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व्यक्ति विशेष

भाग – 267.

कवि फ़ैज़ी

कवि फ़ैज़ी (अबुल फ़ैज़ फ़ैज़ी) मुग़ल सम्राट अकबर के दरबारी कवि थे और भारतीय साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. फ़ैज़ी का जन्म 20 सितम्बर 1547 ईस्वी को आगरा के एक मामूली हस्ती के परिवार में हुआ था और वे फारसी साहित्य के महान कवियों में से एक थे. उनकी रचनाओं में फारसी भाषा का गहन ज्ञान और सूफी विचारधारा की झलक मिलती है. फ़ैज़ी न केवल एक कवि थे, बल्कि एक विद्वान और शिक्षा प्रेमी भी थे.

उनकी मुख्य रचनाओं में “तस्फ़ीह-उल-अख़लाक़” और “नल-दमन” प्रमुख हैं. फ़ैज़ी का साहित्यिक योगदान अकबर के काल में फारसी कविता और साहित्य के उत्कर्ष के रूप में देखा जाता है. उन्होंने कई धार्मिक, सामाजिक और दार्शनिक विषयों पर भी लिखा. फ़ैज़ी के छोटे भाई अबुल फ़ज़ल भी अकबर के नौ रत्नों में से एक थे और “आइन-ए-अकबरी” और “अकबरनामा” जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों के लेखक थे.

फ़ैज़ी की मृत्यु 15 अक्टूबर, 1595 को लाहौर में हुआ था. फ़ैज़ी की रचनाएँ उनके समय के सांस्कृतिक और धार्मिक विचारों को दर्शाती हैं, और उनका योगदान भारतीय साहित्य और संस्कृति में अमूल्य माना जाता है.

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संत श्री नारायण गुरु

संत श्री नारायण गुरु एक महान समाज सुधारक, आध्यात्मिक गुरु और दार्शनिक थे, जिन्होंने केरल, भारत में सामाजिक और धार्मिक सुधारों के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया.  उनका जन्म वर्ष 1855 को केरल के तिरुवनंतपुरम जिले के चेम्पाझन्थी नामक गांव में हुआ था. वे एक निम्न जाति (एझावा) से थे, जो उस समय सामाजिक और धार्मिक रूप से शोषित थी. नारायण गुरु ने अपने जीवन को सामाजिक समानता, जातिवाद के खिलाफ संघर्ष और आत्मज्ञान की खोज में समर्पित किया.

नारायण गुरु ने जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई. उन्होंने कहा कि “एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर है, मानवता के लिए” (ओरु जाति, ओरु मथम, ओरु दैवम, मानवम). यह उनका सबसे प्रसिद्ध उद्धरण है, जो सभी मनुष्यों की समानता और धार्मिक एकता का प्रतीक है.

नारायण गुरु ने उन जातियों के लिए मंदिरों का निर्माण किया, जिन्हें उस समय के मुख्य हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी. उन्होंने 1888 में शिव का एक मंदिर अरुविपुरम में स्थापित किया, जिससे जाति आधारित धार्मिक प्रतिबंधों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण कदम उठाया. यह मंदिर उनके सुधार आंदोलनों का प्रतीक बन गया.

नारायण गुरु ने शिक्षा के महत्व को समझा और कहा कि शिक्षा ही वह साधन है, जिसके द्वारा समाज के पिछड़े वर्ग अपनी स्थिति सुधार सकते हैं. उन्होंने शिक्षा को जाति और धार्मिक भेदभाव से ऊपर रखा और सभी के लिए इसे सुलभ बनाने का प्रयास किया. वे एक महान दार्शनिक और कवि भी थे. उन्होंने मलयालम, संस्कृत, और तमिल भाषाओं में कई कविताएँ और भक्ति रचनाएँ लिखीं. उनकी रचनाओं में आध्यात्मिकता, वेदांत और समाज सुधार के संदेश होते हैं.

