व्यक्ति विशेष – 720.
स्वामी शिवानन्द
स्वामी शिवानन्द रामकृष्ण मिशन के दूसरे संघाध्यक्ष थे. उनके भक्त उन्हें महापुरुष महाराज (महान आत्मा) के रूप में पुकारते हैं. वे रामकृष्ण परमहंस के प्रत्यक्ष शिष्य थे.
स्वामी शिवानन्द का जन्म 16 दिसंबर 1854 को बरसात ग्राम, पश्चिम बंगाल में हुआ था. उनके पूर्व का नाम तारकनाथ घोषाल था. युवावस्था में ही, उनका झुकाव आध्यात्मिक जीवन की ओर हो गया था. वर्ष 1880 के दशक में तारकनाथ दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण परमहंस से मिले. रामकृष्ण ने तुरंत ही तारकनाथ की आध्यात्मिक क्षमता को पहचान लिया और उन्हें अपना शिष्य बना लिया. गुरु के सान्निध्य में, उन्होंने तीव्र साधना की और सभी सांसारिक बंधनों का त्याग कर दिया.
रामकृष्ण परमहंस की महासमाधि के बाद, वह स्वामी विवेकानन्द (तब नरेन्द्रनाथ) के साथ बरानगर मठ में रहे और संन्यास ग्रहण किया. संन्यास लेने के बाद, स्वामी शिवानन्द ने भारत भर में एक परिव्राजक (घुमक्कड़ साधु) के रूप में यात्रा की. उन्होंने कठोर तपस्या करते हुए हिमालय और अन्य पवित्र स्थानों की यात्राएँ कीं. इन यात्राओं ने उनके आध्यात्मिक अनुभव को और गहरा किया और उन्हें उच्च कोटि का साधक बना दिया. जब स्वामी विवेकानन्द पश्चिम से लौटे और रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, तो स्वामी शिवानन्द ने अपने गुरु भाइयों के साथ संघ के शुरुआती कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाई.
स्वामी विवेकानन्द के पश्चात, स्वामी ब्रह्मानन्द (प्रथम संघाध्यक्ष) ने वर्ष 1922 में महासमाधि ली. इसके बाद, स्वामी शिवानन्द जी को सर्वसम्मति से रामकृष्ण मठ और मिशन का दूसरा संघाध्यक्ष चुना गया.अपने 12 वर्ष के कार्यकाल में, उन्होंने संघ का नेतृत्व बड़ी ही करुणा, धैर्य और आध्यात्मिकता के साथ किया. उनका शांत और सौम्य व्यक्तित्व सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत था.उन्होंने हजारों भक्तों और युवा साधकों को संन्यास और ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी, जिससे संघ की अगली पीढ़ी का निर्माण हुआ.
स्वामी शिवानन्द को भक्त ‘महापुरुष महाराज’ कहते थे. क्यूंकि, भक्तों और साधकों को उनकी उपस्थिति में ही असीम शांति और आध्यात्मिक प्रेरणा का अनुभव होता था. स्वामी शिवानन्द ने 20 फरवरी 1934 को बेलूर मठ में महासमाधि ली.उनका जीवन त्याग, तपस्या, प्रेम और सेवा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है.
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पुरातत्त्ववेत्ता दयाराम साहनी
दयाराम साहनी एक प्रसिद्ध भारतीय पुरातत्त्ववेत्ता थे, जिन्होंने भारतीय पुरातत्त्व के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. वह खास तौर पर हड़प्पा सभ्यता के अध्ययन के लिए जाने जाते हैं. दयाराम साहनी ने वर्ष 1921 में हड़प्पा की खुदाई की अगुवाई की थी, जो भारतीय पुरातत्त्व इतिहास में एक मील का पत्थर है. इस खुदाई के दौरान, उन्होंने हड़प्पा सभ्यता के कई महत्वपूर्ण अवशेषों की खोज की, जिससे हड़प्पा सभ्यता की वास्तविक प्रकृति और संरचना के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई.
पुरातत्त्ववेत्ता दयाराम साहनी का जन्म 16 दिसंबर 1879 को पंजाब, आज़ादी पूर्व भारत में हुआ था और उनका निधन 7 मार्च 1939 को जयपुर, राजस्थान में हुआ.
दयाराम साहनी का काम हड़प्पा सभ्यता और उसके लोगों के जीवन, उनकी सामाजिक संरचना, आर्थिक गतिविधियों और कलात्मक अभिव्यक्तियों को समझने में अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ. उनके काम ने न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में पुरातत्ववेत्ताओं के लिए नए अध्यायों को खोला और इस क्षेत्र में नई खोजों का मार्ग प्रशस्त किया. उनके योगदान को भारतीय पुरातत्त्व शास्त्र में बहुत महत्व दिया जाता है और उन्हें इस क्षेत्र में एक अग्रणी माना जाता है.
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मुक्केबाज हवा सिंह
भारत के सर्वश्रेष्ठ मुक्केबाजों में से एक थे हवा सिंह.एक ऐसा नाम है, जो भारी वजन वर्ग में भारत के दबदबे और असाधारण दृढ़ संकल्प के प्रतीक थे. उनका कैरियर न केवल व्यक्तिगत सफलताओं से भरा था, बल्कि उन्होंने भारतीय खेल परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी.
हवा सिंह का जन्म 16 दिसंबर, 1937 को हरियाणा के भिवानी जिले के उमरा गाँव में हुआ था. वर्ष 1956 में वे भारतीय सेना की 9वीं मराठा लाइट इन्फेंट्री में शामिल हुए. सेना ने उन्हें अपनी प्रतिभा को निखारने का मौका और मंच दिया, यहीं से उनके मुक्केबाजी कैरियर की शुरुआत हुई थी.
