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धुप-छांव -9.

“छांव की दहलीज़ पर खड़ी धूप” या “आवाज़ जो केवल स्मृति में बोली जाती है.

“छांव की दहलीज़ पर खड़ी धूप”

यह शीर्षक उस स्थिति का प्रतीक है जब कोई व्यक्ति विराम और प्रकाश के बीच खड़ा होता है-ना पूरी तरह लौट सका, न पूरी तरह जा सका.

अर्पिता गाँव की एक लड़की “बिंदु” की कहानी सुनती है, जो कभी प्रभात का विद्यार्थी रही थी.

बिंदु जीवन भर अपने भीतर के उजाले को दबाती रही, क्योंकि वह अपनी मां की छांव से बाहर नहीं निकल सकी.

एक दिन वह स्कूल के बाहर बने एक पेड़ की छांव में बैठी होती है, और एक किरण उस पर आकर टिकती है-धूप की वो पहली ख्वाहिश.

कहानी वहीं से शुरू होती है-जब बिंदु “छांव की दहलीज़ पर खड़ी धूप” बन जाती है.

यह प्रेम की नहीं, आत्म-प्रकाश की खोज की कहानी होगी, जिसे अर्पिता खुद लिखती है-प्रभात की छांव में खड़े होकर.

 “आवाज़ जो केवल स्मृति में बोली जाती है”.

यह शीर्षक स्मृतियों में बसे ऐसे संवादों की बात करता है, जो कभी घटित नहीं हुए-फिर भी हमारे भीतर सबसे स्पष्ट स्वर बनकर रहते हैं.

अर्पिता एक प्रतीकात्मक संग्रह लिखती है: स्मृति संवादों की.

हर अध्याय एक “आवाज़” है-प्रभात की, दादी की, गाँव की मिट्टी की, उस आम के पेड़ की…

ये संवाद अर्पिता ने कभी सुने नहीं, लेकिन अब वह उन्हें लिख रही है-जैसे कोई स्थूल नहीं, आत्मिक आत्मकथा.

यह कथा आत्म-स्वीकृति की यात्रा है, जहाँ अर्पिता हर याद को आवाज़ देती है-क्योंकि वह जानती है, कुछ रिश्ते जीवन में नहीं, सिर्फ स्मृति में जीते हैं.

शेष भाग अगले अंक में…,

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