स्वतंत्रता सेनानी एनी बेसेंट
एनी बेसेंट एक ब्रिटिश-भारतीय समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, महिला अधिकार कार्यकर्ता और थियोसोफिस्ट थीं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संस्कृति, शिक्षा और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में अपने उल्लेखनीय योगदान के साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी. एनी बेसेंट का जीवन भारतीय समाज और राजनीति के प्रति उनकी गहरी निष्ठा और समर्पण का प्रतीक है.
एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 को लंदन में हुआ था. वे शुरू से ही सामाजिक और धार्मिक मुद्दों में रुचि रखने लगीं और बाद में एक प्रखर लेखिका, वक्ता और एक्टिविस्ट के रूप में प्रसिद्ध हुईं. वर्ष 1870 के दशक में उन्होंने नास्तिकता, नारी अधिकारों, और श्रमिक अधिकारों के लिए इंग्लैंड में आवाज उठाई. वे महिलाओं के मताधिकार और जन्म नियंत्रण के पक्ष में भी जोरदार तरीके से खड़ी हुईं.
वर्ष 1889 में एनी बेसेंट थियोसोफिकल सोसाइटी से जुड़ीं, जो भारतीय और विश्व धर्मों, विज्ञान और आत्मज्ञान की एक संयुक्त विचारधारा पर आधारित संगठन था. वर्ष 1893 में वे भारत आईं और यहाँ उन्होंने थियोसोफिकल सोसाइटी के आदर्शों को फैलाने का काम शुरू किया. थियोसोफिकल सोसाइटी का मुख्यालय भारत के तमिलनाडु के आद्यार में था, और एनी बेसेंट ने इसके माध्यम से भारतीय संस्कृति, वेदांत, और हिंदू दर्शन को बढ़ावा देने का कार्य किया.
एनी बेसेंट ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए एक महत्वपूर्ण कदम तब उठाया, जब उन्होंने वर्ष 1916 में होमरूल लीग की स्थापना की. होमरूल लीग का उद्देश्य भारत को ब्रिटिश शासन के तहत ही स्वशासन (Home Rule) दिलाना था. यह लीग बाल गंगाधर तिलक के साथ मिलकर काम कर रही थी और पूरे भारत में स्वशासन की माँग को लेकर एक जन आंदोलन खड़ा हुआ.
एनी बेसेंट को 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनने का गौरव प्राप्त हुआ. उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस ने स्वशासन की माँग को मजबूती से उठाया और भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. एनी बेसेंट का कांग्रेस के प्रति योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है.
एनी बेसेंट एक प्रखर लेखिका और पत्रकार भी थीं. उन्होंने “न्यू इंडिया” नामक एक अखबार शुरू किया, जिसके माध्यम से वे भारतीय स्वतंत्रता, सामाजिक सुधार और शिक्षा के मुद्दों पर लेख लिखती थीं/ उनका लेखन भारतीयों को जागरूक और संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना की और स्वशासन की माँग को हर भारतीय तक पहुँचाया.
एनी बेसेंट ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए भी काम किया. उन्होंने शिक्षा के माध्यम से भारतीय युवाओं में राष्ट्रीयता और स्वाभिमान की भावना को जगाने की कोशिश की. वर्ष 1898 में उन्होंने सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की, जो बाद में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का हिस्सा बना. इसके अलावा, उन्होंने महिला शिक्षा और स्त्रियों के सशक्तिकरण के लिए भी काम किया.
एनी बेसेंट भारतीय संस्कृति, धर्म, और सभ्यता की प्रशंसक थीं. उन्होंने भारतीय समाज में हो रहे सामाजिक और धार्मिक सुधारों का समर्थन किया. उनकी विचारधारा में थियोसोफी का गहरा प्रभाव था, जो कि धर्मों और विज्ञान के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टिकोण से भी प्रेरित किया.
एनी बेसेंट का निधन 20 सितंबर 1933 को भारत के मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ. उनका जीवन और कार्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार के प्रति उनकी अद्वितीय प्रतिबद्धता का प्रतीक है. उनके द्वारा स्थापित संस्थाएँ, जैसे कि थियोसोफिकल सोसाइटी और उनके द्वारा आरंभ किए गए शैक्षिक प्रयास आज भी उनके योगदान की गवाही देते हैं.
एनी बेसेंट का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उन महान विभूतियों में गिना जाता है, जिन्होंने भारतीय समाज को एक नया दृष्टिकोण और दिशा दी.
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स्वतंत्रता सेनानी प्रताप सिंह कैरों
प्रताप सिंह कैरों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख सेनानी, राजनेता और पंजाब राज्य के मुख्यमंत्री थे. उनका जन्म 1 अक्टूबर 1901 को पंजाब के अमृतसर जिले के करनाल गांव में हुआ था. स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े. कैरों ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की, जिसके कारण उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा.
प्रताप सिंह कैरों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ कई आंदोलनों में हिस्सा लिया. उन्होंने किसानों और मजदूरों के अधिकारों के लिए भी संघर्ष किया. स्वतंत्रता के बाद, वे भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे और पंजाब के विकास के लिए समर्पित रहे.
प्रताप सिंह कैरों 1956 – 64 तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे. उनके नेतृत्व में पंजाब ने कृषि और औद्योगिक क्षेत्र में काफी प्रगति की. उन्होंने शिक्षा, सिंचाई और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाओं की शुरुआत की, जिससे हरित क्रांति का मार्ग प्रशस्त हुआ.
