बाजीराव प्रथम
बाजीराव प्रथम (1700-1740) मराठा साम्राज्य के एक महान पेशवा (प्रधान मंत्री) थे, जिन्हें मराठा साम्राज्य के सबसे प्रतिभाशाली सेनापतियों में से एक माना जाता है. उन्होंने अपने जीवनकाल में एक भी युद्ध नहीं हारा, और अपने अभियानों के दौरान मराठा साम्राज्य का विस्तार उत्तर और दक्षिण भारत में किया
बाजीराव प्रथम का जन्म 18 अगस्त 1700 को भिंगार, महाराष्ट्र में हुआ था और उनकी मृत्यु 28 अप्रैल 1740, रावेरखंडी, मध्य प्रदेश (वर्तमान में खरगोन जिला) में हुआ. उनके पिता का नाम बालाजी विश्वनाथ था जो पहले मराठा पेशवा थे और उनकी माता का नाम राधाबाई था बाजीराव प्रथम की पत्नी का नाम काशीबाई, मस्तानी है. उनके दो पुत्र थे बालाजी बाजीराव, रघुनाथराव.
बाजीराव की सैन्य रणनीति और चतुराई के कारण मराठा साम्राज्य की शक्ति उत्तरी भारत में बढ़ी. उन्होंने मुग़ल साम्राज्य को कमजोर किया और मराठाओं को एक प्रमुख शक्ति के रूप में स्थापित किया. उन्होंने नर्मदा से लेकर उत्तर भारत तक मराठाओं का प्रभाव फैलाया. उनके कुछ प्रसिद्ध युद्धों में पालखेड (1728), मालवा और गुजरात में अभियानों का नेतृत्व शामिल है.
बाजीराव का मस्तानी के साथ प्रेम संबंध बहुत प्रसिद्ध है. मस्तानी उनकी दूसरी पत्नी थीं, और उनकी कहानी भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. बाजीराव प्रथम की मृत्यु 1740 में 40 वर्ष की आयु में हुई. उनकी अचानक मृत्यु ने मराठा साम्राज्य के इतिहास को गहराई से प्रभावित किया. उन्हें महान योद्धा और एक दूरदर्शी नेता के रूप में याद किया जाता है.
बाजीराव प्रथम की विरासत उनके बेटे, बालाजी बाजीराव (नाना साहेब) ने संभाली, जो उनके बाद पेशवा बने.
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राघोबा
राघोबा, जिन्हें राघुनाथ राव भी कहा जाता है, मराठा साम्राज्य के एक प्रमुख और विवादास्पद व्यक्तित्व थे. वे पेशवा बाजीराव प्रथम के छोटे पुत्र थे और नाना साहेब (बालाजी बाजीराव) के छोटे भाई थे. राघोबा का जीवन और कैरियर मराठा इतिहास में महत्वपूर्ण और विवादास्पद रहे हैं. राघोबा का जन्म 18 अगस्त 1734 को महाराष्ट्र में हुआ था. उनके पिता का नाम बाजीराव प्रथम और माता का नाम काशीबाई था. राघोबा की पत्नी का नाम आनंदीबाई था.
पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761) में राघोबा ने भाग लिया था, जो मराठाओं और अहमद शाह अब्दाली के बीच हुई थी. इस युद्ध में मराठाओं की हार हुई, जिसके बाद मराठा साम्राज्य कमजोर हुआ. अपने भाई नाना साहेब की मृत्यु के बाद राघोबा ने पेशवा बनने की कोशिश की. हालांकि, इस प्रयास में उन्हें अपने भतीजे माधवराव प्रथम का विरोध झेलना पड़ा, जो कि मराठा साम्राज्य के चौथे पेशवा बने थे.
राघोबा ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से समर्थन मांगा। वर्ष 1775 में उन्होंने अंग्रेजों के साथ सूरत की संधि की, जिसके माध्यम से अंग्रेजों ने राघोबा को पेशवा बनाने का वादा किया था, लेकिन इस कदम के कारण मराठा सरदारों के बीच उनके खिलाफ विद्रोह हुआ.
राघोबा के पेशवा बनने के प्रयासों के कारण मराठा साम्राज्य में गृहयुद्ध छिड़ गया. अंततः उन्हें पेशवा बनने में सफलता नहीं मिली और उन्हें हाशिये पर रखा गया. राघोबा का जीवन अंततः विफलताओं और विवादों से भरा रहा, और उन्होंने 1783 में निधन हो गया.
