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गुलमोहर…

जब भी निहारता हूं गुलमोहर, न जाने क्यों चिपक जाती हैं आंखें,

ठीक वैसे ही जैसे निहारा था तुम्हें, पहली बार और निहारता ही रह गया था

अपलक, मेरी आंखें समा गयी थीं तुम्हारे भीतर,

भला कैसे भूल सकता हूं, गुलमोहर तरु तले का, 

वह अनिर्वचनीय दृश्य, उन पलों की साक्षी चिड़िया, 

आज भी दुहराती है, वही ऋचा बार- बार,

गुलमोहर की टहनियों में बैठकर,

तुम नहीं बांच पायी, उसके कंठ की भाषा,

उसमें छपी है तुम्हारी ही तो ‘अनाम गाथा’.

प्रभाकर कुमार. 

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