प्रताप सिंह कैरों को एक प्रगतिशील नेता के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने आधुनिक पंजाब के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया. वर्ष 1965 में उनकी हत्या कर दी गई थी, जो भारतीय राजनीति में एक दुखद घटना के रूप में जानी जाती है. उनका जीवन और कार्य आज भी पंजाब के विकास और स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं.
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गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी
मजरूह सुल्तानपुरी हिंदी सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय गीतकारों में से एक थे. उनका असली नाम असरार-उल-हसन खान था, लेकिन फिल्मी दुनिया में वे मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से प्रसिद्ध हुए. उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था, और उन्होंने प्रारंभिक जीवन में यूनानी चिकित्सा की पढ़ाई की थी. हालांकि, कविता और शायरी के प्रति उनके प्रेम ने उन्हें साहित्य और गीत लेखन की ओर मोड़ा।
मजरूह सुल्तानपुरी ने उर्दू शायरी से अपने कैरियर की शुरुआत की, और बहुत जल्द वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए. उनकी शायरी में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर तीखा व्यंग्य और सामाजिक जागरूकता का पुट देखने को मिलता था.
मजरूह सुल्तानपुरी का फिल्मी कैरियर वर्ष 1946 में फिल्म “शाहजहां” से शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने “जब दिल ही टूट गया” गाना लिखा था. इस गीत ने उन्हें रातों-रात लोकप्रिय बना दिया. इसके बाद उन्होंने भारतीय सिनेमा में लगभग पाँच दशकों तक एक से बढ़कर एक हिट गाने दिए.
उनके लिखे गाने अपनी भावपूर्ण शायरी, सरल भाषा, और गहरे अर्थों के लिए प्रसिद्ध हैं. उन्होंने संगीतकार एस. डी. बर्मन, नौशाद, आर. डी. बर्मन, और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसे दिग्गजों के साथ काम किया. उनके लिखे कई गाने आज भी बेहद लोकप्रिय हैं, जैसे: –
चाहूंगा मैं तुझे साँझ सवेरे– (फिल्म दोस्ती, 1964),
ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ – (फिल्म जिद्दी, 1948),
प्यार किया तो डरना क्या – (फिल्म मुगल-ए-आज़म, 1960),
चुरा लिया है तुमने जो दिल को – (फिल्म यादों की बारात, 1973),
पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा – ( फिल्म क़यामत से क़यामत तक, 1988).
मजरूह सुल्तानपुरी को एक प्रगतिशील सोच वाला गीतकार माना जाता था. वे उस दौर के कवियों में से एक थे जो स्वतंत्रता, समानता, और सामाजिक न्याय की बात करते थे. उनके गीतों में प्रेम, समाज, और जीवन के विभिन्न पहलुओं का जिक्र मिलता है.
वर्ष 1950 के दशक में उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े होने के कारण जेल भी जाना पड़ा था, लेकिन इससे उनकी लेखनी की धार और तेज हो गई. मजरूह सुल्तानपुरी को उनके अमूल्य योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें प्रमुख हैं: – वर्ष 1993 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार, जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान है. उन्हें कई बार फिल्मफेयर पुरस्कार से भी नवाजे गए.
मजरूह सुल्तानपुरी ने अपने पांच दशकों के कैरियर में सैकड़ों गीत लिखे, जो आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं. वे अपनी सादगी, गहरे भाव और समाजिक चेतना के लिए हमेशा याद किए जाएंगे. उनकी शायरी और गीतों ने भारतीय सिनेमा और साहित्य को एक नई दिशा दी.
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अभिनेता शिवाजी गणेशन
शिवाजी गणेशन भारतीय सिनेमा के सबसे महान और प्रतिष्ठित अभिनेताओं में से एक थे. उन्हें तमिल सिनेमा का “मरूदुर गोपालन रामचंद्रन” नाम दिया गया था, लेकिन दुनिया उन्हें उनके फिल्मी नाम शिवाजी गणेशन से जानती है. वे भारतीय सिनेमा में “अभिनय के राजा” के रूप में माने जाते थे और अपनी शक्तिशाली अभिनय शैली, संवाद अदायगी, और विविध भूमिकाओं के लिए प्रसिद्ध थे.
शिवाजी गणेशन का जन्म 1 अक्टूबर 1928 को तमिलनाडु के विल्लुपुरम जिले में एक सामान्य परिवार में हुआ था. उनका असली नाम गणेशमूर्ति था. बचपन से ही उन्हें अभिनय का शौक था, और उन्होंने पारंपरिक तमिल थिएटर (थेय्यम) से अपने कैरियर की शुरुआत की. उन्होंने युवा अवस्था में रंगमंच में शिवाजी महाराज की भूमिका निभाई थी, और उनकी इस उत्कृष्ट भूमिका के कारण उन्हें “शिवाजी” नाम मिला, जो उनके जीवन का हिस्सा बन गया.
शिवाजी गणेशन ने 1952 में तमिल फिल्म “पराशक्ति” से अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत की. यह फिल्म सुपरहिट रही, और शिवाजी गणेशन का अभिनय आलोचकों और दर्शकों द्वारा बहुत सराहा गया. इस फिल्म ने उन्हें एक बड़े स्टार के रूप में स्थापित किया. इसके बाद उन्होंने तमिल सिनेमा में कई क्लासिक फिल्में कीं और अपनी बहुमुखी प्रतिभा के लिए पहचाने गए.
प्रमुख फिल्में: –
“वीरपांडिया कट्टाबोम्मन” (1959): – इस फिल्म में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता सेनानी वीरपांडिया कट्टाबोम्मन की भूमिका निभाई, जिसके लिए उन्हें कई पुरस्कार मिले.
“नवरथिरी” (1966): – इस फिल्म में उन्होंने नौ अलग-अलग भूमिकाएं निभाईं.