नारायण गुरु ने केवल धार्मिक सुधारों पर ही ध्यान नहीं दिया, बल्कि वे समाज के आर्थिक और राजनीतिक सुधारों के लिए भी काम करते रहे. उन्होंने एक अधिक समतावादी और प्रगतिशील समाज की कल्पना की. संत नारायण गुरु का योगदान केवल केरल या दक्षिण भारत तक ही सीमित नहीं रहा. वे पूरे भारत में सामाजिक सुधार आंदोलनों के प्रतीक बने. उनके विचार और शिक्षाएं आज भी प्रासंगिक हैं और कई संगठनों और आंदोलनों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं, जो समानता और मानवता के लिए कार्य करते हैं.

नारायण गुरु की शिक्षाओं ने समाज के सबसे निचले तबकों के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उन्हें भारत के महान समाज सुधारकों में एक अद्वितीय स्थान दिया. नारायण गुरु का निधन 20 सितम्बर 1928 को हुआ था.

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पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य

पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य (1911-1990) एक महान भारतीय चिंतक, समाज सुधारक, लेखक, और आध्यात्मिक गुरु थे. वे “अखिल विश्व गायत्री परिवार” के संस्थापक और युग निर्माण योजना के प्रवर्तक थे. उनका जीवन समाज के नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए समर्पित था. वे वेद, उपनिषद, गीता और अन्य धार्मिक ग्रंथों के गहरे ज्ञानी थे, और उन्होंने अपनी साधना और लेखन के माध्यम से लाखों लोगों को प्रेरित किया.

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म 20 सितंबर 1911 को उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के आँवलखेड़ा गाँव में हुआ था. बचपन से ही वे धार्मिक और आध्यात्मिक विचारधारा से प्रभावित थे. युवा अवस्था में ही उन्हें स्वामी सर्वदानंद जी से दीक्षा मिली, और उनके मार्गदर्शन में वे आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्त हुए.

वर्ष 1942 में महात्मा गांधी के “भारत छोड़ो आंदोलन” में भाग लेते हुए, उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक सुधारों के लिए भी काम किया. हालांकि, उनका मुख्य कार्यक्षेत्र अध्यात्म और समाज सुधार ही बना रहा. उन्होंने वर्ष 1953 में गायत्री परिवार की स्थापना की, जो आज एक विश्वव्यापी संगठन है. इसका उद्देश्य मानवता की सेवा और आत्मिक जागरण के लिए कार्य करना है. गायत्री मंत्र को उन्होंने साधना और जीवन परिवर्तन का एक साधन बताया. यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू था, जिसमें उन्होंने समाज में नैतिकता, आध्यात्मिकता, और आत्म-निर्माण के लिए एक व्यापक अभियान चलाया. युग निर्माण योजना का उद्देश्य समाज में नैतिक मूल्यों का पुनरुत्थान और एक नया “सतयुग” स्थापित करना था.

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने 3,200 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत और अन्य धार्मिक ग्रंथों पर सरल और व्यावहारिक व्याख्याएँ दी गईं. उनके लेखन में जीवन के हर पहलू को कवर किया गया है, जैसे कि स्वास्थ्य, शिक्षा, नैतिकता, योग, और आत्म-संवर्धन. उन्होंने कहा कि समाज के नैतिक और आध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रत्येक व्यक्ति का संस्कार होना आवश्यक है. उनके विचार में शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि नैतिकता और मानवता के विकास के लिए होना चाहिए.

उन्होंने हरिद्वार में शांतिकुंज आश्रम की स्थापना की, जो आज गायत्री परिवार का मुख्यालय है और जहां आध्यात्मिक साधना, प्रशिक्षण और समाज सुधार कार्य होते हैं. यहाँ लाखों लोग साधना करने और समाज सेवा के कार्यों में भाग लेने आते हैं.

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने समाज सुधार, आत्मिक जागरण, और नैतिकता के उत्थान के लिए एक व्यापक आंदोलन चलाया, जो उनके जीवनकाल के बाद भी जारी है. उनकी शिक्षाएँ आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करती हैं और वे सामाजिक सुधार, आध्यात्मिकता, और विश्व शांति के प्रतीक के रूप में पूजित होते हैं. उनका योगदान भारतीय संस्कृति और समाज में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है.

