माँ गंगा के तट पर बसा बनारस, जिसे आमतौर पर बनारस या प्राचीन काल में काशी के नाम से जाना जाता है, केवल एक शहर नहीं है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता, अध्यात्म और संस्कृति का जीता-जागता प्रतीक है. माँ गंगा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित यह शहर, विश्व के सबसे पुराने निरंतर बसे हुए शहरों में से एक माना जाता है. सदियों से, बनारस ने ज्ञान, कला, संगीत और मोक्ष की भूमि के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है.
बनारस का इतिहास लगभग 3000 वर्षों से अधिक पुराना माना जाता है, हालांकि हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शिव ने इस नगरी को लगभग 5000 वर्ष पूर्व बसाया था. हिन्दू धर्म में, काशी को भगवान शिव की त्रिशूल पर बसी नगरी माना जाता है, जिसे प्रलयकाल में भी अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है. यह सात पवित्र पुरियों (सप्तपुरी) में से एक है. यह प्राचीन काल में ज्ञान, शिक्षा और वाणिज्य का एक प्रमुख केंद्र था, जो अपने मलमल, रेशमी कपड़ों, इत्र और शिल्प कला के लिए प्रसिद्ध था.
यूँ तो, बनारस का महत्व केवल हिन्दू धर्म तक सीमित नहीं है. भगवान बुद्ध ने वाराणसी के निकट सारनाथ में अपना पहला उपदेश दिया था, जिसे “धर्मचक्र प्रवर्तन” कहा जाता है, जिससे बौद्ध धर्म का उदय हुआ. जैन धर्म के भी कई तीर्थंकरों का जन्म यहीं हुआ था, जिससे यह जैनियों के लिए भी एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल बन गया. मध्यकाल का वह समय था जब महान संत और समाज सुधारक कबीर और संत रैदास यहीं से अपनी शिक्षाओं का प्रसार करते थे, जिसने भक्ति आंदोलन को नई दिशा दी. 18वीं शताब्दी से, रामनगर किले में रहने वाले काशी नरेश को नगर का धार्मिक अध्यक्ष माना जाता रहा है, जिनका आज भी लोगों में सम्मान है.
बनारस को भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है. इसकी संस्कृति गंगा नदी, घाटों और धार्मिक महत्त्व से गहराई से जुड़ी हुई है.
काशी विश्वनाथ मंदिर: – यह भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और हिन्दू धर्म का सबसे पवित्र मंदिर है.
घाट और गंगा आरती: – गंगा नदी के किनारे बने 80 से अधिक घाट (जैसे दशाश्वमेध घाट, अस्सी घाट) बनारस की पहचान हैं. प्रतिदिन शाम को होने वाली भव्य गंगा आरती एक अविस्मरणीय सांस्कृतिक अनुभव है.
मोक्ष की नगरी: – हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, बनारस में मृत्यु होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए इसे “मुक्तिधाम” भी कहा जाता है.
बनारस की कला-परंपरा बहुआयामी है. बनारसी साड़ी-बुनाई, लकड़ी नक़्काशी, धातु रिपोसे, गुलाबी मीनाकारी, सॉफ्ट स्टोन कला, हस्तमुद्रण, लोक-चित्रकला और संगीत-नाट्य की विशिष्ट परंपराएँ यहाँ समय के साथ विकसित हुईं. इन कारीगरी परंपराओं का तकनीकी और सौंदर्यात्मक विश्लेषण दिखाता है कि वे पारंपरिक ज्ञान, सामाजिक संरचना और शिल्प-परंपरा के माध्यम से बने सांस्कृतिक-बोध को व्यक्त करती हैं. GI टैग, सरकारी संरक्षण और डिज़ाइन नवाचार जैसे पहल इन्हें पुनर्जीवित करने में सहायक रहे हैं.
बनारस भारतीय भाषाओं के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों, काशी-निवासियों के साहित्य और विद्वत्ता का केंद्र रहा है. कथक, ठुमरी और दादरा जैसी शैलियों पर वाराणसी घराने की छाप गहरी है. यह शहर सदियों से शास्त्रीय अध्ययन, तर्क-शास्त्र, वेदांत और नवरत्न-परंपराओं का जीवंत मंच रहा है; घाट और गलियाँ विचार-विमर्श की सार्वजनिक जगहें बनी रही हैं. मलयागिरि पवन, मणिकर्णिका की कथा, देव-दीपावली की ज्योति-लोकवृत्त में बनारस की पहचान राग और रस के साथ घुल-मिल जाती है.
गंगा-तट का घाट-संस्कृति बनारस की आत्मा है. दशाश्वमेध से अस्सी तक, हर घाट का अपना ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ है. यह तट शुद्धता, संस्कार और सामुदायिक जीवन का साझा स्थान है। यहाँ की शाम-ए-गंगा आरती और तर्पण संस्कार व्यक्तियों को समुदाय और अनंत से जोड़ते हैं.
बनारस अपनी परंपरा को संजोते हुए परिवर्तन को आत्मसात करता रहा है.आधुनिक अवसंरचना, सांस्कृतिक आयोजन और डिजिटल-डिज़ाइन पहलों ने शिल्प और पर्यटन को नए मंच दिए हैं, जबकि शहर की मूल आत्मा, आस्था, कला और लोकजीवन अपने मूल्यों के साथ जीवित है. यह संतुलन ही इसे “जीवित परंपरा” का असाधारण उदाहरण बनाता है.
बनारस एक ऐसा शहर है जो समय की कसौटी पर खरा उतरा है. इसकी सड़कें, गलियां, घाट और मंदिर भारतीयता की आत्मा को प्रतिबिंबित करते हैं. यह शहर हमें याद दिलाता है कि संस्कृति सबसे पहले लोगों के अनुभवों में बसती है और बनारस उन अनुभवों का अखंड, उज्ज्वल स्रोत है.
संकलन : – सुनील कुमार.
Video Link: – https://youtu.be/RlxI581PKPA