“थिरुविलायाडल” (1965): – इसमें उन्होंने भगवान शिव का किरदार निभाया, जो तमिल सिनेमा के इतिहास में एक यादगार भूमिका है.
“पसुपति”: – इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय को बहुत सराहा गया.
शिवाजी गणेशन अपने अभिनय में अद्वितीय थे. वे भावनात्मक और जटिल भूमिकाओं में माहिर थे, और उनके संवाद अदायगी की शैली उनकी पहचान बन गई. उनके पास किसी भी प्रकार की भूमिका को प्रभावी ढंग से निभाने की क्षमता थी, चाहे वह ऐतिहासिक हो, सामाजिक, या पौराणिक. उन्होंने विभिन्न भाषाओं की फिल्मों में काम किया, मुख्यतः तमिल, लेकिन तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और हिंदी सिनेमा में भी उनकी भूमिकाएं सराही गईं.
शिवाजी गणेशन को उनके उल्लेखनीय अभिनय के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले, जिनमें शामिल हैं: –
दादासाहेब फाल्के पुरस्कार (1997): – भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा सम्मान.
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार: – उन्हें विभिन्न फिल्मों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया.
चेवलियर (फ्रांस का सर्वोच्च नागरिक सम्मान): – उन्हें फ्रांसीसी सरकार द्वारा “नाइट ऑफ द ऑर्डर ऑफ आर्ट्स एंड लेटर्स” का खिताब दिया गया.
शिवाजी गणेशन भारतीय राजनीति में भी सक्रिय रहे और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) पार्टी से जुड़े थे. बाद में उन्होंने अपनी खुद की पार्टी भी बनाई, लेकिन राजनीति में उन्हें उतनी सफलता नहीं मिली जितनी फिल्मों में.
वर्ष 2001 में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है. शिवाजी गणेशन ने भारतीय सिनेमा को अपनी अद्भुत अभिनय शैली से समृद्ध किया, और वे आज भी तमिल सिनेमा के सबसे बड़े और प्रभावशाली सितारों में से एक माने जाते हैं.
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राजनीतिज्ञ सूरज भान
सूरज भान एक भारतीय राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी (BJP) से जुड़कर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनका राजनीतिक कैरियर खासतौर पर हरियाणा और केंद्र स्तर की राजनीति में प्रभावशाली रहा. वे एक समर्पित नेता थे, जिन्होंने विभिन्न राजनीतिक पदों पर रहते हुए जनता की सेवा की. सूरज भान ने राज्य और राष्ट्रीय राजनीति दोनों में महत्वपूर्ण योगदान दिया, खासकर अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए काम किया.
सूरज भान का जन्म 1 अक्टूबर 1928 को हरियाणा में हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हरियाणा में प्राप्त की और बाद में राजनीति की ओर रुख किया। सूरज भान एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय थे और विशेष रूप से कमजोर वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज उठाते रहे.
सूरज भान का राजनीतिक जीवन भारतीय जनता पार्टी से शुरू हुआ, और वे पार्टी के एक प्रमुख नेता बने. उनका राजनीतिक कैरियर निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर केंद्रित रहा: –
लोकसभा सदस्य: – सूरज भान चार बार लोकसभा के सदस्य रहे. वे हरियाणा के करनाल निर्वाचन क्षेत्र से संसद सदस्य चुने गए. संसद में उनके कार्यकाल के दौरान, उन्होंने सामाजिक कल्याण, दलित अधिकारों, और ग्रामीण विकास से जुड़े मुद्दों को उठाया.
केंद्रीय मंत्री: – उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था और उन्होंने केंद्र सरकार में राज्य मंत्री (सामाजिक न्याय और अधिकारिता) के रूप में कार्य किया. इस पद पर रहते हुए, उन्होंने सामाजिक न्याय और वंचित तबकों के उत्थान के लिए कई नीतियां और कार्यक्रम शुरू किए.
राज्यपाल: – सूरज भान ने विभिन्न राज्यों में राज्यपाल के रूप में भी अपनी सेवाएं दीं. वे हिमाचल प्रदेश (1995–1996) और उत्तर प्रदेश (1996–1998) के राज्यपाल रहे. बाद में, उन्हें बिहार और त्रिपुरा का राज्यपाल नियुक्त किया गया। राज्यपाल के रूप में उन्होंने प्रशासनिक कार्यों को सुचारू रूप से संचालित किया और राज्य सरकारों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे.
सूरज भान ने अपने राजनीतिक जीवन में विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के लिए काम किया. उन्होंने समाज में समानता और समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए कई प्रयास किए. उनका दृष्टिकोण था कि समाज के कमजोर वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए उन्हें अवसरों और संसाधनों की समान उपलब्धता होनी चाहिए.
सूरज भान का निधन 6 अगस्त 2006 को हुआ. उनके योगदान को भारतीय राजनीति में हमेशा याद किया जाता रहेगा, खासकर दलित और वंचित वर्गों के कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के लिए. उनके कार्यों और उनके द्वारा चलाई गई नीतियों ने भारतीय समाज में सामाजिक सुधार और समानता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
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बिलियर्ड्स खिलाड़ी माइकल फ़रेरा
माइकल फरेरा एक भारतीय बिलियर्ड्स खिलाड़ी हैं, जिन्हें “बिलियर्ड्स के सुल्तान” के रूप में जाना जाता है. उनका जन्म 1 अक्टूबर 1938 को मुंबई में हुआ था. फरेरा ने अपने शानदार कैरियर में भारतीय बिलियर्ड्स को एक नई पहचान दी और देश-विदेश में कई महत्वपूर्ण खिताब जीते. उन्हें चार बार वर्ल्ड एमेच्योर बिलियर्ड्स चैंपियन बनने का गौरव प्राप्त है.
