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व्यक्ति विशेष– 700.

वैज्ञानिक यशपाल

भारत के एक प्रख्यात भौतिक विज्ञानी, शिक्षाविद, और संस्था निर्माता थे प्रोफेसर यशपाल. वह एक ऐसे वैज्ञानिक थे जिन्होंने विज्ञान को केवल प्रयोगशाला तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे आम जनता और शिक्षा के सुधार से जोड़ा. प्रोफेसर यशपाल का जन्म 26 नवंबर 1926 को झांग (तत्कालीन ब्रिटिश भारत, अब पाकिस्तान) में हुआ था. उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से भौतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर (1949) की उपाधि प्राप्त की और बाद में मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से भौतिकी में पीएचडी (1958) पूरी की.

प्रो. यशपाल ने अपने कैरियर की शुरुआत टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च  से की, जहाँ उन्होंने कॉस्मिक किरणों  के अध्ययन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया. वे भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम में एक प्रमुख व्यक्ति थे. प्रो. यशपाल को वर्ष 1973 में अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र,अहमदाबाद का पहला निदेशक नियुक्त किया गया था. उन्होंने सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपेरिमेंट की योजना और कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने भारत में शिक्षा संचार के लिए एक नया आयाम खोला.  

वैज्ञानिक होने के साथ-साथ, प्रोफेसर यशपाल एक दूरदर्शी शिक्षाविद भी थे. वर्ष 1986-91 तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष रहे. इस दौरान उन्होंने शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए कई नवोन्मेषी कार्यक्रम शुरू किए.उनके प्रयासों से इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स, पुणे जैसे अंतर-विश्वविद्यालय केंद्र स्थापित हुए. वर्ष 2007 -2012 तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय  के चांसलर भी रहे. वह उस समिति के अध्यक्ष थे जिसने प्रसिद्ध ‘यशपाल समिति रिपोर्ट’ (वर्ष 2009) प्रस्तुत की, जिसमें उच्च शिक्षा में सुधारों की वकालत की गई थी, और स्कूली बच्चों पर किताबों का बोझ कम करने पर जोर दिया गया था.

विज्ञान को सरल भाषा में आम जनता तक पहुँचाने के लिए जाने जाते थे प्रो. यशपाल. दूरदर्शन पर प्रसारित विज्ञान आधारित लोकप्रिय कार्यक्रम ‘टर्निंग पॉइंट’ में उनकी उपस्थिति ने उन्हें एक सार्वजनिक हस्ती बना दिया था. प्रो. यशपाल को उनके उत्कृष्ट योगदानों के लिए कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजा गया, जिनमें – पद्म भूषण (1976), पद्म विभूषण (2013) और कलिंग पुरस्कार (2009) से सम्मानित किया गया था.

प्रो. यशपाल का 24 जुलाई 2017 को निधन हो गया. उन्होंने अपने बहुमुखी कार्य, शिक्षा के प्रति समर्पण और विज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के प्रयास से भारतीय विज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र पर एक अमिट छाप छोड़ी है.

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सिनेमेटोग्राफ़र वी. के. मूर्ति

वेंकटरामा पंडित कृष्णमूर्ति, जिन्हें वी. के. मूर्ति के नाम से जाना जाता है. उनका जन्म 26 नवंबर 1923 को मैसूर, कर्नाटक में हुआ था. मूर्ति ने अपने कैरियर की शुरुआत में मुंबई जाकर फिल्म उद्योग में काम पाने की कोशिश की, लेकिन पहले प्रयास में सफलता नहीं मिली. वापस लौटकर उन्होंने ‘बैंगलोर इंस्टीट्यूट’ में सिनेमाटोग्राफी की शिक्षा ली और डिप्लोमा प्राप्त किया.

मूर्ति ने वर्ष 1951- 2001 तक चलचित्रण में अपनी सेवाएं दीं और विशेष रूप से गुरु दत्त की फ़िल्मों के लिए जाने जाते हैं. उन्हें सिनेमास्कोप में शूट करने वाले पहले भारतीय सिनेमाटोग्राफर के रूप में पहचाना जाता है और वह दादा साहब फाल्के सम्मान प्राप्त करने वाले पहले सिनेमाटोग्राफर भी थे.

उनका पहला प्रमुख प्रोजेक्ट वर्ष 1952 में फिल्म ‘जाल’ थी, जिसमें वह गुरुदत्त के साथ काम कर रहे थे. मूर्ति और गुरुदत्त की मुलाकात ‘बाजी’ फिल्म के दौरान हुई थी, और मूर्ति की प्रतिभा से प्रभावित होकर गुरुदत्त ने उन्हें अपने साथ काम करने का ऑफर दिया. इस सहयोग ने हिंदी सिनेमा को ‘कागज़ के फूल’, ‘प्यासा’, ‘चौदहवीं का चांद’, और ‘साहिब, बीबी और ग़ुलाम’ जैसी कई यादगार फिल्में दीं.