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स्क्रिप्ट लेखक महेश भट्ट

महेश भट्ट भारतीय सिनेमा के प्रमुख फिल्म निर्माता, निर्देशक, और पटकथा लेखक हैं, जिन्होंने बॉलीवुड में कई यादगार फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया है. उनका जन्म 20 सितंबर 1948 को मुंबई में हुआ था. महेश भट्ट अपने गहरे और संवेदनशील विषयों के लिए जाने जाते हैं, जो अक्सर सामाजिक और व्यक्तिगत मुद्दों पर आधारित होते हैं. वे एक ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने पारिवारिक, सामाजिक, और रोमांटिक फिल्मों से लेकर थ्रिलर और मनोवैज्ञानिक ड्रामा तक विभिन्न शैलियों में काम किया है.

महेश भट्ट की कई फिल्में उनके व्यक्तिगत जीवन और अनुभवों से प्रेरित हैं. उनकी 1982 की फिल्म “अर्थ” एक सशक्त महिला किरदार पर केंद्रित है, और इसमें उनके अपने जीवन के कुछ पहलुओं की झलक मिलती है. यह फिल्म शादी, विवाहेतर संबंधों और आत्म-निर्भरता के विषयों को उठाती है.

महेश भट्ट ने अपनी फिल्मों के जरिए समाज के कई संवेदनशील मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया. “सारांश” (1984) में वृद्धावस्था और जीवन के उद्देश्य जैसे विषयों पर गहराई से विचार किया गया है. इसके अलावा, उन्होंने “जख्म” (1998) जैसी फिल्मों में सांप्रदायिकता और समाज के अन्य जटिल मुद्दों पर काम किया है.

भट्ट ने रोमांटिक और थ्रिलर फिल्मों में भी एक नया अंदाज प्रस्तुत किया. “आशिकी” (1990) और “दिल है कि मानता नहीं” (1991) जैसी फिल्में उनके रोमांटिक शैली के काम की मिसाल हैं. वहीं, “सड़क” (1991) जैसी फिल्म में उन्होंने एक थ्रिलर और भावनात्मक कहानी को एक बेहतरीन अंदाज में पेश किया.

महेश भट्ट ने कई बार हॉलीवुड फिल्मों से प्रेरित होकर स्क्रिप्ट लिखी है. उनकी फिल्म “हम हैं राही प्यार के” और “फुटपाथ” जैसी फिल्में इस बात का उदाहरण हैं. वे पश्चिमी सिनेमा की तकनीकों और कहानियों को भारतीय संदर्भ में ढालने में माहिर रहे हैं.

महेश भट्ट का नाम उन फिल्मकारों में शामिल है, जिन्होंने कई बार बोल्ड और विवादास्पद विषयों को बड़े पर्दे पर लाने का साहस दिखाया. उनकी फिल्म “सड़क 2”, जिसमें वे आध्यात्मिकता और धोखाधड़ी जैसे विषयों को उठाते हैं, एक उदाहरण है.

फिल्में:   अर्थ (1982), सारांश (1984), जख्म (1998), आशिकी (1990), दिल है कि मानता नहीं (1991), सड़क (1991), मर्डर (2004), वो लम्हे (2006).

महेश भट्ट ने 1990 के दशक के बाद निर्देशन से दूरी बना ली, लेकिन उन्होंने प्रोडक्शन और स्क्रिप्ट लेखन में काम करना जारी रखा. उनके बैनर विशेष फिल्म्स ने कई सफल फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें “राज़” और “मर्डर” जैसी हिट फ्रेंचाइजी शामिल हैं। उनकी बेटियाँ पूजा भट्ट और आलिया भट्ट भी बॉलीवुड में सफल अभिनेत्रियाँ हैं.

महेश भट्ट की शैली में जीवन के यथार्थ, संवेदनशीलता, और समाज के गहरे पहलुओं को सरल तरीके से पेश करने की क्षमता ने उन्हें भारतीय सिनेमा में एक अनोखा स्थान दिलाया है.