माइकल फरेरा का जन्म मुंबई में हुआ था और उन्होंने अपनी शिक्षा मुंबई के प्रतिष्ठित सेंट जेवियर्स कॉलेज से प्राप्त की. बचपन से ही खेलों में रुचि रखने वाले फरेरा ने बाद में बिलियर्ड्स को अपने कैरियर के रूप में चुना. उनका खेल के प्रति समर्पण और लगन उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ले गई.
माइकल फरेरा ने वर्ष 1970 के दशक में भारतीय बिलियर्ड्स के क्षेत्र में अपनी पहचान बनानी शुरू की. उन्होंने वर्ष 1977 में पहली बार वर्ल्ड एमेच्योर बिलियर्ड्स चैंपियनशिप जीती, जो उनके कैरियर की एक बड़ी उपलब्धि थी. इसके बाद उन्होंने वर्ष 1981, 1983, और 1984 में भी यह खिताब जीता.
उपलब्धियां: –
वर्ल्ड एमेच्योर बिलियर्ड्स चैंपियनशिप: – चार बार विजेता ( वर्ष 1977, 1981, 1983, 1984).
भारत सरकार द्वारा सम्मान: – उन्हें वर्ष 1981 में पद्मश्री और वर्ष 1983 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.
अर्जुन पुरस्कार – उन्हें वर्ष 1973 में भारत के सबसे प्रतिष्ठित खेल पुरस्कार, अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
माइकल फरेरा ने सिर्फ अपने खेल के माध्यम से ही नहीं, बल्कि बिलियर्ड्स के प्रचार और प्रसार के लिए भी महत्वपूर्ण कार्य किए. उन्होंने युवा पीढ़ी को बिलियर्ड्स के प्रति प्रेरित करने का काम किया और भारतीय बिलियर्ड्स को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक सम्मानजनक स्थान दिलाया.
फरेरा का व्यक्तिगत जीवन भी चर्चा में रहा है, खासकर तब जब उनका नाम वर्ष 2013 में एक आर्थिक घोटाले से जुड़ा. हालांकि उन्होंने इन आरोपों से इनकार किया, लेकिन यह मामला उनके कैरियर पर एक विवाद के रूप में उभरा.
माइकल फरेरा ने बिलियर्ड्स के खेल में अपनी असाधारण प्रतिभा और समर्पण से देश का नाम रौशन किया. उनके योगदान को भारतीय खेल इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा. वे भारतीय खेल जगत के उन महान खिलाड़ियों में से एक हैं, जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का मान बढ़ाया.
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पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द
राम नाथ कोविन्द भारत के 14वें राष्ट्रपति थे, जिन्होंने 25 जुलाई 2017 से 25 जुलाई 2022 तक इस पद पर सेवा की. वे भारतीय जनता पार्टी (BJP) के वरिष्ठ नेता और एक समर्पित दलित कार्यकर्ता हैं.अपने जीवनकाल में उन्होंने भारतीय संविधान और न्यायिक प्रणाली के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए, राजनीति और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया.
राम नाथ कोविन्द का जन्म 1 अक्टूबर 1945 को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात जिले के परौंख गांव में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था. उनका परिवार अनुसूचित जाति से था, और उनके प्रारंभिक जीवन में उन्हें कई सामाजिक और आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.
उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय से वाणिज्य और कानून में स्नातक की पढ़ाई की. बाद में दिल्ली में रहकर उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) की तैयारी की, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली लेकिन उन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल होने की बजाय वकालत का पेशा चुना.
राम नाथ कोविन्द ने वकील के रूप में दिल्ली उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट में काम किया. वे वर्ष 1977 – 79 तक भारत सरकार के केंद्रीय कानूनी सलाहकार रहे. कोविन्द भारतीय जनता पार्टी (BJP) में शामिल हो गए और धीरे-धीरे पार्टी में एक मजबूत दलित नेता के रूप में उभरे। वे वर्ष 1991 में BJP के सदस्य बने और कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया. वर्ष 1994 – 2006 तक, राम नाथ कोविन्द दो बार उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सदस्य चुने गए. संसद में रहते हुए उन्होंने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के अधिकारों के लिए काम किया।
अगस्त 2015 को राम नाथ कोविन्द को बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया. उनके कार्यकाल में उन्हें एक निष्पक्ष और प्रभावी राज्यपाल के रूप में पहचाना गया. उन्होंने बिहार में प्रशासनिक सुधारों के लिए कई कदम उठाए और राज्य की कानून व्यवस्था में सुधार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
राम नाथ कोविन्द ने 25 जुलाई 2017 को भारत के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली. वे भारत के दूसरे दलित राष्ट्रपति बने (पहले राष्ट्रपति के. आर. नारायणन थे). राष्ट्रपति के रूप में, उन्होंने भारतीय संविधान की सर्वोच्चता की रक्षा की और विभिन्न अवसरों पर सामाजिक न्याय, समावेशिता और समानता की बात की.
उनके कार्यकाल के दौरान, उन्होंने कई महत्वपूर्ण घटनाओं और नीतिगत फैसलों पर अपनी भूमिका निभाई, जैसे: – नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), अनुच्छेद 370 हटाने का समर्थन (जिसके तहत जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त था), कोविड-19 महामारी के दौरान राष्ट्र के प्रति उनकी संवेदनशीलता और प्रशासनिक प्रतिक्रिया की सराहना की गई.
