन्म 14 जनवरी 1551 ई. को हुआ था. उसके पिता का नाम अबुल फ़ज़ल शेख़ मुबारक़ नागौरी था. अबुल फ़ज़ल का पूरा नाम अबुल फ़ज़ल इब्न मुबारक था. अबुल फ़ज़ल द्वारा लिखी गई एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कृति है आइने अकबरी, जिसमें अकबर के शासनकाल की संरचना, प्रशासन, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का विस्तृत विवरण है. इसे मुग़ल साम्राज्य का दर्पण कहा जाता है. अकबर के शासनकाल का एक आधिकारिक इतिहास है. इस ग्रंथ में अकबर की जीवनी, उसके शासन के प्रारंभिक दिनों और विस्तार का वर्णन किया गया है.
अबुल फ़ज़ल अकबर के धार्मिक दर्शन “दीन-ए-इलाही” के प्रचारक और समर्थक थे. यह धर्म विभिन्न धार्मिक परंपराओं के समन्वय पर आधारित था. अबुल फ़ज़ल ने अकबर के प्रशासनिक सुधारों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वे अकबर के नवरत्नों में से एक थे और उन्होंने राज्य के राजस्व और सैन्य संगठन में सुधार किया.अबुल फ़ज़ल अपनी फारसी लेखन शैली के लिए विख्यात थे. उनका गद्य सुंदर, गहन और प्रभावशाली माना जाता है.
अबुल फ़ज़ल की हत्या 1602 में हुई थी. उनकी हत्या का आदेश अकबर के पुत्र सलीम (जो बाद में जहाँगीर बने) ने दिया था. ऐसा माना जाता है कि सलीम को अबुल फ़ज़ल के अकबर पर प्रभाव से असुविधा होती थी. अबुल फ़ज़ल मुग़ल काल के सबसे महत्वपूर्ण विद्वानों और प्रशासनिक व्यक्तित्वों में से एक माने जाते हैं. उनका योगदान भारत के इतिहास, साहित्य और संस्कृति के अध्ययन में अत्यंत मूल्यवान है.
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सी. डी. देशमुख
सी. डी. देशमुख एक भारतीय राजनीतिज्ञ और आर्थिक विशेषज्ञ थे, जो भारतीय गणराज्य के पहले वित्त मंत्री रहे थे. उन्होंने भारतीय अर्थशास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया और उन्हें भारतीय सिनेट के पहले गवर्नर भी बनाया गया था. देशमुख का जन्म 14 जनवरी 1896 को हुआ था और उन्होंने कृषि और वित्त के क्षेत्र में अपनी पढ़ाई की थी. उन्होंने अपनी प्रोफेशनल कैरियर की शुरुआत भारतीय प्रशासनिक सेवा में की और फिर भारत सरकार में विभिन्न पदों पर कार्य किया.
वर्ष 1943 में, उन्होंने भारतीय सिनेट के पहले गवर्नर के रूप में नामित होकर भारतीय रिजर्व बैंक के प्रमुख बने और इस पद पर वर्ष 1949 तक कार्य किया. उन्होंने भारतीय रुपया की स्वाधीनता के बाद की मुद्रा नीति को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारतीय अर्थशास्त्र को स्थिरता दिलाने में मदद की. वर्ष 1950 में, उन्होंने भारतीय सरकार के पहले वित्त मंत्री के रूप में कार्यभार संभाला और उन्होंने भारतीय रुपया की पुनर्निर्माण और मुद्रा प्रबंधन के क्षेत्र में सुधार किया. उनका कार्यकाल आर्थिक विकास और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में मददगार रहा.
देशमुख के कार्यकाल में, भारतीय अर्थव्यवस्था को स्थिरता और सुधार की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए और उन्होंने वित्त मंत्री के रूप में अपने कुशल नेतृत्व के साथ देश के आर्थिक विकास में योगदान किया. सी. डी. देशमुख का निधन 2 अक्टूबर 1982 को हुआ, लेकिन उनका योगदान भारतीय अर्थशास्त्र और वित्त क्षेत्र में आज भी स्मरण में है.