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स्वतंत्रता सेनानी मोहम्मद बरकतउल्ला

मोहम्मद बरकतउल्ला, जिन्हें बरकतउल्ला भोपाली के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रमुख भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी थे. उनका जन्म 7 जुलाई 1854 को भोपाल, मध्य प्रदेश में हुआ था. उन्होंने भारत की आजादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और विशेष रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अंतरराष्ट्रीय पहलुओं को बढ़ावा देने में अहम योगदान दिया.

बरकतउल्ला भोपाली का प्रारंभिक जीवन भोपाल में बीता, जहाँ उन्होंने शिक्षा प्राप्त की. बाद में, वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए और वहाँ उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े लोगों से संपर्क स्थापित किया. वे स्वदेशी आंदोलन से बहुत प्रभावित थे और अंग्रेजों के खिलाफ संगठित विद्रोह के समर्थक बन गए.

बरकतउल्ला ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलाने का प्रयास किया. वे 1900 की शुरुआत में इंग्लैंड में “इंडियन होमरूल सोसाइटी” में शामिल हुए और बाद में स्वतंत्रता आंदोलन के प्रचार के लिए यूरोप और अमेरिका के कई देशों में सक्रिय रूप से काम किया. उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति समर्थन प्राप्त करने के लिए कई देशों के नेताओं से संपर्क साधा.

मोहम्मद बरकतउल्ला गदर पार्टी के प्रमुख सदस्यों में से एक थे, जो भारतीय स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी आंदोलन चला रही थी. गदर पार्टी का मुख्यालय अमेरिका में था, और इसका उद्देश्य भारत में सशस्त्र विद्रोह के माध्यम से अंग्रेजी शासन को समाप्त करना था. बरकतउल्ला ने इस पार्टी के साथ मिलकर अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों में भारत की आजादी के लिए समर्थन जुटाने का काम किया.

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, मोहम्मद बरकतउल्ला ने अफगानिस्तान में प्रोविजनल गवर्नमेंट ऑफ इंडिया की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह सरकार 1915 में अफगानिस्तान में राजा अमानुल्लाह खान के समर्थन से स्थापित की गई थी. इसमें राजा महेंद्र प्रताप सिंह को राष्ट्रपति और बरकतउल्ला को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था. इस सरकार का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारत में विद्रोह को संगठित करना था.

बरकतउल्ला एक प्रखर लेखक और पत्रकार भी थे. उन्होंने अपने लेखन और भाषणों के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के विचारों का प्रचार किया. वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद की तीखी आलोचना करते थे और भारतीय समाज में स्वाधीनता और स्वाभिमान की भावना को जागृत करने के लिए काम करते थे. उन्होंने कई अखबारों और पत्रिकाओं में लेख लिखे, जिनमें “अल-हिलाल” और “गदर” जैसे पत्र प्रमुख थे.

बरकतउल्ला ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति जर्मनी, तुर्की और अफगानिस्तान जैसे देशों से समर्थन जुटाने का काम किया. उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आवाज उठाई और भारत की आजादी के लिए समर्थन मांगा. मोहम्मद बरकतउल्ला का निधन 20 सितंबर 1927 को सैन फ्रांसिस्को, अमेरिका में हुआ. वे ब्रिटिश शासन के कारण अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भारत लौट नहीं सके, लेकिन उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अपना जीवन समर्पित कर दिया.

मोहम्मद बरकतउल्ला भोपाली का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन क्रांतिकारियों में गिना जाता है जिन्होंने न केवल भारत के भीतर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आजादी की अलख जगाई. उनकी याद में भोपाल में बरकतउल्ला विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, जो उनके सम्मान में है और उनके योगदान को याद दिलाता है.

