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धुप-छांव -11.

दादी की रसोई में बचा हुआ हंसी का टुकड़ा “स्मृति का सबसे स्वादिष्ट हिस्सा वह होता है जो कभी थाली में नहीं रखा गया.”

अर्पिता गाँव की उस मिट्टी से सने आँगन में खड़ी है जहाँ कभी प्रभात की दादी का छोटा-सा चूल्हा जलता था. वहाँ अब धुआँ नहीं है, पर दीवार पर टिके हुए लोहे के कड़छी में किसी बीते हँसी की गूंज छुपी है.

एक बार दादी ने रसोई में चूल्हे पर पूरियाँ तलते हुए अर्पिता से कहा था— “सुनो बिटिया, ये जो तेल की छनक होती है, इसमें हँसी का स्वाद छुपा होता है… बस देखो जलने न पाए.”

परछाइयों में छुपे स्वाद — एक स्मृति-संवाद

रसोई (कल्पित स्वर): “मैंने तुम्हें पकते, खिलते, मुस्कराते देखा है. तुम जब पहली बार प्रभात के लिए बेसन के लड्डू बनाने आई थीं… तुम्हारी हथेलियों से हँसी झरती थी.”

अर्पिता (धीरे): “मैं तो सिर्फ अच्छे दिखने वाले घेवर बनाना चाहती थी… दादी ने सिखाया स्वाद छाँव से आता है, धूप से नहीं.”

रसोई: “प्रभात को तुमसे ज़्यादा तुम्हारी कोशिश पसंद थी—तुम जब लड्डू गोल नहीं बना पाती थीं, तब उसकी हँसी सबसे मीठी होती थी… मैंने सुनी है.”

डायरी का अगला पन्ना

“हर स्वाद एक आवाज़ है, और हर आवाज़ एक याद. अगर कभी रोटी जले… तो मत डरना—मैंने भी जलने के बाद ही सबक सीखा था.” — प्रभात की दादी की लिखावट

अर्पिता इस पंक्ति के नीचे जोड़ती है:

“उस दिन मैं लड्डू नहीं बना पाई थी… पर तुम्हारी हँसी आज भी मेरे स्वाद में बची है.”

भावनात्मक बिंब

यह अध्याय स्वाद, हँसी और स्मृति का संगम है—जहाँ कोई पूर्णता नहीं, बस टुकड़े हैं, जो मिलकर पूरे हो जाते हैं.

रसोई, अब बंद हो चुकी, आज भी हर कोने में एक हँसी छुपाए बैठी है—जो तब तक बजती रहेगी जब तक कोई उसे याद करता रहेगा.

क्या अगला अध्याय उस पुराने आंगन की बारिश में भीगी किसी खिड़की से झाँकता दृश्य हो… या फिर उस ट्रांजिस्टर की आवाज़ जो कभी गीत बनकर लौट आई थी?

शेष भाग अगले अंक में…,

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