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ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह पूर्व भारतीय सेना के अधिकारी हैं जिन्होंने भारतीय सेना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और विभिन्न सैन्य अधिकारों में काम किया. राजेंद्र सिंह का जन्म 14 जून 1899 को हुआ था. उन्होंने भारतीय सेना में भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965) और भारत-पाकिस्तान युद्ध (1971) के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान, उन्होंने बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में भाग लिया और मुक्ति सेना के साथ साथियों के रूप में युद्ध में शिरकत की. उन्होंने मुक्ति सेना को विभिन्न मुठभेरी मुठभेरी और टैक्टिक्स के साथ दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस युद्ध के परिणामस्वरूप, बांग्लादेश न्यूनतम समय में अपनी आजादी प्राप्त कर लिया और पाकिस्तान से आयातित बहुत सारी भारतीय जवानों को मुक्त किया गया. ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह ने अपने सेना-सेनानी के रूप में वीरता और सेवानिवृत्ति की भावना के साथ सेना में योगदान किया और उन्हें अपने महान कार्यों के लिए सम्मानित किया गया.
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अभिनेत्री दुर्गा खोटे
दुर्गा खोटे भारतीय सिनेमा की पहली अग्रणी अभिनेत्रियों में से एक थीं और उन्हें हिंदी और मराठी फिल्मों की पथप्रदर्शक कलाकारों में गिना जाता है. उनका जन्म 14 जनवरी 1905 को मुंबई में हुआ था. दुर्गा खोटे ने भारतीय सिनेमा को अपनी बेहतरीन अदाकारी और साहसिक भूमिका-चयन से समृद्ध किया, और खासतौर पर महिलाओं को फिल्मी जगत में प्रवेश करने की प्रेरणा दी. वे एक ऐसी अभिनेत्री थीं जिन्होंने उस समय सिनेमा में प्रवेश किया जब महिलाओं का फिल्मों में काम करना समाज में अस्वीकार्य माना जाता था.
दुर्गा खोटे ने अपने कैरियर की शुरुआत वर्ष 1931 में मराठी फिल्मों से की थी, और वर्ष 1932 में उन्होंने हिंदी सिनेमा में अपनी पहली भूमिका निभाई. वे साउंड फिल्मों के युग की पहली बड़ी अभिनेत्री मानी जाती हैं.
प्रमुख फिल्में: –
अयोध्या का राजा (1932): – यह उनकी पहली हिंदी फिल्म थी और भारतीय सिनेमा की पहली ऐतिहासिक फिल्म मानी जाती है. इसमें उन्होंने रानी तारा की भूमिका निभाई थी.
जय भारत (1936): – इस फिल्म में उनकी अदाकारी को बहुत सराहा गया.
मुगल-ए-आज़म (1960): – इस ऐतिहासिक फिल्म में उन्होंने अकबर की पत्नी, जोधा बाई का किरदार निभाया, जो आज भी याद किया जाता है.
बॉबी (1973): – इस राज कपूर की हिट फिल्म में उन्होंने दादी की भूमिका निभाई, जो बहुत लोकप्रिय हुई.
दुर्गा खोटे ने न केवल बतौर अभिनेत्री अपने काम को गंभीरता से लिया, बल्कि सिनेमा के तकनीकी और प्रोडक्शन पक्षों में भी योगदान दिया. उन्होंने न केवल अपने अभिनय के बल पर, बल्कि अपने साहसिक निर्णयों और पेशेवर नैतिकता से फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं के लिए एक नई राह बनाई. दुर्गा खोटे ने मराठी थिएटर में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया. वे मंच पर भी सक्रिय थीं और मराठी नाटकों में अपनी बेहतरीन भूमिकाओं के लिए प्रसिद्ध थीं.
दुर्गा खोटे को उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. उन्हें 1968 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था. इसके अलावा, उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार भी प्राप्त हुआ, जो भारतीय सिनेमा में किसी भी कलाकार को दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है. दुर्गा खोटे ने अपने जीवन में कई व्यक्तिगत कठिनाइयों का सामना किया. एक विधवा के रूप में उन्होंने फिल्मों में काम करना शुरू किया, और अपने परिवार को सहारा दिया. उनका जीवन संघर्ष और साहस का प्रतीक है.
