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धुप-छांव -1.

शहर की भीड़भाड़ से दूर, एक छोटा सा गाँव था – रंगपुर. रंगपुर अपनी शांत वादियों और घने पेड़ों के लिए जाना जाता था. पर इस गाँव में एक अनोखी बात थी – यहाँ हर दिन मौसम धुप-छांव का खेल खेलता था. कभी तीखी धूप, तो कभी अचानक बरसती फुहारें. और इसी धुप-छांव के बीच, एक नई कहानी पनप रही थी.

कहानी का मुख्य किरदार था आलोक, एक युवा कलाकार. आलोक शहर से रंगपुर आया था, प्रकृति की गोद में शांति और प्रेरणा पाने के लिए. वह अपनी चित्रकारी में एक नया रंग भरना चाहता था, जो उसे शहर की आपाधापी में नहीं मिल पा रहा था. आलोक की खासियत थी कि वह रंगों से नहीं, बल्कि परछाइयों से चित्र बनाता था. उसके लिए, हर परछाई में एक कहानी छिपी होती थी, वो भी एक नये रूप में….

एक दिन की बात है जब सूरज अपने पूरे शबाब पर था और पेड़ों की परछाइयां ज़मीन पर लंबी-लंबी रेखाएं बना रही थीं, आलोक भी अपनी कैनवास लिए बैठा था. तभी उसकी नज़र एक अजीब सी परछाई पर पड़ी. वह किसी इंसान की नहीं थी, बल्कि एक जानवर की थी – एक हिरण, लेकिन उसकी परछाई इतनी गहरी और स्पष्ट थी, मानो वह खुद आलोक से कुछ कहना चाह रही हो. आलोक ने भी उस परछाई को अपनी कैनवास पर उतारना शुरू किया.

जैसे-जैसे वह चित्र बनाता गया, धुप-छांव का खेल और तेज़ होता गया. कभी धूप इतनी तेज़ होती कि परछाई धुंधली हो जाती, तो कभी बादल आते और परछाई इतनी स्पष्ट हो जाती कि आलोक को लगता जैसे हिरण खुद उसके सामने खड़ा हो. यह सिलसिला कई दिनों तक चला. आलोक सुबह से शाम तक उस परछाई का पीछा करता, कभी जंगल में, कभी पहाड़ों पर, और अपनी कला में उसे ढालता.

एक शाम, जब हल्की-हल्की बारिश हो रही थी और सूरज की किरणें बादलों से छनकर आ रही थीं, आलोक ने अपना चित्र पूरा किया. वह चित्र सिर्फ एक हिरण की परछाई नहीं थी, बल्कि उसमें रंगपुर के मौसम का हर उतार-चढ़ाव कैद था – धूप की तेज़ी, बादलों की नमी, और बारिश की बूंदों की चमक.

आलोक ने अपने चित्र को गाँव के एक छोटे से मंदिर के पास रखा, जहाँ अक्सर लोग शाम को इकट्ठा होते थे. जब गाँव वालों ने वह चित्र देखा, तो वे मंत्रमुग्ध हो गए. उन्हें उस परछाई में रंगपुर की आत्मा दिखी, गाँव की धुप-छांव भरी ज़िंदगी का प्रतिबिंब. गाँव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति, जो अपनी समझदारी के लिए जाने जाते थे, उन्होंने कहा, “यह सिर्फ एक चित्र नहीं, आलोक. यह तो हमारे गाँव की कहानी है. जिस तरह धुप-छांव हमारे जीवन का हिस्सा हैं, उसी तरह सुख-दुःख भी. तुमने उन्हें एक साथ पिरो दिया है.”

उस दिन से, आलोक सिर्फ एक कलाकार नहीं रहा, बल्कि वह रंगपुर की कहानियों का बयां करने वाला बन गया. उसकी कला ने गाँव को एक नई पहचान दी, यह सिखाया कि जीवन की धुप-छांव में भी कितनी ख़ूबसूरती छिपी हो सकती है. और आलोक, जो शांति और प्रेरणा की तलाश में आया था, उसे रंगपुर की परछाइयों में न सिर्फ अपनी कला का सार मिला, बल्कि उसे जीवन का गहरा अर्थ भी मिला.

शेष भाग अगले अंक में…,

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