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गलियों का शहर और उड़ता गुबार …

अध्याय 8: सत्य का प्रकाश और लोगों का असमंजस

हस्तलिपि के सत्य को जानने के बाद आलोक का मन शांत हो गया था, पर उसके सामने एक नई चुनौती थी. इस बात को अंबरपुर के लोगों तक कैसे पहुँचाया जाए? वे लोग जो सदियों से इस धूल में जीते आए थे, क्या वे इस अजीबोगरीब सत्य को स्वीकार कर पाएँगे कि उनकी धूल सिर्फ मिट्टी नहीं, बल्कि उनके ही कर्मों का प्रतिबिंब थी?

उसने सबसे पहले उस बूढ़े व्यक्ति और बूढ़ी महिला से मिलने का फैसला किया, जो उसे गलियों में अक्सर मिलते थे. वे दोनों अंबरपुर के सबसे पुराने निवासियों में से थे और शहर की आत्मा को समझते थे.

“बाबा, माई,” आलोक ने कहा, “मुझे वह हस्तलिपि मिल गई है. पुरोहित वासुदेव ने उसमें ‘कायापलट की रात’ का पूरा सच लिखा है.”

बूढ़े व्यक्ति की आँखों में उत्सुकता और संदेह दोनों थे. “सच? कैसा सच, बाबू? क्या वह बताता है कि यह धूल क्यों उड़ती है?”

आलोक ने उन्हें संक्षेप में हस्तलिपि में लिखी बातें बताईं कि धूल सिर्फ एक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि अंबरपुर की आत्मा का खंडित रूप है, जो लोगों के लालच और प्रकृति के असंतुलन के कारण बनी. उसने यह भी बताया कि मिट्टी की नर्तकी कैसे इस रहस्य को खोलने की कुंजी थी.

बूढ़ी महिला ने धीरे से सिर हिलाया. “हमने हमेशा कहा था कि यह धूल कुछ और है. यह हमें याद दिलाती है, पर किसकी, यह नहीं पता था. तो, क्या अब यह धूल हट जाएगी?”

“हस्तलिपि कहती है कि यह तब हटेगी जब अंबरपुर की आत्मा का पुनर्जागरण होगा,” आलोक ने समझाया. “जब लोग अपने पुराने मूल्यों को याद करेंगे, प्रकृति का सम्मान करेंगे, और अपनी लालच को छोड़ देंगे.”

बूढ़ा आदमी गहरी सोच में पड़ गया. “यह आसान नहीं होगा, बाबू. लोग इस धूल के आदी हो गए हैं. यह उनके जीवन का हिस्सा बन गई है. कुछ लोग तो इसे अपना भाग्य मानते हैं.”

यह सच था. अंबरपुर की धूल सिर्फ एक भौतिक चीज़ नहीं थी, बल्कि एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक वास्तविकता भी थी. लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया था, और इसे बदलने का विचार उनके लिए असहज हो सकता था.

आलोक ने सोचा, उसे एक ऐसे मंच की ज़रूरत होगी जहाँ वह पूरे शहर से बात कर सके. शहर के केंद्र में एक पुराना बड़ा चबूतरा था, जहाँ पहले गाँव की पंचायतें बैठती थीं. उसने वहाँ लोगों को इकट्ठा करने का फैसला किया.

अगले दिन, आलोक ने शहर में घूमकर लोगों को चबूतरे पर आने का न्योता दिया. कुछ लोग उत्सुक थे, कुछ को संदेह था, और कई लोग उदासीन थे. दोपहर तक, चबूतरा लगभग भर गया था. लोग आपस में फुसफुसा रहे थे, और धूल का गुबार हमेशा की तरह हवा में तैर रहा था.

आलोक ने हस्तलिपि को अपने हाथों में लिया और बोलना शुरू किया. उसने पुरोहित वासुदेव की कहानी सुनाई, कायापलट की रात का सत्य बताया, और कैसे अंबरपुर की आत्मा धूल में समा गई थी. उसने समझाया कि यह धूल एक चेतावनी है, एक संदेश है, और यह तभी हटेगी जब अंबरपुर के लोग अपने भीतर बदलाव लाएँगे.

जब उसने अपनी बात खत्म की, तो चबूतरे पर एक गहरी खामोशी छा गई. फिर, एक आदमी खड़ा हुआ. “बाबू, तुम एक बाहरी आदमी हो. तुम हमें यह कैसे बता सकते हो कि हमारी धूल हमें क्या सिखाती है? हम इसमें जीते आए हैं.”

एक और आवाज़ आई, “अगर यह सब सच है, तो हम क्या करें? क्या हम अपनी दुकानें बंद कर दें? क्या हम अपना काम छोड़ दें?”

आलोक को पता था कि यह प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी. लोगों को अपनी सदियों पुरानी धारणाओं को बदलना मुश्किल होगा. “हमें अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा,” उसने कहा. “प्रकृति का सम्मान करना होगा, एक दूसरे की मदद करनी होगी. पुरोहित वासुदेव ने इस हस्तलिपि को इसलिए नहीं लिखा था कि हम डरें, बल्कि इसलिए लिखा था कि हम जागें.”

कुछ लोगों ने उसके शब्दों पर विश्वास किया, उनकी आँखों में आशा की एक नई चमक थी. लेकिन कई लोग अभी भी असमंजस में थे, उनकी आँखों में संदेह और थकान साफ दिख रही थी. धूल का गुबार उन पर छाया हुआ था, मानो वह उनके पुराने विश्वासों की रक्षा कर रहा हो.

आलोक जानता था कि यह सिर्फ शुरुआत थी. सत्य का प्रकाश दिखाना आसान था, लेकिन लोगों के दिलों में बदलाव लाना एक लंबी और कठिन यात्रा थी. क्या अंबरपुर के लोग इस सत्य को अपना पाएँगे, या वे हमेशा के लिए ‘गलियों के शहर और उड़ते गुबार’ में ही उलझे रहेंगे? यह देखना अभी बाकी था.

~ समाप्त ~

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