राघोबा का जीवन मराठा इतिहास में महत्वाकांक्षाओं, आंतरिक संघर्षों, और ब्रिटिश हस्तक्षेप के कारण महत्वपूर्ण रहा है. उनके प्रयासों ने मराठा साम्राज्य के भीतर गहरे विभाजन और संघर्षों को जन्म दिया, जिसने मराठा शक्ति को कमजोर कर दिया। उनके जीवन को अक्सर मराठा साम्राज्य के पतन की शुरुआत के रूप में देखा जाता है.
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शास्त्रीय गायक विष्णु दिगम्बर पलुस्कर
विष्णु दिगम्बर पलुस्कर (18 अगस्त 1872 – 21 अगस्त 1931) भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक महान गायक और गुरु थे. उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और शास्त्रीय संगीत को जनता तक पहुँचाने के लिए बहुत से प्रयास किए.
विष्णु दिगम्बर पलुस्कर का जन्म 18 अगस्त, 1872 को अंग्रेज़ी शासन वाले बंबई प्रेसीडेंसी के कुरूंदवाड़ (बेलगाँव) में हुआ था और उनकी मृत्यु 21 अगस्त 1931 को हुआ. पलुस्कर को घर में संगीत का माहौल मिला था. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने अपने संगीत की शिक्षा को ग्वालियर के प्रसिद्ध संगीतज्ञों से प्राप्त किया. उन्हें संगीत का गहन ज्ञान था और उन्होंने इसे एक मिशन के रूप में अपनाया. वर्ष 1901 में, उन्होंने लाहौर (अब पाकिस्तान में) में “गांधर्व महाविद्यालय” की स्थापना की, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देने वाला एक प्रमुख संस्थान बन गया. यह महाविद्यालय उनके शास्त्रीय संगीत के प्रसार के संकल्प का एक बड़ा उदाहरण है.
पलुस्कर ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को सामान्य जनता के लिए सुलभ बनाने का प्रयास किया. उन्होंने संगीत को धार्मिक अनुष्ठानों और दरबारों से निकालकर आम लोगों तक पहुँचाया. उन्होंने संगीत में एक नयी दृष्टि दी, जहाँ संगीत को एक साधना और भक्ति का माध्यम माना गया.
पलुस्कर ने कई भजनों और देशभक्ति गीतों की रचना की. उनके द्वारा गाए गए भजन और गीत आज भी भारतीय संगीत में विशेष स्थान रखते हैं. उनका “रघुपति राघव राजा राम” भजन महात्मा गांधी के आंदोलनों के दौरान विशेष रूप से लोकप्रिय हुआ. उन्होंने संगीत शिक्षा के लिए कई पुस्तकें भी लिखीं, जो शास्त्रीय संगीत के सिद्धांतों और प्रैक्टिस पर आधारित थीं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के शिष्य भारतीय शास्त्रीय संगीत में उच्च स्थान रखते हैं. उनके शिष्यों में पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, विनायक राव पटवर्धन, और अन्य प्रमुख संगीतज्ञ शामिल हैं जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत को और आगे बढ़ाया.
विष्णु दिगम्बर पलुस्कर का योगदान भारतीय शास्त्रीय संगीत में अमूल्य है. उन्होंने न केवल शास्त्रीय संगीत को पुनर्जीवित किया बल्कि इसे जनसाधारण तक पहुँचाया. उनके द्वारा स्थापित संगीत की परंपरा आज भी भारतीय शास्त्रीय संगीत में जीवित है, और उनके योगदान को संगीत प्रेमियों द्वारा सम्मानपूर्वक याद किया जाता है.
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स्वतंत्रता सेनानी विजया लक्ष्मी पंडित
विजया लक्ष्मी पंडित (18 अगस्त 1900 – 1 दिसंबर 1990) एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ, और राजनयिक थीं. वे स्वतंत्र भारत की पहली महिला कैबिनेट मंत्री और संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं. वे पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन और इंदिरा गांधी की बुआ थीं. विजया लक्ष्मी पंडित का जन्म 18 अगस्त 1900 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था और उनकी मृत्यु 1 दिसंबर 1990, को देहरादून, उत्तराखंड में हुआ. उनके पिता का नाम मोतीलाल नेहरू था. उनके पति का नाम रणजीत सीताराम पंडित था.