दुर्गा खोटे का निधन 22 सितंबर 1991 को मुंबई में हुआ था. दुर्गा खोटे ने अपने पीछे एक विरासत छोड़ी, जिसने आने वाली पीढ़ी की अभिनेत्रियों को प्रेरित किया. वे न सिर्फ अपने अभिनय के लिए बल्कि एक स्वतंत्र और सशक्त महिला के रूप में भी आदर्श बनीं. उनके योगदान ने भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भूमिका को मजबूत किया.
उनकी सरलता, गरिमा, और प्रभावशाली अभिनय क्षमता ने उन्हें भारतीय सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित हस्तियों में शामिल किया. उनका जीवन और कैरियर आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहेगा.
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उर्दू शायर कैफ़ी आज़मी
कैफ़ी आज़मी, उर्दू साहित्य के एक प्रमुख शायर और गीतकार थे, जिनका जन्म 14 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में हुआ था. उन्होंने अपने लेखन में गहरी सामाजिक चेतना का प्रदर्शन किया और अपनी कविताओं में अक्सर न्याय, गरीबी, और सामाजिक असमानताओं के विषयों को उठाया. कैफ़ी आज़मी प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रिय सदस्य भी थे, जो उस समय के साहित्यिक आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाते थे.
उनकी कविताएँ न सिर्फ उर्दू साहित्य में, बल्कि हिंदी सिनेमा में भी उनके गीतों के रूप में व्यापक प्रभाव छोड़ीं. फिल्मों में उनके लिखे कुछ प्रमुख गीतों में “कर चले हम फ़िदा” (हकीकत), “वक्त ने किया क्या हसीन सितम” (कागज़ के फूल), और “ये दुनिया ये महफिल” (हीर रांझा) शामिल हैं. उनकी रचनात्मकता और समर्पण ने उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कार दिलाए, जिनमें पद्म श्री भी शामिल है.
कैफ़ी आज़मी का 10 मई 2002 को निधन हो गया, लेकिन उनकी रचनाएँ और उनके द्वारा छोड़ी गई साहित्यिक विरासत आज भी उर्दू और हिंदी साहित्य के प्रेमियों के बीच प्रासंगिक और प्रेरणादायक बनी हुई है.
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राजनीतिज्ञ बिन्देश्वरी दुबे
बिन्देश्वरी दुबे एक प्रमुख भारतीय राजनीतिज्ञ और बिहार राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री थे. वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता थे और अपने राजनीतिक जीवन में श्रमिकों के अधिकार, सामाजिक न्याय और विकास के लिए काम करने के लिए जाने जाते हैं.
बिन्देश्वरी दुबे का जन्म 14 जनवरी 1921 को बिहार के एक साधारण किसान परिवार में हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद श्रमिकों और किसानों के मुद्दों की ओर रुचि दिखाई. दुबे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय थे. उन्होंने महात्मा गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के नेतृत्व में ब्रिटिश शासन के खिलाफ कार्य किया.
बिन्देश्वरी दुबे ने 12 मार्च 1985 से 13 फरवरी 1988 तक बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया. उनके कार्यकाल में राज्य में बुनियादी ढांचे के विकास, शिक्षा और कृषि क्षेत्र में सुधार के प्रयास किए गए. उनका श्रमिकों के प्रति विशेष झुकाव था. उन्होंने भारतीय मजदूर संघ (Indian National Trade Union Congress – INTUC) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और श्रमिक वर्ग के अधिकारों के लिए संघर्ष किया. मुख्यमंत्री के कार्यकाल के बाद, वे भारतीय संसद के सदस्य बने और केंद्र सरकार में मंत्री के रूप में भी कार्य किया. उन्होंने श्रम और रोजगार जैसे क्षेत्रों में अपना योगदान दिया.
बिन्देश्वरी दुबे का निधन 20 जनवरी 1993 को हुआ था. उनके योगदान के लिए उन्हें आज भी बिहार और श्रमिक वर्ग के हितैषी नेता के रूप में याद किया जाता है. उनकी राजनीति और समाजसेवा का प्रभाव आज भी देखा जा सकता है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जो श्रमिक कल्याण और सामाजिक न्याय से संबंधित हैं.
