सीढ़ी से नीचे उतरते ही आलोक को हवा में एक बदलाव महसूस हुआ. यह केवल नम नहीं थी, बल्कि उसमें एक हल्की, लगभग अदृश्य खुशबू थी – जैसी सदियों पुराने कागज़ों और सूखे फूलों की होती है. टॉर्च की रोशनी में सीढ़ियाँ धीरे-धीरे नीचे उतरती गईं, और हर कदम पर आलोक को लगा जैसे वह समय में और गहराई में उतर रहा हो.
कुछ ही देर में वह एक और कक्ष में पहुँचा. यह ऊपर वाले कक्ष से छोटा था, लेकिन कहीं अधिक सुरक्षित और अप्रभावित. हवा यहाँ स्थिर थी, और आश्चर्यजनक रूप से, यहाँ धूल बहुत कम थी. दीवारों पर अभी भी प्राचीन चित्रलिपि और खगोलीय नक्शे उकेरे हुए थे, जो अब स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे थे.
कक्ष के केंद्र में एक पत्थर का आसन था, जो ऊपर वाले आसन जैसा ही था, लेकिन यह टूटा हुआ नहीं था. और उस पर, आलोक को वही मिला जिसकी उसे तलाश थी – एक पुराना, लकड़ी का बक्सा, जो धूल की एक पतली परत से ढका था. बक्से पर कुछ जटिल नक्काशी थी, जो पुरोहित वासुदेव की शैली से मिलती-जुलती थी.
आलोक ने अपने कांपते हाथों से बक्से को उठाया. यह भारी था, और लकड़ी सदियों के बावजूद मजबूत महसूस हो रही थी. उसने बक्से को खोला. भीतर, पीले पड़ चुके रेशमी कपड़े में लिपटा हुआ, एक प्राचीन हस्तलिपि रखी थी.
उसकी आँखें खुशी से चमक उठीं. उसने धीरे से हस्तलिपि को बाहर निकाला. उसके पन्ने पतले थे, और स्याही सदियों के बावजूद धुंधली नहीं हुई थी. हस्तलिपि का शीर्षक, प्राचीन भाषा में लिखा हुआ, था: “अंबरपुर: समय की धूल में विलीन आत्मा का पुनर्जागरण”.
आलोक ने पन्ने पलटने शुरू किए. हस्तलिपि में पुरोहित वासुदेव की अपनी भाषा में ‘कायापलट की रात’ का विस्तृत वर्णन था. यह केवल एक तूफान नहीं था, बल्कि एक खगोलीय घटना और एक दैवीय हस्तक्षेप का परिणाम था. वासुदेव ने लिखा था कि उस रात, जब नक्षत्रों का ‘महा-संयोग’ हुआ, तो अंबरपुर की आत्मा, जो प्रकृति और मानव के बीच के नाजुक संतुलन में निहित थी, खंडित हो गई थी. शहर के लोगों की बढ़ती लालच और प्रकृति के प्रति उनकी उदासीनता ने इस संतुलन को तोड़ दिया था.
हस्तलिपि में लिखा था: “…और तब, आकाश से धूल नहीं, बल्कि समय का सार बरसा. हर कण में अतीत की यादें, वर्तमान का बोझ और भविष्य की अनिश्चितता समा गई. अंबरपुर की आत्मा खंडित होकर उस धूल में समा गई, और शहर एक जीवित स्मारक बन गया – एक उड़ता गुबार, जो लोगों को अपने ही कर्मों की याद दिलाता है.”
वासुदेव ने यह भी लिखा था कि इस धूल का उद्देश्य दंड नहीं था, बल्कि एक जागरूकता था. यह धूल शहर को उसके खोए हुए गौरव और उसकी आत्मा की शुद्धता की याद दिलाती थी. हस्तलिपि में एक भविष्यवाणी भी थी: “…जब कोई शुद्ध हृदय वाला प्राणी इन पहेलियों को सुलझाएगा, और अंबरपुर की आत्मा का नृत्य करेगा, तब धूल का आवरण उठेगा, और शहर अपने वास्तविक स्वरूप में लौटेगा.”
आलोक को समझ आया कि मिट्टी की नर्तकी सिर्फ एक मूर्ति नहीं थी, बल्कि अंबरपुर की कला और आत्मा का प्रतीक थी, जिसे नृत्य के माध्यम से जीवित किया जा सकता था. पुरोहित ने नर्तकी को एक कुंजी के रूप में छोड़ा था, जो समय के इस द्वार को खोल सके.
हस्तलिपि में वासुदेव ने यह भी बताया था कि उन्होंने इस गुप्त कक्ष को कैसे बनाया, और धूल के कणों में अतीत की झलकियाँ कैसे कैद कीं, ताकि भविष्य का कोई व्यक्ति इन रहस्यों को समझ सके. वह ‘पुनर्जन्म’ की बात कर रहा था, सिर्फ शहर के पत्थरों के पुनर्जन्म की नहीं, बल्कि उसकी आत्मा के पुनर्जन्म की.
आलोक ने हस्तलिपि को बंद किया और उसे अपने सीने से लगा लिया. उसे लगा जैसे उसने सिर्फ एक प्राचीन दस्तावेज़ नहीं, बल्कि अंबरपुर के दिल को खोज लिया हो. शहर की गलियों में उड़ता गुबार अब उसे डरावना नहीं लग रहा था, बल्कि वह एक सुंदर और उदास कविता जैसा था – एक कविता जो अपने भीतर एक शाश्वत सत्य लिए हुए थी.
वह बाहर निकला, मिट्टी की नर्तकी को लेकर, जिसने अपना काम कर दिया था. अब उसे अंबरपुर के लोगों को यह सत्य बताना था. धूल का आवरण उठना अभी बाकी था, लेकिन आलोक जानता था कि पहला कदम उठा लिया गया था। शहर की आत्मा जागृत हो चुकी थी, और अंबरपुर अपने पुनर्जागरण की ओर अग्रसर था.
क्या अंबरपुर के लोग इस सत्य को स्वीकार कर पाएंगे? और क्या वे उस “शुद्ध हृदय वाले प्राणी” की भविष्यवाणी को साकार कर पाएंगे, ताकि शहर धूल के इस अनवरत गुबार से मुक्त हो सके?
शेष भाग अगले अंक में…,



