
धुप-छांव -14.
रात का वह क्षण जहाँ बाहर सब शांत है, पर भीतर कोई पुकार चल रही है. अर्पिता खिड़की के पास बैठी है, सामने आसमान फैला है—न सितारे ज़्यादा चमक रहे हैं, न हवा बहुत चल रही है. पर भीतर एक हलचल है.
उसकी डायरी अब भर चुकी है—प्रभात की स्मृतियाँ, दादी की कहानियाँ, चौपाल की खाट, रसोई की हँसी, आईने के मौन… और अब, एक आखिरी पन्ना बचा है. लेकिन अर्पिता जानती है—अब कोई उत्तर नहीं लिखना है.
अंतर्नाद — एक मौन स्वर
अर्पिता (आत्म स्वर में): “प्रभात… तुम कभी लौटे नहीं, लेकिन मैं कभी अकेली नहीं रही। हर बार जब मैंने किसी बच्चे की आँख में अपनी कहानी ढूँढी, मुझे तुम्हारी आवाज़ सुनाई दी।”
स्मृति (जैसे हवा में): “मैं कभी गया ही नहीं… मैं वही खामोशियाँ हूँ, जिन्हें तुम अब शब्दों में नहीं ढालतीं—बस जीती हो।”
डायरी का अंतिम पन्ना
अर्पिता कलम उठाती है, लेकिन शब्द नहीं लिखती। वह खाली पृष्ठ को देखती है… और उसी को छोड़ देती है—जैसे कोई आवाज़ जो पूरी है, क्योंकि वह कभी बोली ही नहीं गई।
कोने में वह बस इतना लिखती है:
“अब उत्तर नहीं चाहिए, क्योंकि अब प्रश्न भी नहीं रहा।”
संकेतात्मक समापन
यह अध्याय नहीं, एक समाधि है—प्रेम, विरह, आत्म-स्वीकृति और मौन का. वह आवाज़ जो वर्षों से भीतर थी, अब शब्द नहीं माँगती—क्योंकि वह स्वयं बन गई है.
अब अर्पिता बोलती नहीं, सुनती है।
शेष भाग अगले अंक में…,