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धुप-छांव -15.

“तेरे मौन की बाँसुरी” “कभी कहा नहीं, पर तुझसे ज़्यादा कोई आवाज़ नहीं बनी”

चुप्पी में जब तू गूंजा था, मन का एक कोना झूम उठा. तेरी सांसों की सरगम में, मौन मेरा कुछ कहने लगा.

तेरे मौन की बाँसुरी, बजती रही हर साँझ-सवेरी.

 ना शब्द रहे, ना प्रश्न कोई, बस स्पर्श था एक स्मृति ज्यों हो। जो छूट गया, वो रह गया सा, खुद में ही अब लौट चलो.

तेरे मौन की बाँसुरी, गुनगुनती थी मेरी अधूरी डोरी.

 तू नहीं था पर था भी उतना, जितना आकाश किसी रंग में। तेरी अनुपस्थिति में ही मैं अपने आप से मिलने लगी.

तेरे मौन की बाँसुरी, बन गई अब मेरी भी बोली.

समापन पंक्तियाँ अब धूप है, अब छांव भी है, तेरा न होना… मेरा हो जाना है। कहानी पूरी नहीं सही— पर ये गीत तुम्हारा ही तराना है.

समाप्त

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