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एनी बेसेंट

एनी बेसेंट (1847-1933) एक ब्रिटिश-भारतीय समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, महिला अधिकार कार्यकर्ता और थियोसोफिस्ट थीं, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय संस्कृति, शिक्षा और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में अपने उल्लेखनीय योगदान के साथ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी. एनी बेसेंट का जीवन भारतीय समाज और राजनीति के प्रति उनकी गहरी निष्ठा और समर्पण का प्रतीक है.

एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 को लंदन में हुआ था. वे शुरू से ही सामाजिक और धार्मिक मुद्दों में रुचि रखने लगीं और बाद में एक प्रखर लेखिका, वक्ता और एक्टिविस्ट के रूप में प्रसिद्ध हुईं. वर्ष 1870 के दशक में उन्होंने नास्तिकता, नारी अधिकारों, और श्रमिक अधिकारों के लिए इंग्लैंड में आवाज उठाई. वे महिलाओं के मताधिकार और जन्म नियंत्रण के पक्ष में भी जोरदार तरीके से खड़ी हुईं.

वर्ष 1889 में एनी बेसेंट थियोसोफिकल सोसाइटी से जुड़ीं, जो भारतीय और विश्व धर्मों, विज्ञान और आत्मज्ञान की एक संयुक्त विचारधारा पर आधारित संगठन था.  वर्ष 1893 में वे भारत आईं और यहाँ उन्होंने थियोसोफिकल सोसाइटी के आदर्शों को फैलाने का काम शुरू किया. थियोसोफिकल सोसाइटी का मुख्यालय भारत के तमिलनाडु के आद्यार में था, और एनी बेसेंट ने इसके माध्यम से भारतीय संस्कृति, वेदांत, और हिंदू दर्शन को बढ़ावा देने का कार्य किया.

एनी बेसेंट ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए एक महत्वपूर्ण कदम तब उठाया, जब उन्होंने  वर्ष  1916 में होमरूल लीग की स्थापना की. होमरूल लीग का उद्देश्य भारत को ब्रिटिश शासन के तहत ही स्वशासन दिलाना था. यह लीग बाल गंगाधर तिलक के साथ मिलकर काम कर रही थी और पूरे भारत में स्वशासन की माँग को लेकर एक जन आंदोलन खड़ा हुआ.

एनी बेसेंट को 1917 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनने का गौरव प्राप्त हुआ. उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस ने स्वशासन की माँग को मजबूती से उठाया और भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. एनी बेसेंट का कांग्रेस के प्रति योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है.

एनी बेसेंट एक प्रखर लेखिका और पत्रकार भी थीं/ उन्होंने “न्यू इंडिया” नामक एक अखबार शुरू किया, जिसके माध्यम से वे भारतीय स्वतंत्रता, सामाजिक सुधार और शिक्षा के मुद्दों पर लेख लिखती थीं/ उनका लेखन भारतीयों को जागरूक और संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों की कड़ी आलोचना की और स्वशासन की माँग को हर भारतीय तक पहुँचाया.

एनी बेसेंट ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए भी काम किया. उन्होंने शिक्षा के माध्यम से भारतीय युवाओं में राष्ट्रीयता और स्वाभिमान की भावना को जगाने की कोशिश की. वर्ष  1898 में उन्होंने सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की, जो बाद में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का हिस्सा बना. इसके अलावा, उन्होंने महिला शिक्षा और स्त्रियों के सशक्तिकरण के लिए भी काम किया.

एनी बेसेंट भारतीय संस्कृति, धर्म, और सभ्यता की प्रशंसक थीं. उन्होंने भारतीय समाज में हो रहे सामाजिक और धार्मिक सुधारों का समर्थन किया. उनकी विचारधारा में थियोसोफी का गहरा प्रभाव था, जो कि धर्मों और विज्ञान के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टिकोण से भी प्रेरित किया.

एनी बेसेंट का निधन 20 सितंबर 1933 को भारत के मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ. उनका जीवन और कार्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार के प्रति उनकी अद्वितीय प्रतिबद्धता का प्रतीक है. उनके द्वारा स्थापित संस्थाएँ, जैसे कि थियोसोफिकल सोसाइटी और उनके द्वारा आरंभ किए गए शैक्षिक प्रयास आज भी उनके योगदान की गवाही देते हैं.