उनके काम की पहचान इतनी अद्वितीय थी किउनके काम की पहचान इतनी अद्वितीय थी कि उन्होंने ‘कागज़ के फूल’ और ‘साहिब, बीबी और ग़ुलाम’ फिल्मों में प्रकाश और छाया का इस्तेमाल करके सिनेमाटोग्राफी के क्षेत्र में नए मानक स्थापित किए. उनके इस अनूठे काम के लिए उन्हें वर्ष 1959 – 62 में ‘सर्वश्रेष्ठ सिनेमाटोग्राफर’ के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार मिला. उनकी प्रतिभा ने न सिर्फ भारतीय सिनेमा में उनका नाम अमर कर दिया, बल्कि 2008 में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.

7 अप्रैल 2014 को, 91 वर्ष की आयु में बेंगलुरु में वी. के. मूर्ति का निधन हो गया, लेकिन उनकी अद्वितीय शैली और अविस्मरणीय फिल्में हमेशा भारतीय सिनेमा की अमूल्य धरोहर के रूप में याद की जाएंगी.

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श्वेत क्रांति के जनक वर्गीज कुरियन

डॉ. वर्गीज कुरियन एक भारतीय सामाजिक उद्यमी थे, जिन्होंने भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जन्म 26 नवंबर 1921 को केरल के कोझिकोड में हुआ था.

कुरियन ने वर्ष 1940 में चेन्नई के लोयोला कॉलेज से स्नातक किया और चेन्नई के ही गिंडी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी की. इसके बाद, उन्हें भारत सरकार की छात्रवृत्ति मिली और उन्होंने वर्ष 1948 में अमेरिका की मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में मास्टर डिग्री प्राप्त की, जिसमें डेयरी इंजीनियरिंग भी शामिल था.

वर्ष 1949 में, वह भारत लौटे और सरकारी डेयरी विभाग के तहत डेयरी इंजीनियर के रूप में गुजरात के आनंद में नियुक्त हुए. उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के मार्गदर्शन में त्रिभुवनदास पटेल के साथ मिलकर खेड़ा जिला सहकारी दुग्ध उत्पादक संघ लिमिटेड (Kaira District Co-operative Milk Producers’ Union Limited) को विकसित करने में मदद की. यहीं से विश्व प्रसिद्ध डेयरी ब्रांड ‘अमूल’ (AMUL) का जन्म हुआ था.

कुरियन ने एक ऐसा सहकारी दुग्ध मॉडल बनाया, जहां दूध उत्पादक किसान सीधे अपनी संस्थाओं का प्रबंधन करते थे और मुनाफे के हकदार होते थे. यह मॉडल बिचौलियों को हटाकर किसानों को सशक्त बनाने पर केंद्रित था. उन्होंने भैंस के दूध से पाउडर बनाने की तकनीक विकसित की, जो उस समय दुनिया में पहली बार था, क्योंकि तब केवल गाय के दूध से ही पाउडर बनाया जाता था.

अमूल की सफलता से प्रेरित होकर, तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने वर्ष 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की स्थापना की और डॉ. कुरियन को इसका संस्थापक-अध्यक्ष नियुक्त किया। वर्ष 1970 में, NDDB ने डॉ. कुरियन के नेतृत्व में ‘ऑपरेशन फ्लड’ (जिसे श्वेत क्रांति भी कहते हैं) की शुरुआत की. यह दुनिया का सबसे बड़ा डेयरी विकास कार्यक्रम था, जिसका लक्ष्य एक राष्ट्रीय दूध ग्रिड स्थापित करना और दूध उत्पादन को बढ़ावा देना था. ‘ऑपरेशन फ्लड’ की सफलता के कारण भारत कुछ ही दशकों में दूध की कमी से जूझने वाले देश से दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बन गया.

डॉ. कुरियन ने लगभग 30 संस्थाओं की स्थापना और प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसमें गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड (GCMMF) और इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आनंद (IRMA) शामिल हैं. उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण (1999) सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। अन्य प्रमुख पुरस्कारों में रेमन मैगसेसे पुरस्कार (1963) और विश्व खाद्य पुरस्कार (1989) शामिल हैं.

 डॉ. वर्गीज कुरियन का 9 सितंबर 2012 को 90 वर्ष की आयु में निधन हुआ था. उनकी आत्मकथा का नाम ‘आई टू हैड ए ड्रीम’ (I Too Had a Dream) है, जो उनकी प्रेरणादायक कहानी बयां करती है. 

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उर्दू कवि मुनव्वर राणा

मुनव्वर राणा उर्दू साहित्य के एक ऐसे चमकते सितारे थे, जिनकी शायरी ने प्रेम, माँ की ममता और सामाजिक चेतना को एक नई ऊँचाई दी. 26 नवंबर 1952 को उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जन्मे मुनव्वर राणा ने 14 जनवरी 2024 को लखनऊ में अंतिम सांस ली, लेकिन अपनी गजलों के रूप में एक अमूल्य विरासत छोड़ गए.