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लेखिका महाश्वेता देवी
महाश्वेता देवी एक प्रतिष्ठित भारतीय लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जो अपनी साहित्यिक कृतियों और समाज सुधार के कार्यों के लिए जानी जाती हैं. उनका जन्म 14 जनवरी 1926 को ढाका, बांग्लादेश (तब पूर्वी बंगाल, ब्रिटिश भारत) में हुआ था और उनका निधन 28 जुलाई 2016 को कोलकाता, भारत में हुआ.
महाश्वेता देवी का जन्म एक साहित्यिक परिवार में हुआ था. उनके पिता मनीष घटक एक प्रसिद्ध कवि और उपन्यासकार थे, और उनकी माँ धर्ममयी देवी भी एक लेखिका थीं. उन्होंने शांतिनिकेतन के विश्वभारती विश्वविद्यालय से पढ़ाई की और अंग्रेजी साहित्य में मास्टर डिग्री प्राप्त की.
महाश्वेता देवी ने अपने साहित्यिक कैरियर की शुरुआत 1950 के दशक में की. उनकी लेखनी में समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों की कहानियाँ और उनके संघर्ष प्रमुखता से दिखाई देते हैं. उनकी रचनाओं में दलित, आदिवासी और अन्य वंचित वर्गों की पीड़ा और उनकी संघर्षशीलता का मार्मिक चित्रण मिलता है.
प्रमुख कृतियाँ: –
“हजार चौरासी की माँ”: – यह उपन्यास नक्सलवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित है और एक माँ की कहानी है जो अपने बेटे की खोज में है.
“अरण्येर अधिकार”: – इस उपन्यास के लिए उन्हें 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला.
“रुदाली”: – यह कहानी राजस्थान की एक पेशेवर शोक मनाने वाली महिला की है, जिस पर फिल्म भी बनाई गई.
“चोटी मुंडा और उनका तीर”: – इस उपन्यास में आदिवासी जीवन और उनके संघर्ष को बखूबी चित्रित किया गया है.
महाश्वेता देवी केवल लेखिका ही नहीं, बल्कि एक समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं. उन्होंने आदिवासी और दलित समुदायों के अधिकारों के लिए जोर-शोर से आवाज उठाई. उन्होंने उनके जीवन में सुधार लाने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए और उनकी समस्याओं को उजागर किया.
महाश्वेता देवी को उनके साहित्यिक और सामाजिक योगदान के लिए कई पुरस्कार और सम्मान मिले: – साहित्य अकादमी पुरस्कार (1979), जन्मी पत्रिका पुरस्कार (1986), पद्म श्री (1986), पद्म विभूषण (2006), रैमॉन मैग्सेसे पुरस्कार (1997) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1996).
महाश्वेता देवी की रचनाएँ और उनके सामाजिक कार्य आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं. उन्होंने भारतीय साहित्य और समाज सुधार के क्षेत्र में एक अमिट छाप छोड़ी है. उनकी लेखनी ने समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों की आवाज को प्रबल किया और उनकी समस्याओं को मुख्य-धारा में लाने का काम किया. उनके योगदान को भारतीय साहित्य और समाज में हमेशा याद किया जाएगा.
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बिहार के माउंटेन मैन दशरथ मांझी
दशरथ मांझी, जिन्हें “माउंटेन मैन” के नाम से जाना जाता है, बिहार के एक गरीब मजदूर थे जिन्होंने अपने अद्वितीय साहस और दृढ़ संकल्प से एक पहाड़ को काटकर रास्ता बनाया. उनका जन्म 14 जनवरी 1929 को गया जिले के गहलौर गांव में हुआ था. दशरथ मांझी की कहानी अदम्य इच्छाशक्ति और अडिग संकल्प की मिसाल है.