एनी बेसेंट का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उन महान विभूतियों में गिना जाता है, जिन्होंने भारतीय समाज को एक नया दृष्टिकोण और दिशा दी.

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कवयित्री प्रभा खेतान

प्रभा खेतान (1942-2008) एक प्रसिद्ध भारतीय कवयित्री, लेखिका, समाजसेविका, और उद्यमी थीं. वे हिंदी साहित्य में अपनी सशक्त और संवेदनशील लेखनी के लिए जानी जाती हैं. प्रभा खेतान का साहित्य महिलाओं के मुद्दों, उनके संघर्षों और समाज में उनकी भूमिका पर आधारित है. उन्होंने नारीवादी दृष्टिकोण से अपने विचारों को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया और हिंदी साहित्य में अपनी एक खास पहचान बनाई.

प्रभा खेतान का जन्म 1 नवंबर 1942 को राजस्थान के एक मारवाड़ी परिवार में हुआ था. उनका परिवार परंपरागत विचारधारा का था, लेकिन प्रभा खेतान ने सामाजिक और पारिवारिक बंधनों को चुनौती दी और अपनी शिक्षा और कैरियर के प्रति समर्पित रहीं. उन्होंने कलकत्ता (अब कोलकाता) विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की. अपनी साहित्यिक यात्रा के साथ-साथ वे एक सफल उद्यमी भी थीं और महिलाओं के अधिकारों के लिए लगातार कार्य करती रहीं.

प्रभा खेतान का साहित्य समाज में महिलाओं की स्थिति, उनके संघर्ष और उनकी स्वतंत्रता की आवाज़ को उजागर करता है. उनकी लेखनी में महिलाओं के अनुभवों, उनके आंतरिक द्वंद्व और सामाजिक बंधनों का प्रामाणिक चित्रण मिलता है.

प्रभा खेतान की आत्मकथा “अन्या से अनन्या” एक बहुत प्रसिद्ध कृति है. इस आत्मकथा में उन्होंने अपने जीवन के संघर्षों, समाज द्वारा निर्धारित सीमाओं को तोड़ने और एक महिला के रूप में अपने अस्तित्व की खोज का विवरण दिया है. यह किताब नारीवादी दृष्टिकोण से लिखी गई है और इसमें उनके व्यक्तिगत अनुभवों के साथ-साथ समाज में महिलाओं की स्थिति पर भी गहन चिंतन किया गया है.

उन्होंने कई उपन्यास, कहानियाँ और कविताएँ भी लिखीं, जिनमें नारी जीवन, उनके संबंध, और समाज में उनकी भूमिका को केंद्र में रखा गया. उनकी रचनाओं में समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले भेदभाव, उनकी इच्छाओं और उनके संघर्षों को मार्मिकता से प्रस्तुत किया गया है. उनकी कविताओं में संवेदनशीलता और सशक्तता का अनूठा मिश्रण देखने को मिलता है.

प्रभा खेतान ने कई विदेशी साहित्यिक कृतियों का हिंदी में अनुवाद भी किया. उनके अनुवाद कार्य ने भारतीय पाठकों को विश्व साहित्य से परिचित कराया और साहित्यिक दुनिया में उनकी पहचान को और मजबूत किया.

प्रभा खेतान सिर्फ एक लेखिका ही नहीं थीं, बल्कि समाजसेविका के रूप में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया. वे नारी सशक्तिकरण की समर्थक थीं और उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए बहुत काम किया. वे “प्रभा खेतान फाउंडेशन” की संस्थापक थीं, जो समाज में शिक्षा, कला और संस्कृति के विकास के लिए कार्यरत है. यह संस्था महिलाओं के कल्याण और शिक्षा के क्षेत्र में भी काम करती है.

