
धुप-छांव …
यह कहानी है दो आत्माओं की -अनया और सौरभ की-जो जीवन की धूप-छांव में एक-दूसरे के लिए छाया बनते चले गए. यह सिर्फ प्रेम की बात नहीं है, यह पहचान की, संघर्ष की, और समय से आगे बढ़ने की बात है.
अनया का बचपन बिहार के एक छोटे गाँव रंगपुर में बीता, जहाँ सूरज की किरणें खेतों पर नृत्य करती थीं और जीवन हरियाली में सिमटा था, पर भीतर एक चुभन थी -उसकी माँ के खो जाने की, और पितृसत्ता की दीवारों में घुटती उसकी आवाज़ की.
सौरभ का संसार अलग था – शहर की भागती सड़कों और शोर के बीच वह अपनी कविता की पंक्तियों में मौन ढूँढता. वह ‘धूप’ था – तेज़, प्रेरणादायक, कभी-कभी चुभने वाला. और अनया -‘छांव’ – मुलायम, छुपी हुई, परंतु गहरी.
उनकी मुलाक़ात मगध यूनिवर्सिटी में साहित्य गोष्ठी के दौरान हुआ था. जहाँ सौरभ की कविता “धूप को ओढ़ लेना सीखो” सुनकर अनया की आँखें भर आईं. उसने पहली बार महसूस किया कि उसकी चुप्पी भी कविता बन सकती है.
समय के साथ वे नजदीक आए – पर धूप-छांव की भांति, हमेशा साथ रहते हुए भी कभी-कभी दूरी महसूस होती. अनया चाहती थी कि उसका अस्तित्व, उसकी पहचान, सिर्फ किसी की परछाईं न बने. सौरभ उसे समझना चाहता था, पर कभी-कभी वह अपनी ही रोशनी में उसे देख नहीं पाता था.
एक मोड़ पर अनया ने सौरभ से कहा, “मुझे तुम्हारी धूप नहीं चाहिए, जब तक मेरी अपनी छांव में साँस लेने की जगह न हो.” यह एक विदा नहीं थी, बल्कि एक विराम था.
वर्षों बाद, साहित्य अकादमी के मंच पर सौरभ फिर से पढ़ रहा था – इस बार अनया की कहानी: “अर्धविराम—धूप से परे छांव की पुकार”. और दर्शकों के बीच, उस आखिरी पंक्ति पर ताली बजाती हुई, मुस्कराती हुई अनया बैठी थी.
धूप-छांव जीवन का द्वैत है – हर चमक के पीछे एक ठंडक, हर ठहराव के पीछे एक लहर. सच्ची आत्मीयता तब होती है जब दोनों एक-दूसरे को पहचानते हैं, स्वतंत्र होकर भी जुड़ते हैं.
शेष भाग अगले अंक में…,