वर्ष 1960 के दशक की बात है जब दशरथ मांझी की पत्नी, फाल्गुनी देवी, बीमार पड़ गईं. गांव में अस्पताल की सुविधाएं नहीं थीं और निकटतम अस्पताल तक पहुंचने के लिए एक बड़ा पहाड़ पार करना पड़ता था, जो काफी समय लेने वाला और जोखिम भरा था. एक दिन, फाल्गुनी देवी पहाड़ को पार करते समय गिर गईं और गंभीर रूप से घायल हो गईं. समय पर इलाज न मिलने के कारण उनकी मृत्यु हो गई. इस घटना ने दशरथ मांझी को गहरे दुख में डाल दिया और उन्होंने इस समस्या का समाधान करने का निश्चय किया.
दशरथ मांझी ने ठान लिया कि वे पहाड़ को काटकर एक रास्ता बनाएंगे, ताकि उनके गांव के लोगों को अस्पताल जाने के लिए इतना लंबा और खतरनाक रास्ता पार न करना पड़े. उन्होंने बिना किसी आधुनिक उपकरण के केवल एक हथौड़ा और छैनी के सहारे पहाड़ को काटना शुरू किया. उन्होंने अकेले ही 22 वर्षों (1960 से 1982 तक) की कड़ी मेहनत से पहाड़ को काटकर लगभग 110 मीटर लंबा, 9.1 मीटर चौड़ा और 7.6 मीटर गहरा रास्ता बना दिया. इस रास्ते ने गया शहर की दूरी को 55 किलोमीटर से घटाकर 15 किलोमीटर कर दिया.
शुरुआत में, लोग दशरथ मांझी को पागल समझते थे और उनका मजाक उड़ाते थे. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और अपने संकल्प को जारी रखा. आखिरकार, उनकी मेहनत रंग लाई और उन्होंने उस रास्ते को बना दिया जो आज हजारों लोगों के जीवन को आसान बना रहा है. दशरथ मांझी का यह साहसिक कार्य आज भी प्रेरणा का स्रोत है. उन्हें 2006 में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया. हालांकि, दशरथ मांझी का निधन 17 अगस्त 2007 को हुआ, लेकिन उनकी कहानी आज भी जिंदा है और लोगों को प्रेरित करती है.
दशरथ मांझी का जीवन इस बात का उदाहरण है कि एक व्यक्ति के दृढ़ निश्चय से क्या कुछ संभव हो सकता है. उन्होंने यह साबित किया कि अगर आपके इरादे मजबूत हों, तो कोई भी बाधा आपके रास्ते में नहीं आ सकती. उनकी कहानी ने न केवल बिहार बल्कि पूरे देश में प्रेरणा का संचार किया है. उनकी याद में बनी फिल्म “मांझी: द माउंटेन मैन” (2015) ने उनकी कहानी को और अधिक लोगों तक पहुँचाया और उन्हें श्रद्धांजलि दी.
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संत रामभद्राचार्य
रामभद्राचार्य भारतीय धार्मिक और संत थे, जो भगवान राम और हिंदू धर्म के प्रमुख महत्वपूर्ण काव्य, रामायण, के उपासक और व्याख्यानकार थे. वे रामचरितमानस के एक प्रमुख टीकाकार थे और उनकी व्याख्या “रामचरितमानस-टीका” बहुत प्रसिद्ध है.
रामभद्राचार्य का जन्म 16वीं शताब्दी के अंत में हुआ था, और उनका आदिवासी परिवार से संबंध था. वे गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य थे और तुलसीदास के रामचरितमानस के टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हुए. उनकी टीका रामायण के श्लोकों की व्याख्या करती है और भाषा को समझने में मदद करती है. रामभद्राचार्य के द्वारा लिखी गई टीका रामचरितमानस के पाठकों और अध्येताओं के बीच में बहुत प्रसिद्ध हुई और वे भारतीय साहित्य और धर्म में अपने महत्वपूर्ण योगदान के लिए याद किए जाते हैं. उनकी टीका आज भी रामचरितमानस के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में मानी जाती है.
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अभिनेत्री सीमा बिस्वास
सीमा बिस्वास भारतीय फिल्म, टेलीविजन और रंगमंच की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं, जो अपनी गहरी अभिनय शैली और चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं के लिए जानी जाती हैं. उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने अभिनय कौशल से प्रशंसा अर्जित की है.
