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गलियों का शहर और उड़ता गुबार …

अध्याय 6: नर्तकी का पुनर्जन्म और समय का द्वार

आलोक के पास अब एक योजना थी. उसे उस मिट्टी की नर्तकी को खोजना था. लेकिन कहाँ? अगर पुरोहित वासुदेव ने उसे अपने पास रखा था, तो वह भी उस खंडहर में ही कहीं होनी चाहिए, धूल में दबी हुई. या शायद, वह भी एक पहेली का हिस्सा थी, और कहीं और सुरक्षित रखी गई थी.

वह फिर से बूढ़े व्यक्ति और बूढ़ी महिला के पास गया, लेकिन इस बार उसने सीधे तौर पर नर्तकी के बारे में पूछा.

“क्या वासुदेव पुरोहित की कोई संतान थी?” आलोक ने बूढ़े आदमी से पूछा.

“हाँ, एक बेटी थी,” बूढ़े ने कहा. “नाम था उर्वी. बहुत सुंदर थी, और नृत्य कला में निपुण. वासुदेव उसे अपनी आँख का तारा मानते थे. पर कायापलट की रात के बाद, वह भी कहीं खो गई. कुछ लोग कहते हैं कि वह भी धूल में समा गई, कुछ कहते हैं कि शहर छोड़ गई.”

एक नर्तकी की बेटी और पुरोहित की सबसे प्रिय वस्तु एक नर्तकी की मूर्ति थी. क्या यह महज़ इत्तेफाक था?

आलोक ने उस बूढ़ी महिला की ओर देखा. “माई, क्या उर्वी के बारे में कोई और जानकारी है? वह कहाँ रहती थी? या उसका कोई विशेष स्थान?”

महिला ने अपनी उंगलियों से हवा में कुछ रेखाएँ बनाईं. “उर्वी का एक बगीचा था, जहाँ वह रोज़ नृत्य का अभ्यास करती थी. वह बगीचा अब धूल और कबाड़ से अटा पड़ा है, लेकिन वहाँ एक अमलतास का पेड़ आज भी खड़ा है. पुरोहित वासुदेव अक्सर वहाँ जाते थे, और कहते थे कि अमलतास अंबरपुर की आत्मा का प्रतीक है.”

अमलतास का पेड़! आलोक को एक नई उम्मीद मिली. वह तुरंत उस बगीचे की तलाश में निकल पड़ा. गलियों में भटकते हुए, उसने कई टूटे हुए घरों और सूखी पड़ी बावड़ियों को पार किया. आखिरकार, शहर के पश्चिमी किनारे पर, जहाँ गलियाँ और भी सुनसान हो जाती थीं, उसे एक बड़ा, सूखा हुआ अमलतास का पेड़ दिखाई दिया. उसके चारों ओर का क्षेत्र किसी खंडहर से कम नहीं था, लेकिन पेड़ अपनी पूरी शक्ति के साथ खड़ा था, मानो वह भी सदियों के इतिहास का गवाह हो.

बगीचा पूरी तरह से धूल और मलबे से ढका हुआ था. आलोक ने अपनी टॉर्च जलाई और पेड़ के चारों ओर घूमना शुरू किया. हर तरफ टूटे हुए गमले, सूखे पत्ते और धूल के टीले थे. लेकिन उसकी आँखें एक विशेष चीज़ की तलाश में थीं कोई ऐसी जगह जहाँ पुरोहित ने अपनी प्रिय मूर्ति को छिपाया हो.

पेड़ की जड़ों के पास, एक बड़े पत्थर के नीचे, उसे कुछ असामान्य लगा. वहाँ की धूल थोड़ी कम थी, और पत्थर के किनारे पर कुछ निशान थे, जैसे उसे अक्सर हटाया जाता रहा हो. आलोक ने पत्थर को हटाने की कोशिश की, और कड़ी मशक्कत के बाद, वह उसे खिसकाने में कामयाब रहा.

पत्थर के नीचे एक छोटा-सा, सूखा कुआँ था. और कुएँ के भीतर, धूल की एक मोटी परत के नीचे, एक छोटा सा लकड़ी का बक्सा था. आलोक ने सावधानी से बक्से को बाहर निकाला. बक्सा भी धूल से ढका था, लेकिन जब उसने उसे खोला, तो उसकी आँखें चमक उठीं.

अंदर पुरोहित वासुदेव की मिट्टी की नर्तकी रखी थी. वह छोटी, सुंदर और नाजुक थी, और उसके चेहरे पर एक शांत भाव था, जैसे वह समय के प्रभाव से अछूती रही हो.

आलोक ने नर्तकी को अपने हाथों में उठाया. उसकी सतह थोड़ी खुरदुरी थी, लेकिन उसे छूते ही आलोक को एक अजीब-सी गर्माहट महसूस हुई, जैसे मूर्ति में कोई जीवन हो. उसे याद आया बूढ़ी महिला की बात: “अंबरपुर तब तक नहीं जागेगा, जब तक उसकी आत्मा नृत्य नहीं करेगी”

वह तुरंत पुरोहित के गुप्त कक्ष की ओर भागा. अंधेरी सुरंग को पार कर वह वापस उस बड़े कक्ष में पहुँचा जहाँ पत्थर का आसन था और उसके बगल में वह रहस्यमय दरार.

उसने टॉर्च की रोशनी में दीवार पर बने तारों के नक्शे और उस छोटे छेद को फिर से देखा. फिर उसने मिट्टी की नर्तकी को उस छेद में धीरे से डाला. नर्तकी का एक पैर उस छेद में पूरी तरह से फिट हो गया, जैसे वह उसी के लिए बनाया गया हो.

जैसे ही नर्तकी छेद में स्थिर हुई, कक्ष में एक हल्की-सी कंपन महसूस हुई. और फिर, एक धीमी, यांत्रिक आवाज़ के साथ, आसन के बगल वाली दरार धीरे-धीरे चौड़ी होने लगी. धूल के कण दरार के भीतर से गिर रहे थे, और नीचे एक अँधेरी जगह दिख रही थी.

दरार पूरी तरह से खुल गई, और आलोक ने देखा कि वह एक सीढ़ी की ओर जाती है, जो और भी गहराई में उतरती थी. सीढ़ी के नीचे से एक हल्की, मीठी खुशबू आ रही थी, जो सदियों से बंद रही किसी चीज़ की गंध थी.

आलोक ने नर्तकी को वहीं छोड़ दिया. वह जानता था कि उसने पहली पहेली सुलझा ली थी. अब उसे उस सीढ़ी से नीचे उतरना था, जहाँ पुरोहित वासुदेव की खोई हुई हस्तलिपि उसका इंतजार कर रही थी. अंबरपुर की आत्मा ने नृत्य करना शुरू कर दिया था, और समय का द्वार खुल गया था. लेकिन उस द्वार के पीछे क्या छिपा था? क्या यह सिर्फ हस्तलिपि थी, या कुछ और जो अंबरपुर के अस्तित्व को हमेशा के लिए बदल सकता था?

शेष भाग अगले अंक में…,

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