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धुप-छांव -4.

गाँव तक का सफर आसान नहीं था -ना दूरी के हिसाब से, ना दिल के. हर स्टेशन पर उतरती-चढ़ती भीड़ के बीच वह सिर्फ एक नाम ढूँढ रही थी-प्रभात.

शहर से गाँव तक वह जितना बाहर चल रही थी, उतना ही भीतर.

गाँव में प्रवेश: परछाइयाँ अब भी थीं,

गाँव वही था, लेकिन अब कुछ बदल गया था.

स्कूल की खपरैलें जर्जर थीं,

आम का पेड़ वहीं खड़ा था, पर उसकी छांव अब और गहरी लगी,

वह चौपाल, जहाँ दादी कहानियाँ सुनाया करती थीं, अब खाली कुर्सियों से सजी थी,

लोगों ने उसे अजनबी की तरह देखा-सिर्फ एक और शहर वाली लड़की, जो शायद किसी ज़मीन के कागज़ ढूँढने आई है, लेकिन वह वहाँ किसी जगह के लिए नहीं, किसी एहसास के लिए आई थी,

प्रभात का नहीं, पर ‘खोया हुआ’ मिल गया,

वह प्रभात नहीं मिला… पर मिला एक लड़का—नाम था चिन्मय, गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाला नवयुवक, जो बच्चों को “कहानियों की तालीम” देता था,

वह बोला,

“प्रभात भैया कहते थे-धूप में जो बात नहीं कह पाते, उसे छांव में कह देना चाहिए… मैं भी कहानियाँ यहीं से सीखी थीं.”

अर्पिता ने देखा, प्रभात कहीं नहीं था, पर हर ओर बिखरा हुआ था.

शेष भाग अगले अंक में…,

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