विजया लक्ष्मी पंडित ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया और महात्मा गांधी के नेतृत्व में विभिन्न आंदोलनों में हिस्सा लिया. उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलनों में भाग लिया और कई बार जेल भी गईं. उनके पति, रणजीत सीताराम पंडित, भी स्वतंत्रता सेनानी थे और उनके संघर्ष के दौरान उनका निधन हो गया, जिसके बाद विजया लक्ष्मी पंडित ने स्वतंत्रता आंदोलन में और अधिक सक्रिय भूमिका निभाई.
स्वतंत्रता के बाद, विजया लक्ष्मी पंडित भारत की पहली महिला कैबिनेट मंत्री बनीं. उन्होंने 1946 में उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्वशासन मंत्री के रूप में कार्य किया. वर्ष 1953 में, उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्षता की और ऐसा करने वाली पहली महिला बनीं. इस भूमिका में उन्होंने भारत के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को मजबूती दी. वर्ष 1962 – 64 तक वे महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में भी कार्यरत रहीं.
विजया लक्ष्मी पंडित ने सोवियत संघ, अमेरिका, मैक्सिको, और आयरलैंड में भारत की राजदूत के रूप में कार्य किया. उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत का प्रभावशाली प्रतिनिधित्व किया. वे यूनाइटेड किंगडम में भारतीय उच्चायुक्त भी रहीं, जहाँ उन्होंने ब्रिटेन के साथ भारत के संबंधों को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई.
विजया लक्ष्मी पंडित एक सफल लेखिका भी थीं. उनकी आत्मकथा “द स्कोप ऑफ हैप्पीनेस” (The Scope of Happiness) में उनके जीवन के संघर्ष, राजनीतिक विचार, और अनुभवों का विस्तृत वर्णन है. विजया लक्ष्मी पंडित का जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, राजनीति, और राजनयिक कार्यों में उल्लेखनीय रहा है. वे एक प्रगतिशील और दृढ़ नारीवादी थीं, जिन्होंने महिलाओं के अधिकारों और समानता के लिए भी संघर्ष किया. उनकी विरासत और योगदान भारत के राजनीतिक और सामाजिक इतिहास में अमिट हैं.
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परमवीर चक्र से सम्मानित ए. बी. तारापोरे
लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर बुर्जोर्जी तारापोरे (ए. बी. तारापोरे) भारतीय सेना के एक वीर अधिकारी थे, जिन्हें 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उनके अद्वितीय साहस और वीरता के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था. यह भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान है, जो असाधारण वीरता के लिए दिया जाता है.
अर्देशिर तारापोरे का जन्म 18 अगस्त, 1923 को बम्बई (अब मुम्बई), महाराष्ट्र में हुआ था और उनकी मृत्यु 16 सितंबर 1965, फिल्लौरा, पाकिस्तान (वर्तमान में पंजाब, पाकिस्तान) में हुआ था. लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे 17वाँ हॉर्स (पोएना हॉर्स) के कमांडिंग ऑफिसर थे. वर्ष 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान, उन्हें पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में फिल्लौरा क्षेत्र पर हमला करने का आदेश दिया गया था.
11- 16 सितंबर 1965 के बीच, लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोरे ने अपने टैंक रेजिमेंट को प्रभावी ढंग से नेतृत्व किया. उन्होंने अपनी टुकड़ी को अद्वितीय साहस और दृढ़ता के साथ फिल्लौरा क्षेत्र पर कब्जा करने का निर्देश दिया. इस दौरान उन्होंने दुश्मन के कई टैंकों को नष्ट कर दिया और अपनी टुकड़ी को भारी नुकसान से बचाया. लड़ाई के दौरान उन्हें गंभीर रूप से चोटें आईं, लेकिन उन्होंने अपने सैनिकों का नेतृत्व करना जारी रखा. उनके साहसिक और अदम्य नेतृत्व के कारण भारतीय सेना ने फिल्लौरा में महत्वपूर्ण जीत हासिल की. 16 सितंबर 1965 को, पाकिस्तान द्वारा भारी गोलाबारी में लेफ्टिनेंट कर्नल तारापोरे शहीद हो गए, लेकिन उन्होंने अंतिम क्षण तक अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया और दुश्मन को भारी नुकसान पहुँचाया.
लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे को उनकी असाधारण वीरता और बलिदान के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. यह सम्मान उन्हें भारतीय सेना में उनकी उत्कृष्ट सेवा और देश के प्रति उनके सर्वोच्च बलिदान के लिए दिया गया. लेफ्टिनेंट कर्नल ए. बी. तारापोरे का नाम भारतीय सेना के सबसे वीर और समर्पित सैनिकों में शामिल है. उनका साहस, नेतृत्व, और देशभक्ति आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा बने रहेंगे. उनकी वीरता को न केवल भारतीय सेना में बल्कि पूरे राष्ट्र में सम्मानित किया जाता है.