सीमा बिस्वास का जन्म 14 जनवरी 1965 को असम के नलबाड़ी जिले में हुआ था. उनके पिता का नाम जगदीश बिस्वास और माता का नाम मीना बिस्वास था. उनकी माँ असमिया थिएटर की प्रमुख अभिनेत्री थीं, जिसने सीमा को अभिनय के प्रति प्रेरित किया. उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD), नई दिल्ली से अभिनय की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की.
सीमा ने रंगमंच से अपने कैरियर की शुरुआत की और धीरे-धीरे फिल्मों की ओर कदम बढ़ाया. उनके अभिनय में गहराई और भावनात्मक प्रभाव का विशेष स्थान है.
फिल्में: –
बैंडिट क्वीन (1994): – शेखर कपूर द्वारा निर्देशित इस फिल्म में सीमा ने फूलन देवी का किरदार निभाया. यह उनकी सबसे प्रसिद्ध भूमिका है, जिसमें उन्होंने दलित महिला फूलन देवी के संघर्ष और क्रांति की कहानी को जीवंत किया. इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (श्रेष्ठ अभिनेत्री) से सम्मानित किया गया.
वाटर (2005): – दीपा मेहता की इस फिल्म में सीमा ने एक विधवा के संघर्ष को बड़ी संजीदगी से प्रस्तुत किया. इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत सराहा गया.
खामोशी: द म्यूजिकल (1996): – इस फिल्म में सीमा ने सहायक भूमिका निभाई और अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई. इनके अलावा डर (1993), हजार चौरासी की मां (1998), अस्तित्व (2000), और भूत (2003) जैसी फिल्मों में भी उनके अभिनय को सराहा गया.
सीमा बिस्वास ने टेलीविजन में भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं. उनके अभिनय में गहराई और वास्तविकता का प्रतिबिंब देखा जा सकता है. सीमा को कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है. सीमा बिस्वास को चुनौतीपूर्ण और यथार्थवादी भूमिकाएं निभाने के लिए जाना जाता है. उनके अभिनय में सामाजिक मुद्दों की गहरी समझ और संवेदनशीलता झलकती है. वे अपनी भूमिकाओं के लिए गहन शोध और तैयारी करती हैं, जो उनके अभिनय को और प्रभावी बनाता है.
सीमा बिस्वास भारतीय सिनेमा की उन अभिनेत्रियों में से हैं, जिन्होंने अपने अभिनय से कला और समाज के बीच एक पुल का निर्माण किया है. उनकी फिल्में और योगदान सिनेमा प्रेमियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं.
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सुरजीत सिंह बरनाला
सुरजीत सिंह बरनाला एक सिख समुदाय के प्रमुख नेता थे. उन्होंने अपने कैरियर के दौरान पंजाब राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में काम किया और भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं.
सुरजीत सिंह बरनाला का जन्म 21 अक्टूबर 1925 को हुआ था. वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा कोट कपूर विश्वविद्यालय से प्राप्त करने के बाद सिख विश्वविद्यालय, अमृतसर से ग्रेजुएशन की डिग्री प्राप्त की. उन्होंने फिर अपनी पढ़ाई जी.एस. सिपल कॉलेज, जलंधर से की और फिर ब्रिटेन के लंदन में अध्ययन करने गए.
सुरजीत सिंह बरनाला ने भारतीय राजनीति में अपनी प्रारंभिक कदम रखा जब वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद पंजाब प्रान्त के सांसद और मंत्री बने. उन्होंने बाद में पंजाब राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में काम किया और इस पद पर वर्ष 1985 -87 तक रहे. उनके कार्यकाल में, पंजाब में विवादित सिख धर्मिक समुदाय के साथ तनाव था, जिसके परिणामस्वरूप वे भारत सरकार के द्वारा निर्देशित किए गए सैन्य अभियान, एपिसोड कांट्री साइड, के बाद इस पद से इस्तीफा देने पर मजबूर हुए.
सुरजीत सिंह बरनाला ने भारतीय संघी पार्टी के सदस्य के रूप में भी कार्य किया और वे भारतीय संघ के एक प्रमुख नेता भी थे. उन्होंने अपने जीवन में भारतीय राजनीति और सिख समुदाय के लिए अपना समर्पण किया और उनका निधन 14 जनवरी 2017 में हुआ था.