साहित्य के अलावा, प्रभा खेतान ने व्यावसायिक क्षेत्र में भी अपने लिए एक मजबूत पहचान बनाई. वे कोलकाता में एक सफल उद्यमी के रूप में जानी जाती थीं, जहाँ उन्होंने चमड़े के व्यवसाय में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल कीं. एक महिला उद्यमी के रूप में उन्होंने इस उद्योग में अपनी अलग पहचान बनाई, जो आमतौर पर पुरुष-प्रधान क्षेत्र माना जाता था.

प्रभा खेतान को उनके साहित्यिक और सामाजिक योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. उन्होंने अपनी लेखनी और सामाजिक कार्यों के माध्यम से न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि समाज में महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए भी अथक प्रयास किया.

प्रभा खेतान का निधन 19 सितंबर 2008 को हुआ. उनका जीवन संघर्ष, सफलता और समाज में महिलाओं के अधिकारों के लिए प्रेरणा का प्रतीक है.उनकी लेखनी और समाजसेवा के कार्य आज भी महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं. प्रभा खेतान का साहित्य और जीवन नारी सशक्तिकरण और समाज में उनके योगदान के लिए हमेशा याद रखा जाएगा.

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निर्देशक दिनेश ठाकुर

दिनेश ठाकुर (1947-2012) एक प्रसिद्ध भारतीय फिल्म और रंगमंच निर्देशक, अभिनेता, और लेखक थे. उन्होंने मुख्य रूप से हिंदी सिनेमा और थिएटर में काम किया और अपने अभिनय तथा निर्देशन के लिए मशहूर रहे. दिनेश ठाकुर का रंगमंच के क्षेत्र में योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जहाँ उन्होंने अपने थिएटर ग्रुप “अंख” के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाने का प्रयास किया.

दिनेश ठाकुर का जन्म 1947 में राजस्थान में हुआ था. वे शुरुआत से ही रंगमंच और कला की ओर आकर्षित थे और बाद में उन्होंने इस क्षेत्र में एक सक्रिय भूमिका निभाई. उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत थिएटर से की और जल्द ही हिंदी सिनेमा में भी अपनी पहचान बनाई.

दिनेश ठाकुर ने फिल्मों में अपने कैरियर की शुरुआत 1970 के दशक में की. वे एक संवेदनशील और गंभीर अभिनेता के रूप में पहचाने गए. उनके अभिनय में एक गहरी समझ और सरलता दिखाई देती थी, जिसने उन्हें एक अलग पहचान दिलाई. उन्होंने “रजनीगंधा” (1974) जैसी फिल्मों में बेहतरीन अभिनय किया, जो एक सुपरहिट फिल्म साबित हुई और इसमें उनके अभिनय की बहुत सराहना हुई. इस फिल्म में उन्होंने एक साधारण, सच्चे और ईमानदार व्यक्ति की भूमिका निभाई, जो अपने सादगी भरे अभिनय के लिए याद की जाती है.

फ़िल्में: –

रजनीगंधा (1974): – यह फिल्म उनकी सबसे प्रसिद्ध फिल्मों में से एक है, जिसमें उनके साधारण और स्वाभाविक अभिनय ने दर्शकों का दिल जीत लिया.

घरौंदा (1977): – इस फिल्म में भी उनके अभिनय को काफी सराहना मिली, जो एक यथार्थवादी और संवेदनशील फिल्म थी.

ममता (1972): – इस फिल्म में भी दिनेश ठाकुर ने अपने अभिनय की छाप छोड़ी.

दिनेश ठाकुर का थिएटर में योगदान बहुत महत्वपूर्ण रहा है. उन्होंने “अंख” नामक थिएटर ग्रुप की स्थापना की, जो मुंबई में एक प्रमुख रंगमंच समूह के रूप में जाना जाता है. उनके निर्देशन में इस ग्रुप ने कई सफल नाटकों का मंचन किया, जिनमें से अधिकांश सामाजिक मुद्दों पर आधारित थे. दिनेश ठाकुर का मानना था कि थिएटर सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं है, बल्कि यह समाज में जागरूकता लाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है. उन्होंने अपनी थिएटर प्रस्तुतियों के माध्यम से समाज में व्याप्त सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया.