राम नाथ कोविन्द का जीवन सादगी और समाज सेवा से भरा रहा है. उन्होंने दलित समाज और वंचित तबकों के अधिकारों के लिए हमेशा काम किया है. वे उन राजनेताओं में से एक हैं जिन्होंने राजनीति में नैतिकता और सादगी का उदाहरण प्रस्तुत किया.
राष्ट्रपति पद से रिटायर होने के बाद भी राम नाथ कोविन्द एक प्रेरणास्रोत बने हुए हैं, खासकर उन लोगों के लिए जो वंचित और पिछड़े वर्ग से आते हैं. उनका जीवन संघर्ष, सेवा और समर्पण का प्रतीक है, और भारतीय राजनीति में उनकी भूमिका हमेशा सराही जाएगी.
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गायिका शारदा सिन्हा
शारदा सिन्हा एक प्रसिद्ध भारतीय लोकगायिका हैं, जिन्हें खास तौर पर भोजपुरी, मैथिली, और मगही लोकगीतों के लिए जाना जाता है. वे बिहार की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक मानी जाती हैं और विशेष रूप से छठ पर्व के गीतों के लिए प्रसिद्ध हैं. शारदा सिन्हा को भारतीय लोकसंगीत को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिया जाता है.
शारदा सिन्हा का जन्म 1 अक्टूबर 1952 को बिहार के समस्तीपुर जिले में हुआ था. वे एक संगीतप्रेमी परिवार से ताल्लुक रखती थीं और छोटी उम्र से ही उन्हें संगीत में रुचि थी. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बिहार में प्राप्त की और बाद में संगीत में औपचारिक प्रशिक्षण लिया. शारदा सिन्हा ने शास्त्रीय संगीत की पढ़ाई की और धीरे-धीरे लोकगीतों की तरफ आकर्षित हो गईं.
शारदा सिन्हा ने लोकसंगीत के क्षेत्र में अपना कैरियर शुरू किया और जल्दी ही वे भोजपुरी, मैथिली, और मगही लोकगीतों की प्रमुख गायिका बन गईं. उनकी गायकी की खासियत उनकी मधुर आवाज़ और गानों में भावनाओं की गहराई है, जो श्रोताओं को अपनी ओर खींच लेती है.
लोकप्रिय लोकगीत: –
“पाहिले पाहिल हम कइनी छठ व्रतिया”: – यह गीत छठ पर्व के समय हर घर में सुनाई देता है और इसे छठ के गीतों में एक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है.
“ओह रे नील गगन के तले”: – यह गीत बेहद लोकप्रिय है और इसे शारदा सिन्हा की सबसे प्रसिद्ध रचनाओं में से एक माना जाता है.
“दरस दिखा ए माता”: – दुर्गा पूजा के अवसर पर गाया जाने वाला यह गीत बेहद लोकप्रिय है.
शारदा सिन्हा ने लोकगीतों के अलावा कुछ बॉलीवुड फिल्मों में भी अपनी आवाज़ दी है. उनकी आवाज़ में भारतीय फिल्म “मैने प्यार किया” (1989) का प्रसिद्ध गीत “कहे तोसे सजना” आज भी बहुत लोकप्रिय है. इसके अलावा, उन्होंने अन्य फिल्मों में भी गीत गाए हैं, लेकिन उन्होंने मुख्य रूप से लोकसंगीत पर ध्यान केंद्रित किया.
शारदा सिन्हा को उनके संगीत और लोकसंगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान मिले हैं: –
पद्म भूषण: – 2018 में भारत सरकार ने उन्हें देश के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया.
पद्म श्री: – 1991 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया.
बिहार रत्न: – उन्हें बिहार सरकार द्वारा इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.
महानायक पुरस्कार: – लोकसंगीत में उनके योगदान के लिए कई राज्यस्तरीय और राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं.
शारदा सिन्हा लोकसंगीत के प्रचार और संरक्षण के प्रति बहुत समर्पित रही हैं. उन्होंने बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के पारंपरिक संगीत को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी लोकप्रिय बनाया है. उनके गीतों ने क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृति को बड़े मंचों पर पहचान दिलाई.
शारदा सिन्हा की आवाज़ में गाए गए छठ पर्व और अन्य पारंपरिक गीतों ने उन्हें लोकसंगीत की एक अमर गायिका बना दिया है. वे आज भी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोकसंगीत प्रेमियों के बीच एक आदर्श बनी हुई हैं. उनका संगीत भारतीय लोकसंस्कृति की समृद्धि का प्रतीक है और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहेगा.
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संगीतकार तथा गायक सचिन देव बर्मन
सचिन देव बर्मन भारतीय सिनेमा के सबसे महान संगीतकारों और गायकों में से एक थे. उन्होंने हिंदी और बंगाली सिनेमा में अपने योगदान से एक अद्वितीय पहचान बनाई. उनके संगीत की खासियत उसकी सादगी, गहराई और भारतीय लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत के तत्वों का समन्वय था. एस. डी. बर्मन के नाम से प्रसिद्ध, उन्होंने अपने संगीत से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को कई हिट गीत दिए और उनका नाम भारतीय संगीत इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है.
सचिन देव बर्मन का जन्म 1 अक्टूबर 1906 को त्रिपुरा राज्य के राजघराने में हुआ था. उनके पिता, नबद्वीपचंद्र देव बर्मन, त्रिपुरा के शाही परिवार से थे. एस. डी. बर्मन को बचपन से ही संगीत का गहरा लगाव था, और उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा अपने गुरु के. सी. डे (मन्ना डे के चाचा) से ली. बर्मन ने भारतीय शास्त्रीय संगीत और बंगाली लोकसंगीत दोनों में गहरी रुचि दिखाई और यही उनकी संगीत शैली की नींव बनी.
