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धुप-छांव -8.

रात्रि संवाद – दो आत्माओं के बीच, जब शब्द भी शांत हो जाते हैं “जब प्रेम प्रकट नहीं हो सका, तब वह मौन बन गया-और मौन, केवल रात्रि में गूंजता है.”

एक गहरा, नीला आकाश. कोई वास्तविक जगह नहीं-बल्कि स्मृति और कल्पना के बीच वह आकाशगंगा, जहाँ आत्माएं मिलती हैं.

प्रभात – स्मृति बन चुका लेखक, जिसकी कहानियाँ अब हवाओं में तैरती हैं. अर्पिता – जीवित, लेकिन अपने भीतर एक अधूरी कहानी लिए.

संवाद – रात्रि की हल्की लौ में,

अर्पिता:- “तुमने मुझे कभी क्यों नहीं रोका, जब मैं आगे बढ़ गई?”

प्रभात (हवा की तरह):- “क्योंकि तुम ठहराव से नहीं बनी थी… तुम बहती नदी थी, और मैं किनारा. मैंने तुम्हें रोक लिया होता, तो शायद तुम सूख जाती.”

अर्पिता: – “पर अब तो मैं लौट आई हूँ… तुम्हारे किनारे पर. तुम हो कहाँ?”

प्रभात: “मैं हूँ… उन कहानियों की छांव में, जो तुम दूसरों को सुनाती हो. हर बार जब तुम किसी बच्चे को आँखों में देखती हो और बिना बोले कुछ कहती हो-मैं वहीँ हूँ.”

अर्पिता (आँखें भीगती हैं): – “क्या अधूरा प्रेम कभी शांत होता है?”

प्रभात:- “अधूरा प्रेम कभी शांत नहीं होता… वह धीरे-धीरे पूरा बन जाता है-किसी और के भीतर. जैसे तुम अब हो.”

(एक क्षण का मौन… फिर केवल एक साँस की आवाज़)

अर्पिता (मुसकुराती है): – “तुम धूप थे… और मैं छांव. अब मैं जान गई हूँ-प्रेम उजाले और परछाईं दोनों में उगता है.”

प्रभात की छवि धुंधली हो जाती है. लेकिन अर्पिता की आँखों में अब रौशनी है—not from him, but through him.

उस रात के बाद उसने एक और कहानी लिखी: – “जब दो आत्माएं केवल मौन में मिलें, तो शब्द अमर हो जाते हैं.”

शेष भाग अगले अंक में…,

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