दिनेश ठाकुर ने अपने थिएटर ग्रुप “अंख” के माध्यम से कई नाटकों का निर्देशन किया. वे नाट्य लेखन और निर्देशन में भी निपुण थे और उनके द्वारा प्रस्तुत नाटक सादगी और गहराई का अद्भुत मिश्रण होते थे. उनके नाटकों में मानवीय संवेदनाएँ और सामाजिक मुद्दे प्रमुखता से उभर कर सामने आते थे.

दिनेश ठाकुर का निजी जीवन भी कला के प्रति समर्पण से भरा हुआ था. उन्होंने अपने जीवन को कला और रंगमंच को समर्पित किया और अपने काम के माध्यम से कई युवा कलाकारों को प्रेरित किया. उनका योगदान रंगमंच की दुनिया में हमेशा याद किया जाएगा. उनका निधन 20 सितंबर 2012 को हुआ, लेकिन उनके द्वारा स्थापित थिएटर ग्रुप और उनके नाटक आज भी उनकी स्मृति को जीवित रखते हैं.

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अभिनेत्री शकीला

शकीला एक भारतीय अभिनेत्री थीं, जिन्होंने 1950 – 60 के दशक में हिंदी सिनेमा में अपनी पहचान बनाई. वे अपनी खूबसूरती और अभिनय की सादगी के लिए जानी जाती थीं. खासतौर पर उनके द्वारा निभाए गए किरदारों ने उस दौर के सिनेमा प्रेमियों पर गहरी छाप छोड़ी.

शकीला का जन्म 1 जनवरी 1935 को हुआ था. वे एक फिल्मी परिवार से थीं और उनकी बहन नूर भी एक अभिनेत्री थीं. शकीला ने छोटी उम्र में ही फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा और जल्द ही अपनी सुंदरता और प्रतिभा से लोगों का दिल जीत लिया.

शकीला ने 1950 के दशक में अपनी पहली फिल्म से अभिनय की दुनिया में प्रवेश किया. हालांकि उनका फिल्मी सफर बहुत लंबा नहीं रहा, लेकिन इस दौरान उन्होंने कई हिट फिल्में दीं. वे विशेष रूप से अपने ग्लैमरस और खूबसूरत किरदारों के लिए जानी जाती थीं.

फिल्में: –

“आर पार” (1954): – गुरु दत्त के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने शकीला को बॉलीवुड में एक पहचान दिलाई. फिल्म का गाना “बाबूजी धीरे चलना” आज भी क्लासिक गानों में गिना जाता है, जिसमें शकीला पर यह गीत फिल्माया गया था.

“CID” (1956): – इस फिल्म में उन्होंने एक अहम भूमिका निभाई और यह फिल्म सुपरहिट रही. इसमें गुरु दत्त, देव आनंद और वहीदा रहमान के साथ काम करने का मौका मिला.

“चीनी जेजी” (1953): शकीला को इस फिल्म में भी यादगार किरदार निभाते देखा गया.

“राजरानी महल”: – यह फिल्म भी उस समय के सफल फिल्मों में से एक थी.

शकीला मुख्यत रोमांटिक और ग्लैमरस किरदारों में नजर आईं, और उनकी फिल्मों में उनके गाने और डांस नंबर्स बहुत लोकप्रिय रहे. उन्होंने देव आनंद और गुरु दत्त जैसे बड़े कलाकारों के साथ काम किया और उस समय की प्रमुख अभिनेत्रियों में शामिल हो गईं. वर्ष 1960 के दशक के अंत में शकीला ने फिल्म इंडस्ट्री से सन्यास ले लिया. उन्होंने अपने कैरियर को अलविदा कहकर एक साधारण जीवन को चुना और अपने परिवार के साथ समय बिताने लगीं.

शकीला का निधन 20 सितंबर 2017 को मुंबई में हुआ. उन्हें भारतीय सिनेमा में उनके योगदान के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा. उनकी फिल्मों और गानों ने उन्हें बॉलीवुड के सुनहरे दौर की एक प्रमुख अभिनेत्री के रूप में अमर कर दिया है.

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