एस. डी. बर्मन का संगीत कैरियर वर्ष 1930 के दशक में बंगाली सिनेमा से शुरू हुआ. उन्होंने पहले बंगाली फिल्मों के लिए संगीत तैयार किया, और बाद में हिंदी सिनेमा की ओर रुख किया. वर्ष 1940 के दशक में मुंबई आने के बाद, बर्मन ने जल्द ही बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान बना ली.
उनकी संगीत रचना की शैली लोकगीतों और शास्त्रीय संगीत का अद्भुत मिश्रण थी, जो सादगी के साथ गहरे भावनात्मक प्रभाव को उत्पन्न करती थी. उनके द्वारा दिए गए कुछ यादगार और कालजयी गीत आज भी लोकप्रिय हैं.
फिल्में और गीत: –
सचिन देव बर्मन ने कई ब्लॉकबस्टर फिल्मों में संगीत दिया, और उनके द्वारा रचित गीत भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमर हो गए.
“गाइड” (1965): – इस फिल्म में उन्होंने अद्वितीय संगीत दिया और इसके सभी गाने सुपरहिट रहे. जैसे “गाता रहे मेरा दिल” और “आज फिर जीने की तमन्ना है”.
“प्यासा” (1957): – इस फिल्म का संगीत अत्यंत भावुक और गहरा था. “जाने वो कैसे लोग थे” और “ये महलोन, ये ताजों” जैसे गीत आज भी बहुत सराहे जाते हैं.
“अराधना” (1969): – इस फिल्म के गीतों ने किशोर कुमार और लता मंगेशकर की आवाज़ को अमर बना दिया. “मेरे सपनों की रानी” और “कोरा कागज़ था ये मन मेरा” जैसे गीत बेहद लोकप्रिय हुए.
“कागज़ के फूल” (1959): – इसमें बर्मन के संगीत ने फिल्म की गहरी भावनाओं को एक नया आयाम दिया. इसका गाना “वक्त ने किया क्या हसीं सितम” आज भी बेहद प्रसिद्ध है.
“बंदिनी” (1963): – फिल्म में बर्मन के संगीत ने सशक्त भावनाओं को अभिव्यक्त किया. “मोरा गोरा अंग लै ले” और “ओ रे मांझी” जैसे गीत आज भी श्रोताओं के दिलों में बसे हुए हैं.
सचिन देव बर्मन न केवल एक महान संगीतकार थे, बल्कि एक बेहद प्रतिभाशाली गायक भी थे. उनकी अनूठी आवाज़ में एक लोकसंगीत की आत्मीयता थी, जिसने उनके गानों को एक विशेष पहचान दी.
गाने गाए: –
“सुजाता” फिल्म का गीत “सुन मेरे बंधु रे”,
“जाल” फिल्म का प्रसिद्ध गीत “ठंडी हवाएं”. उनकी आवाज़ की मधुरता और गहराई श्रोताओं को भावनाओं की एक नई दुनिया में ले जाती थी.
सचिन देव बर्मन को उनके उत्कृष्ट संगीत के लिए कई सम्मान मिले. उनमें से कुछ प्रमुख हैं: –
फिल्मफेयर पुरस्कार: – उन्हें कई बार सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के लिए नामांकित किया गया, और उन्होंने वर्ष 1954 में फिल्म “तुमसा नहीं देखा” के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता.
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार: – बर्मन को उनके जीवनकाल में भारतीय सिनेमा के लिए उनके योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले.
सचिन देव बर्मन के बेटे राहुल देव बर्मन (आर. डी. बर्मन) भी भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के सबसे प्रसिद्ध और प्रतिभाशाली संगीतकारों में से एक थे. एस. डी. बर्मन का व्यक्तिगत जीवन सादगीपूर्ण था, और वे अपने संगीत के प्रति अत्यधिक समर्पित थे.
31 अक्टूबर 1975 को सचिन देव बर्मन का निधन हो गया, लेकिन उनकी संगीत की धरोहर आज भी जीवित है. उनके द्वारा रचित संगीत न केवल हिंदी सिनेमा का, बल्कि भारतीय संगीत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. एस. डी. बर्मन ने अपने जीवन में लोकसंगीत, शास्त्रीय संगीत और आधुनिक धुनों का जो अनूठा संगम पेश किया, उसने उन्हें भारतीय संगीत के इतिहास में अमर कर दिया. उनके संगीत की विरासत उनके बेटे आर. डी. बर्मन ने भी बखूबी संभाली और उसे आगे बढ़ाया.
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अभिनेत्री श्रद्धा निगम
श्रद्धा निगम एक भारतीय अभिनेत्री हैं, जिन्होंने हिंदी टेलीविजन और फिल्मों में काम किया है. वे अपने सरल और प्रभावशाली अभिनय के लिए जानी जाती हैं. श्रद्धा ने मुख्य रूप से टेलीविजन धारावाहिकों के माध्यम से लोकप्रियता हासिल की, और इसके साथ ही वे फिल्मों और अन्य प्लेटफार्मों पर भी सक्रिय रहीं. उनके सहज अभिनय और खूबसूरत व्यक्तित्व ने उन्हें टीवी दर्शकों के बीच एक विशेष स्थान दिलाया.
श्रद्धा निगम का जन्म 01 अक्टूबर 1979 को हुआ था. उन्होंने अपनी पढ़ाई मुंबई में की और बचपन से ही अभिनय में रुचि रखती थीं. अपने कैरियर की शुरुआत में श्रद्धा ने मॉडलिंग और टीवी विज्ञापनों में काम किया, जिससे उन्हें टेलीविजन और फिल्मों में काम करने का मौका मिला.
