
धुप-छांव -7.
हर वो क्षण जब अर्पिता प्रभात की कहानियों को “सुनती” थी, और उसके मौन को “महसूस” करती थी, वहाँ शब्द नहीं थे-पर प्रेम की भाषा वहां पूरी तरह बोल रही थी.
“तुम्हारी आँखों में उजाला है—but it hesitates.” – यह पंक्ति, किसी स्वीकारोक्ति से कम नहीं थी.
अधूरेपन के सौंदर्य में
उनका प्रेम पूर्ण नहीं था, पर अधूरा होकर भी थामे रखने वाला था.
जैसे कोई अधूरी रागिनी-जो बार-बार लौटती है, पूरे मन में गूंजने के लिए.
यादों में जीवित रहने के ढंग में
प्रभात ने अपनी कहानियों के माध्यम से अर्पिता को “स्थल” नहीं, दिशा दी-जिससे वह लौट सकी, जान सकी, कि उसे क्या सँभालना है और क्या रचाना है.
“जब कोई गुम हो जाए, तो उसे ढूँढना नहीं चाहिए-उसे जीना चाहिए.”
-यह वाक्य केवल शांति नहीं, प्रेम की अंतिम स्वीकृति है.
एक गूंज बन जाना…
प्रेम जब प्रकट नहीं होता, तब वह एक गूंज बनकर रह जाता है-जो हर शब्द, हर दृश्य, हर मौन में बजता रहता है.
जैसे अर्पिता का वह दर्पण, जिसमें प्रभात कभी नहीं दिखा… फिर भी हर सुबह वहीं दिखाई देता रहा.
शेष भाग अगले अंक में…,