मुनव्वर राणा की पहचान ‘माँ’ पर लिखी उनकी मार्मिक और हृदयस्पर्शी गजलों से है. जहाँ पारंपरिक गजलें माशूक (प्रेमिका) के इर्द-गिर्द घूमती थीं, वहीं मुनव्वर राणा ने ग़ज़ल की शैली का प्रयोग माँ के गुणों और ममता के गुणगान के लिए किया. उनकी यह शैली उर्दू साहित्य में अद्वितीय मानी जाती. मुनव्वर राणा ने उर्दू और अवधी में लिखा, लेकिन फ़ारसी और अरबी शब्दावली से परहेज किया जो उर्दू को हिंदी से अलग करती है.

उनका सबसे प्रसिद्ध शेर, जो माँ के प्रति उनके गहरे प्रेम को दर्शाता है-

किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई,

मैं घर में सब से छोटा था, मिरे हिस्से में माँ आई.

प्रमुख कृतियाँ: – ‘माँ’, ‘मुहाजिरनामा’, ‘घर अकेला हो गया’ और ‘पीपल छाँव’ उनकी प्रमुख कृतियों में शामिल हैं.

मुनव्वर राणा को उनकी कविता पुस्तक ‘शाहदाबा’ के लिए उर्दू साहित्य के इस प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. परन्तु, देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में उन्होंने वर्ष 2015 में यह पुरस्कार लौटा दिया था.उन्हें मीर तकी मीर अवार्ड, गालिब अवार्ड, अमीर खुसरो अवार्ड और डॉ. ज़ाकिर हुसैन अवार्ड जैसे कई अन्य सम्मानों से नवाजा गया.

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राजनीतिज्ञ शंकर दयाल सिंह

शंकर दयाल सिंह भारतीय राजनीति के एक प्रख्यात नेता, लेखक और विचारक थे. वे बिहार के समाजवादी नेता थे और अपने समय के प्रमुख सांसदों में से एक थे. उनकी विद्वता, वाकपटुता और साहित्यिक योगदान के लिए वे विशेष रूप से प्रसिद्ध थे.

शंकर दयाल सिंह का जन्म 27 दिसम्बर 1937 को बिहार के औरंगाबाद जिले के भवानीपुर गाँव के स्वतन्त्रता सेनानी, साहित्यकार व बिहार विधान परिषद के सदस्य स्व० कामताप्रसाद सिंह के यहाँ हुआ था. उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से अपनी शिक्षा प्राप्त की.

शंकर दयाल सिंह का राजनीति में प्रवेश समाजवादी आंदोलन के माध्यम से हुआ. वे भारतीय संसद के उच्च सदन, राज्यसभा के सदस्य रहे. उन्होंने जनता दल के नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई और देश के महत्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर मुखर रूप से अपनी बात रखी. वे अपनी ओजस्वी और प्रभावशाली भाषण शैली के लिए प्रसिद्ध थे. संसद में उनकी वाकपटुता और तार्किक विचारधारा ने उन्हें एक कुशल वक्ता के रूप में स्थापित किया.

शंकर दयाल सिंह ने हिंदी साहित्य में भी उल्लेखनीय योगदान दिया. वे एक कुशल लेखक और कवि थे. उनके लेखन में समाजवादी विचारधारा और सामाजिक मुद्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है. उन्होंने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए भी कार्य किया.

शंकर दयाल सिंह का निधन 14 नवंबर 1995 को हुआ था. उनकी राजनीतिक और साहित्यिक यात्रा ने उन्हें अपने समय के प्रमुख नेताओं और लेखकों में से एक बनाया। उनके योगदान को आज भी याद किया जाता है.

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इतिहासकार तपन राय चौधरी

तपन राय चौधरी एक भारतीय इतिहासकार थे, जिन्होंने मुख्य रूप से ब्रिटिश भारत के इतिहास पर अपने शोध के लिए व्यापक पहचान प्राप्त की. उनका जन्म 08 मई 1926 को  हुआ था और उनका निधन 26 नवंबर 2014 को हुआ. उन्होंने खासकर बंगाल के आर्थिक और सामाजिक इतिहास पर केंद्रित अपने कार्यों के लिए विशेष रूप से सराहना प्राप्त की.

राय चौधरी ने “बंगाल डिविजन, वर्ष 1905-1911” और “पर्मानेंट सेटलमेंट इन बंगाल” जैसी पुस्तकों के माध्यम से अपनी विद्वता प्रदर्शित की. उनकी शोध नीति और आर्थिक विकास, सामाजिक परिवर्तन और राजनीतिक संघर्षों के बीच संबंधों को उजागर करती है.

उन्होंने अपने अकादमिक कैरियर में कई विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया और उनके काम ने इतिहास के अध्ययन में नए आयाम स्थापित किए. उनका काम आज भी भारतीय इतिहास के विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ माना जाता है.

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