श्रद्धा निगम ने टेलीविजन से अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत की और कई प्रमुख धारावाहिकों में नजर आईं. उनका सबसे प्रसिद्ध टीवी शो “चूड़ियां” था, जो 2000 के दशक की शुरुआत में बहुत लोकप्रिय हुआ.
धारावाहिक: –
“चूड़ियां”: – इस शो में उनके अभिनय को काफी सराहा गया और उन्होंने घर-घर में पहचान बनाई.
“कहिन किसी रोज़”: – इस लोकप्रिय शो में भी श्रद्धा ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
“क्राइम पेट्रोल”: – इस क्राइम शो में उन्होंने कई एपिसोडिक रोल किए.
फिल्में: –
“प्यार इश्क और मोहब्बत” (2001): – इस फिल्म में उन्होंने अरशद वारसी के साथ अभिनय किया था.
उन्होंने मुख्य रूप से टेलीविजन पर काम किया है, लेकिन फिल्मों में भी उनका अभिनय सराहा गया. श्रद्धा निगम का व्यक्तिगत जीवन मीडिया की सुर्खियों में भी रहा है. उनकी शादी भारतीय अभिनेता करण सिंह ग्रोवर से 2008 में हुई थी, लेकिन यह शादी ज्यादा समय तक नहीं चली और 2009 में उनका तलाक हो गया.
इसके बाद श्रद्धा निगम ने फैशन डिजाइनर मयंक आनंद से शादी की. मयंक आनंद भी एक अभिनेता थे, और बाद में उन्होंने फैशन में अपनी पहचान बनाई. श्रद्धा और मयंक ने मिलकर “श्रद्धा निगम – मयंक आनंद फैशन लाइन” शुरू की, जो फैशन इंडस्ट्री में काफी सफल रही है.
श्रद्धा निगम ने अपने फैशन ब्रांड के माध्यम से फैशन डिजाइनिंग की दुनिया में भी कदम रखा और मयंक आनंद के साथ मिलकर एक सफल फैशन डिजाइनर के रूप में उभरीं. उनके ब्रांड को विशेष रूप से पारंपरिक और समकालीन फैशन के लिए सराहा जाता है.
श्रद्धा निगम ने टेलीविजन इंडस्ट्री में अपनी सादगी और दमदार अभिनय के साथ अपनी पहचान बनाई है. उनके फैशन डिजाइनिंग कैरियर ने भी उन्हें एक नई पहचान दी है, और वे अब एक सफल अभिनेत्री और डिजाइनर के रूप में जानी जाती हैं. उनकी कला और फैशन में योगदान ने उन्हें एक बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया है.
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पार्श्व गायिका निखिता गाँधी
निखिता गांधी एक प्रतिभाशाली भारतीय पार्श्व गायिका हैं, जिन्होंने हिंदी, पंजाबी, और कई अन्य भाषाओं में गाने गाए हैं. वे अपने मधुर गायक स्वर और विविध संगीत शैलियों में दक्षता के लिए जानी जाती हैं.
निखिता गांधी का जन्म 01 अक्टूबर 1991 को मुंबई, महाराष्ट्र में हुआ था. उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मुंबई में प्राप्त की और बाद में संगीत में औपचारिक शिक्षा ली. निखिता का संगीत के प्रति प्रेम बचपन से ही था, और उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत संगीत की विभिन्न शैलियों के साथ की.
निखिता ने अपने कैरियर की शुरुआत विज्ञापन संगीत और जिंगल्स से की, जिसके बाद उन्होंने हिंदी फिल्म उद्योग में कदम रखा.
प्रमुख गाने: –
“नीले नीले अम्बर पे” (फिल्म “किस्से पंजाब”): – इस गाने ने उन्हें काफी पहचान दिलाई.
“दिल की बातें” (फिल्म “टोटल धमाल”): – यह गाना भी बहुत लोकप्रिय हुआ।
“जरा तल्ले” (फिल्म “जॉली एलएलबी 2”): – इस गाने में उनके गायन ने लोगों का दिल जीता.
“तेरे बिन” (फिल्म “आदित्य वर्मा”): – इस गाने को भी दर्शकों ने पसंद किया.
“पैसे की तरह” (फिल्म “बुलबुल”): – यह गाना भी उनके करियर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना.
निखिता ने कई म्यूजिक एल्बम और गाने भी गाए हैं, जो विभिन्न संगीत शैलियों को दर्शाते हैं. वे कई संगीत फेस्टिवल और लाइव शोज़ में भी प्रदर्शन कर चुकी हैं. निखिता गांधी को उनकी गायकी के लिए कई पुरस्कार और नामांकनों के लिए भी सराहा गया है, जो उनके समर्पण और प्रतिभा को दर्शाते हैं.
निखिता गांधी ने अपनी निजी जिंदगी को मीडिया से दूर रखा है और वे अपने कैरियर पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं. निखिता गांधी ने भारतीय संगीत उद्योग में एक विशेष स्थान बनाया है और उनकी आवाज़ का जादू दर्शकों को हमेशा मंत्रमुग्ध करता है. उनकी मेहनत और लगन ने उन्हें संगीत के क्षेत्र में एक उभरती हुई स्टार बना दिया है.
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गुरू अमर दास
गुरु अमर दास सिख धर्म के तीसरे गुरु थे और उन्हें सिख धर्म के अनुयायियों द्वारा बहुत सम्मानित किया जाता है. उन्होंने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण कार्य किए, जो सिख धर्म और इसकी संस्कृति को मजबूत करने में सहायक रहे.