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गीतकार गुलज़ार
गुलज़ार (संपूर्ण सिंह कालरा) भारतीय सिनेमा के एक प्रतिष्ठित गीतकार, कवि, लेखक, और फिल्म निर्देशक हैं. उनका नाम हिंदी फिल्म उद्योग में साहित्यिक उत्कृष्टता और भावनात्मक गहराई के पर्याय के रूप में जाना जाता है. गुलज़ार की लेखनी में मानवीय संवेदनाओं की बारीकियों को गहराई से उकेरा गया है, और उनकी रचनाओं में विचारशीलता और सरलता का अनूठा मिश्रण है.
गुलज़ार का जन्म 18 अगस्त 1934 को दीना, झेलम जिला, पंजाब (अब पाकिस्तान में) में हुआ था. उनके पिता का नाम माखन सिंह कालरा और माता का नाम सुजेन कौर था. गुलज़ार का परिवार विभाजन के समय भारत आ गया था. उन्होंने मुंबई में आकर अपनी लेखनी को आकार देना शुरू किया।
गुलज़ार ने कई यादगार गीत लिखे हैं, जो आज भी भारतीय सिनेमा में अमर हैं. उनके गीतों में गहरे भाव, सरल भाषा, और दिल को छू लेने वाली संवेदनाएँ शामिल हैं. उनके प्रसिद्ध गीतों में “तुम आए तो आया मुझे याद”, “मुसाफ़िर हूँ यारों”, “तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई”, “आने वाला पल जाने वाला है”, और “तुम पुकार लो” शामिल हैं.
गुलज़ार की लेखनी का अंदाज अनूठा है, जिसमें साहित्यिक दृष्टिकोण और मानवीय अनुभवों की गहन समझ नजर आती है. उन्होंने कई सफल फिल्मों का निर्देशन किया, जिनमें “आंधी” (1975), “मौसम” (1975), “खुशबू” (1975), और “अंगूर” (1982) शामिल हैं. उनकी फिल्मों में सामाजिक और मानवीय मुद्दों को खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है. उनकी फिल्म “माचिस” (1996) ने आतंकवाद के मुद्दे पर गहराई से विचार किया और व्यापक सराहना प्राप्त की.
गुलज़ार एक प्रतिष्ठित कवि भी हैं. उनकी कविताओं में प्रेम, पीड़ा, और सामाजिक मुद्दों को गहराई से उकेरा गया है. उनकी कविताएँ और शायरी विशेष रूप से उनके प्रशंसकों के बीच लोकप्रिय हैं. उन्होंने “रावी पार”, “ड्योढ़ी”, और “चौरस रात” जैसी कहानियाँ और नाटक भी लिखे हैं. उनके साहित्यिक कार्यों को भी साहित्यिक समुदाय में सम्मानित किया गया.
गुलज़ार को उनके योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले हैं, जिनमें कई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, फिल्मफेयर पुरस्कार, और पद्म भूषण (2004) शामिल हैं. वर्ष 2009 में, उन्होंने फिल्म “स्लमडॉग मिलियनेयर” के लिए “जय हो” गीत के लिए ऑस्कर पुरस्कार जीता. उन्होंने “झीलों के शहर” के लिए 2013 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त किया. गुलज़ार ने बच्चों के लिए भी बहुत काम किया है. “जंगल बुक” के “जंगल-जंगल बात चली है” और “एक था गुल और एक थी बुलबुल” जैसी रचनाएँ बच्चों के बीच बेहद लोकप्रिय हैं.
गुलज़ार की रचनाएँ भारतीय सिनेमा और साहित्य में अमूल्य धरोहर हैं. उनकी लेखनी में गहराई, विचारशीलता, और एक अलग तरह की संवेदनशीलता दिखाई देती है. उनकी कविताएँ, गीत, और फिल्में आज भी लोगों के दिलों में गहराई से बसी हुई हैं और वे साहित्य और सिनेमा में एक प्रेरणास्त्रोत बने हुए हैं.