हवा सिंह का सबसे प्रभावशाली रिकॉर्ड राष्ट्रीय मुक्केबाजी चैंपियनशिप में है. उन्होंने 11 बार लगातार (1960 से 1972 तक) राष्ट्रीय हैवीवेट चैम्पियनशिप का खिताब जीता, जो आज तक एक अभूतपूर्व रिकॉर्ड है. उन्होंने एशियाई खेलों में भारत को दो ऐतिहासिक स्वर्ण पदक मिला. उनकी अभूतपूर्व उपलब्धियों के लिए, भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1966 में देश के सर्वोच्च खेल सम्मान अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया.
हवा सिंह का निधन 14 अगस्त, 2000 को हुआ था. मरणोपरांत उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया, जो कोचिंग में उनकी उत्कृष्टता को दर्शाता है. हवा सिंह का जीवन और करियर भारतीय मुक्केबाजों की भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है.
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सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल
भारतीय सेना के उन सबसे कम उम्र के अधिकारियों में से एक थे सेकेंड लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल. जिन्होंने वर्ष 1971 के भारत-पाक युद्ध में अदम्य साहस का परिचय देते हुए वीर गति को प्राप्त किया उन्हें, भारत के सर्वोच्च सैन्य अलंकरण, परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया है.
अरुण खेत्रपाल का जन्म 14 अक्टूबर 1950 को पुणे, महाराष्ट्र में एक सैन्य परिवार में हुआ था. उनके पिता, लेफ्टिनेंट कर्नल एम. एल. खेत्रपाल, भी भारतीय सेना में थे. अरुण ने वर्ष 1971 में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी और भारतीय सैन्य अकादमी से प्रशिक्षण पूरा कर 17 पूना हॉर्स रेजिमेंट में सेकेंड लेफ़्टिनेंट के रूप में कमीशन प्राप्त किये.
दिसंबर 1971 में, भारत-पाक युद्ध के दौरान, 17 पूना हॉर्स को जम्मू और कश्मीर के शाकरगढ़ सेक्टर में बसंतर नदी क्षेत्र में तैनात किया गया था. 16 दिसंबर 1971 को, सेकेंड लेफ़्टिनेंट खेत्रपाल की टुकड़ी को एक पुल-शीर्ष स्थापित करने का काम सौंपा गया था. इस दौरान, पाकिस्तानी बख्तरबंद बल ने एक बड़ा जवाबी हमला किया. लेफ्टिनेंट खेत्रपाल, अपने सेंचुरियन टैंक ‘फम्मा’ में सवार थे. उन्होंने दुश्मन के दो टैंकों को नष्ट करके हमलावर पाकिस्तानी सैनिकों को चौंका दिया.
इस प्रक्रिया में, उनके टैंक को निशाना बनाया गया और उसमें आग लग गई और अपने कमांडर से पीछे हटने का आदेश मिलने के बावजूद भी उन्होंने जलते हुए टैंक में रहते हुए भी एक और पाकिस्तानी टैंक को नष्ट कर दिया. इसके तुरंत बाद, एक और दुश्मन के गोले ने उनके टैंक को भेद दिया और 16 दिसंबर 1971 को वह युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त हुए. उनके बलिदान ने पाकिस्तानी हमले को विफल करने और भारतीय सेना को बसंतर क्षेत्र में महत्वपूर्ण बढ़त दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाई.
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हॉकी खिलाड़ी रूप सिंह
हॉकी का जिक्र आते ही सबसे पहले जो नाम आता है वो हैं मेजर ध्यानचंद. लेकिन, दुसरा नाम मेजर ध्यानचंद के दूसरे भाई रूप सिंह जिन्हें हॉकी के ‘चाँद’ कहा जाता था. वे विश्व हॉकी के सबसे महान इनसाइड-लेफ्ट फॉरवर्ड खिलाड़ियों में से एक माना जाता है, जिनकी गति, अद्भुत गेंद नियंत्रण और गोल करने की क्षमता बेजोड़ थी.
रूप सिंह का जन्म 8 सितंबर 1908 को जबलपुर (तत्कालीन मध्य प्रांत) में हुआ था. वह एक ऐसे परिवार से आए थे जिसने भारतीय खेल को एक नहीं, बल्कि दो महान खिलाड़ी दिए. अपने बड़े भाई ध्यानचंद की तरह, रूप सिंह ने भी सेना में रहते हुए हॉकी खेलना शुरू किया और बहुत जल्द ही अपनी असाधारण प्रतिभा से ध्यान आकर्षित किया.
रूप सिंह भारतीय राष्ट्रीय हॉकी टीम के सदस्य थे जिसने वर्ष 1932 लॉस एंजिल्स ओलंपिक और वर्ष 1936 बर्लिन ओलंपिक में लगातार दो स्वर्ण पदक जीते थे. उनकी अविश्वसनीय गति, फिनिशिंग की सटीकता और ध्यानचंद के साथ उनकी शानदार तालमेल के लिए जाना जाता था. उनके और बड़े भाई ध्यानचंद के बीच मैदान पर ऐसी समझ थी कि गेंद उनके स्टिक के साथ एक जादू की तरह नाचती थी.
रूप सिंह ने 16 दिसंबर 1977 को दुनिया को अलविदा कहा. उनका योगदान भारतीय हॉकी के स्वर्णिम युग का एक अभिन्न अंग है. ध्यानचंद जहाँ भारतीय हॉकी के ‘जादूगर’ थे, वहीं रूप सिंह उनकी टीम के सबसे घातक स्ट्राइकर थे, जिनकी गोल स्कोरिंग क्षमता ने भारत को विश्व हॉकी के शिखर पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.