गुरु अमर दास का जन्म 5 मई 1479 को वर्तमान पंजाब के गोइंदवाल (अब पंजाब, भारत) में हुआ था. वे एक साधारण परिवार में पैदा हुए थे और अपने परिवार के व्यवसाय में मदद करते थे. अपने प्रारंभिक जीवन में, गुरु अमर दास ने साधारण जीवन जीया, लेकिन उनके जीवन का मोड़ तब आया जब वे गुरु नानक देव जी के प्रति आकर्षित हुए और उन्होंने उन्हें अपनी आध्यात्मिक गुरु के रूप में स्वीकार किया.
गुरु अमर दास ने गुरु अंगद देव जी से शिष्यत्व प्राप्त किया और बाद में 1552 में सिखों के तीसरे गुरु बने. उन्होंने अपने गुरु के कार्यों को आगे बढ़ाने का प्रण लिया और सिख धर्म को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
योगदान: –
सिख धर्म का विस्तार: – उन्होंने सिख धर्म के सिद्धांतों का प्रचार किया और समाज के विभिन्न वर्गों को एकजुट किया. उन्होंने लोगों को जाति और वर्ग भेद के खिलाफ जागरूक किया.
अनासक्ति और सेवा: – गुरु अमर दास ने सिखों को अनासक्त जीवन जीने और दूसरों की सेवा करने की शिक्षा दी. उन्होंने लंगर (सामुदायिक भोजन) की प्रथा को बढ़ावा दिया, जहां सभी जातियों और वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ भोजन करते थे.
शिक्षा: – उन्होंने शिक्षा के प्रति विशेष ध्यान दिया और सिख समुदाय के लिए पाठशालाएं स्थापित कीं. उनके समय में, कई संत और धार्मिक विचारक उनके साथ आए, जिन्होंने सिख धर्म की नींव को मजबूत किया.
ग्रंथों की रचना: – गुरु अमर दास ने “अडी ग्रंथ” नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें उन्होंने सिख धर्म के मूल सिद्धांतों को संकलित किया.
स्वर्ण मंदिर की नींव: – गुरु अमर दास ने स्वर्ण मंदिर के निर्माण के लिए स्थान निर्धारित किया, जो बाद में गुरु अर्जुन देव जी द्वारा पूरा किया गया.
गुरु अमर दास का निधन 1 सितंबर 1574 को हुआ. उनकी शिक्षाएं और उनके द्वारा स्थापित प्रथाएं आज भी सिख धर्म के अनुयायियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं. उन्हें सिख इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है, और उन्हें “गुरु अमर दास जी” के नाम से भी सम्मानित किया जाता है.
गुरु अमर दास का जीवन और कार्य सिख धर्म के सिद्धांतों को समझने और उनके प्रचार में महत्वपूर्ण हैं, और उनका योगदान आज भी लोगों के बीच समर्पण, सेवा, और समानता का संदेश फैलाता है.
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जन्म-
- स्वतंत्रता सेनानी एस. सुब्रह्मण्य अय्यर: – एस. सुब्रह्मण्य अय्यर का जन्म 01 अक्टूबर 1842 को मदुरा ज़िले, मद्रास राज्य में हुआ था.
- स्वतंत्रता सेनानी ए. के. गोपालन: – ए. के. गोपालन का जन्म 01 अक्टूबर 1904 को केरल के कन्नूर में हुआ था.
- राजनीतिज्ञ जी.एम.सी. बालायोगी: – जी.एम.सी. बालायोगी का जन्म 01 अक्टूबर 1951 को पूर्वी गोदावरी ज़िला, आंध्र प्रदेश के कोनासीमा क्षेत्र में गौरवमयी तथा विशाल गोदावरी नदी के किनारे बसे येदुरुलंका नामक एक छोटे से गांव के एक किसान परिवार में हुआ था.
- राजस्थानी साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला: – त्रिलोक सिंह ठकुरेला का जन्म 01 अक्टूबर 1966 को हाथरस के निकट नगला मिश्रिया नामक ग्राम में हुआ था.
निधन-
- क्रांतिकारी चन्दन सिंह गढ़वाली: – क्रांतिकारी चन्दन सिंह गढ़वाली निधन 01 अक्टूबर 1979 को निधन हुआ था.
अन्य-
- डाक टिकट का प्रचलन: – 01 अक्टूबर 1854 से भारत में डाक टिकट का प्रचलन प्रारंभ हुआ था. टिकट पर तत्कालीन महारानी विक्टोरिया का फोटो और भारत बना था और इसकी कीमत आधा आना (1/32 रुपए) थी. यह डाक टिकट लिथोग्राफी पद्धति से छापा गया था.
- हन्टर समिति की स्थापना: – 01 अक्टूबर 1919 को ब्रिटिश सरकार द्वारा हन्टर समिति की स्थापना की गई थी.
- आंध्र प्रदेश राज्य का गठन: – 01 अक्टूबर 1953 को आन्ध्र प्रदेश राज्य के निर्माण के लिए आन्ध्र राज्य का विलय कर हैदराबाद राज्य के तेलंगाना प्रांत से अलग किया गया था.
- शारदा एक्ट 1929 में बदलाव: – 01 अक्टूबर 1978 में शारदा एक्ट 1929 में बदलाव कर लड़कियों की शादी की उम्र को 14 से बढा कर 18 और लड़कों का 18 से बढा कर 21 वर्ष किया गया था. यहीं, वर्ष 2021 में नया विवाह कानून के अंतर्गत यह फैसला लिया गया की अब लड़कियों की शादी की आयु 21 वर्ष की जाएगी.