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अभिनेत्री अरुणा ईरानी
अरुणा ईरानी भारतीय सिनेमा की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं, जिन्होंने अपने कैरियर में विभिन्न भूमिकाओं के माध्यम से फिल्म उद्योग में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया है. उन्हें मुख्यतः हिंदी फिल्मों के लिए जाना जाता है, लेकिन उन्होंने मराठी, गुजराती, और कन्नड़ फिल्मों में भी काम किया है. अरुणा ईरानी ने अपने अभिनय कौशल और विविध किरदारों के कारण दर्शकों के बीच खास पहचान बनाई है.
अरुणा ईरानी का जन्म 18 अगस्त 1946 को मुंबई, महाराष्ट्र में हुआ था. उनके पिता का नाम फरीदून ईरानी और माता का नाम सगुना ईरानी था. अरुणा ईरानी के परिवार में फिल्म और थिएटर का माहौल था, जिससे उन्हें अभिनय की प्रेरणा मिली. उनके भाई, इंदर कुमार, भी फिल्म निर्देशक थे.
अरुणा ईरानी ने अपने कैरियर की शुरुआत बहुत कम उम्र में की थी. उन्होंने 1961 में फिल्म “गंगा जमुना” में एक छोटी भूमिका से अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत की. वर्ष 1960 – 70 के दशक में, उन्होंने कई फिल्मों में सहायक अभिनेत्री, हास्य कलाकार, और नर्तकी के रूप में काम किया. उनकी अभिनय और नृत्य प्रतिभा ने उन्हें तेजी से लोकप्रियता दिलाई.
प्रमुख फिल्में: – “कारवां” (1971), “बॉबी” (1973), “जवानी दीवानी” (1972), और “चला मुसद्दी ऑफिस ऑफिस” जैसी कई हिट फिल्मों में काम किया. फिल्म “बॉबी” में उनकी भूमिका को विशेष रूप से सराहा गया, जिसमें उन्होंने रिचा शर्मा की माँ का किरदार निभाया. वर्ष 1980 के दशक में उन्होंने “बेटा” (1992) में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके लिए उन्हें फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार मिला.
अरुणा ईरानी ने अपने कैरियर में हर प्रकार की भूमिकाएँ निभाई हैं, चाहे वह नकारात्मक किरदार हो, कॉमेडी, या फिर मातृभूमिका. उन्होंने कई बार नकारात्मक किरदार निभाए, जिनमें उनकी भूमिकाएँ खासतौर पर यादगार रहीं. अरुणा ईरानी ने टेलीविजन में भी अपनी पहचान बनाई. उन्होंने कई टेलीविजन धारावाहिकों में काम किया है, जिनमें “देख भाई देख,” “ज्योति,” और “देश में निकला होगा चाँद” प्रमुख हैं. वे टेलीविजन प्रोडक्शन में भी सक्रिय रही हैं और उन्होंने कई धारावाहिकों का निर्माण किया है.
अरुणा ईरानी को उनके योगदान के लिए कई पुरस्कार मिले हैं, जिनमें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड शामिल हैं. उन्हें फ़िल्मफ़ेयर में सात बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के लिए नामांकित किया गया और तीन बार यह पुरस्कार जीता. अरुणा ईरानी की गिनती भारतीय सिनेमा की महान अभिनेत्रियों में की जाती है. अपने बहुआयामी किरदारों और अभिनय कौशल के कारण उन्होंने दर्शकों के दिलों में एक विशेष स्थान बनाया है. उनकी रचनात्मकता और दृढ़ता ने उन्हें फिल्म और टेलीविजन दोनों में एक प्रमुख स्थान दिलाया है.
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अभिनेत्री प्रीति झंगियानी
प्रीति झंगियानी एक भारतीय अभिनेत्री और मॉडल हैं, जो 2000 के दशक की शुरुआत में बॉलीवुड में अपनी पहचान बनाने के लिए जानी जाती हैं. उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत मॉडलिंग से की और बाद में फिल्मों में अभिनय किया, जिसमें उन्होंने अपने मासूम और खूबसूरत अंदाज से दर्शकों का दिल जीता.
प्रीति झंगियानी का जन्म 18 अगस्त 1980 को मुंबई, महाराष्ट्र में हुआ था. उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा मुंबई से पूरी की और उसके बाद कॉलेज की पढ़ाई की. प्रीति झंगियानी ने अपने कैरियर की शुरुआत मॉडलिंग से की. वे “राजश्री प्रोडक्शन” द्वारा निर्मित संगीत वीडियो “याद पिया की आने लगी” (फाल्गुनी पाठक के गीत) में नजर आईं, जो काफी लोकप्रिय हुआ और उन्हें रातोंरात स्टार बना दिया.
प्रीति झंगियानी ने बॉलीवुड में अपनी शुरुआत 2000 में सुपरहिट फिल्म “मोहब्बतें” से की, जिसमें उन्होंने कंचन की भूमिका निभाई. यह फिल्म एक बड़ी हिट साबित हुई और इसके बाद प्रीति को काफी पहचान मिली. उन्होंने बाद में कई फिल्मों में काम किया, जिनमें “अवारा पागल दीवाना” (2002), “नायक: द रियल हीरो” (2001), और “चाँद के पार चलो” (2006) शामिल हैं. उन्होंने हिंदी के अलावा कुछ तेलुगु, तमिल, पंजाबी, और मलयालम फिल्मों में भी काम किया.
प्रीति झंगियानी ने 2008 में अभिनेता और मॉडल प्रवीण डबास से शादी की. उनके दो बेटे हैं. उन्होंने अपने परिवार और निजी जीवन को प्राथमिकता देने के लिए फिल्मों से दूरी बना ली, लेकिन वे अब भी इंडस्ट्री में सक्रिय हैं और समय-समय पर फिल्मों और इवेंट्स में दिखाई देती हैं.
प्रीति झंगियानी की मासूमियत और खूबसूरती ने उन्हें बॉलीवुड में एक अलग पहचान दिलाई. “मोहब्बतें” जैसी सफल फिल्मों में उनके अभिनय ने उन्हें दर्शकों के बीच लोकप्रिय बनाया. अपने निजी जीवन में खुशहाल रहते हुए, उन्होंने एक संतुलित कैरियर बनाए रखा है और समय-समय पर फिल्म इंडस्ट्री में सक्रिय रही हैं.
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सुभाष चन्द्र बोस
सुभाष चन्द्र बोस (23 जनवरी 1897 – 18 अगस्त 1945) भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी और राष्ट्रवादी नेता थे. उन्हें “नेताजी” के नाम से जाना जाता है. उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष किया और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक प्रमुख भूमिका निभाई. सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक, ओडिशा में हुआ था. उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस था जो कि एक प्रतिष्ठित वकील थे और उनकी माता का नाम प्रभावती देवी था.
सुभाष चन्द्र बोस की प्रारंभिक शिक्षा कटक के रेवेन्सॉ कॉलेजिएट स्कूल में हुई. बाद में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक किया और फिर भारतीय सिविल सेवा (ICS) की तैयारी के लिए इंग्लैंड गए. उन्होंने 1920 में आईसीएस की परीक्षा पास की, लेकिन देशभक्ति की भावना के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए.
सुभाष चन्द्र बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक प्रभावशाली नेता थे. वे महात्मा गांधी के अहिंसक दृष्टिकोण के विरोधी थे और मानते थे कि स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष आवश्यक है. उन्होंने 1938 – 39 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया. लेकिन गांधीजी और कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ विचारधारात्मक मतभेदों के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया और अपनी अलग पार्टी “फॉरवर्ड ब्लॉक” की स्थापना की.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, सुभाष चन्द्र बोस ने ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए जर्मनी और जापान से समर्थन मांगा. उन्होंने जापान की सहायता से “आजाद हिंद फौज” (Indian National Army – INA) का गठन किया. इस सेना ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ पूर्वोत्तर भारत और बर्मा (अब म्यांमार) में संघर्ष किया. बोस ने “दिल्ली चलो” का नारा दिया और INA के साथ भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया. 21 अक्टूबर 1943 को, सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर में “आजाद हिंद सरकार” की स्थापना की और स्वयं उसके प्रधानमंत्री बने. यह सरकार भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत रही.
सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के बारे में कई विवाद और रहस्य हैं. आधिकारिक तौर पर माना जाता है कि 18 अगस्त 1945 को ताइवान में एक हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई थी, लेकिन इस घटना के बारे में कई प्रश्न और अटकलें आज भी जारी हैं. कई लोग मानते हैं कि वे दुर्घटना में जीवित बच गए थे और उनका बाद का जीवन गुप्त रूप से व्यतीत हुआ.
सुभाष चन्द्र बोस की देशभक्ति, साहस, और आत्मसमर्पण की भावना ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महानायक बना दिया है. उनका “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” का नारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया है. उनकी विरासत आज भी भारत में सम्मानित है, और उन्हें देश के सबसे महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक माना जाता है.