
आलोक वापस पुरोहित वासुदेव के खंडहर वाले घर की सुरंग में पहुँचा. उस पतली दरार को देखकर उसके मन में पहेलियों का जाल और भी उलझ गया था. पुरोहित की पहेलियाँ, नक्षत्रों का चक्र, और मिट्टी की नर्तकी—ये सब कैसे इस दरार से जुड़े थे?
उसने अपनी टॉर्च को फिर से पंचांग पर केंद्रित किया, जो खंडहर के आंगन में मिला था. “पुनर्जन्म की रात, जब नक्षत्रों का चक्र पूर्ण होगा…” यह वाक्य उसके दिमाग में बार-बार घूम रहा था. आलोक ने अपनी खगोल विज्ञान की जानकारी पर जोर दिया. नक्षत्रों का चक्र पूर्ण होने का मतलब क्या हो सकता है? शायद यह किसी विशेष खगोलीय संरेखण या ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति की ओर इशारा कर रहा था.
उसने अपने फोन में नक्षत्रों के पुराने चार्ट खंगालने शुरू किए, उन तिथियों को याद करते हुए जो अंबरपुर के मौखिक इतिहास में “कायापलट की रात” के रूप में बताई जाती थीं. कई घंटों की गहन खोज के बाद, उसे एक महत्वपूर्ण जानकारी मिली. सदियों पहले, एक निश्चित तारीख को, कई महत्वपूर्ण ग्रह एक दुर्लभ संरेखण में आए थे, जो हर कई सौ वर्षों में केवल एक बार होता था. उस रात को, जिसे ज्योतिषीय रूप से “महा-संयोग” कहा जाता था, अंबरपुर के इतिहास में दर्ज कायापलट की रात के साथ मेल खाती थी.
तो, नक्षत्रों का चक्र पूर्ण होना उस ‘महा-संयोग’ की ओर इशारा कर रहा था. लेकिन यह पहेली का सिर्फ एक हिस्सा था. अब मिट्टी की नर्तकी की बारी थी.
आलोक ने सोचा, पुरोहित वासुदेव, जिन्होंने हर चीज़ में पहेलियाँ छोड़ी थीं, क्या वे अपनी सबसे प्रिय वस्तु, मिट्टी की नर्तकी, को सिर्फ एक मूर्ति के रूप में रखते थे? या उसमें भी कोई रहस्य छिपा था? उसने उस बूढ़ी महिला से उस मूर्ति के बारे में पूछा था, और उसने कहा था कि पुरोहित मानते थे कि “उसमें अंबरपुर की आत्मा कैद है.”
वह फिर से गुपचुप गली में उस बूढ़ी महिला के पास गया. “माई, क्या पुरोहित वासुदेव ने उस मिट्टी की नर्तकी के बारे में कुछ और बताया था? उसकी कोई खासियत?”
महिला ने अपनी सूखी हँसी हँसी। “वह कहते थे, ‘अंबरपुर तब तक नहीं जागेगा, जब तक उसकी आत्मा नृत्य नहीं करेगी.’ उस मूर्ति को वे कभी-कभार ही दिखाते थे, लेकिन जब भी दिखाते, तो उसे धूप में रखते थे.”
“धूप में?” आलोक के दिमाग में एक नया विचार कौंधा. क्या उस मूर्ति में कुछ ऐसा था जो सूरज की रोशनी से प्रतिक्रिया करता हो?
अचानक आलोक को एक और विचार आया. पुरोहित ने हस्तलिपि को एक पत्थर के बक्से में बंद किया था, जिसे उन्होंने छिपाया था. और वह बक्सा कहीं इस कक्ष में धूल के नीचे था, जिसके ऊपर वह पतली दरार थी. अगर मूर्ति धूप से प्रतिक्रिया करती थी, तो शायद वह इस तंत्र से जुड़ी थी!
उसने जल्दी से पुरोहित के खंडहर घर में वापसी की, अपनी आँखें चारों ओर घुमाईं. कक्ष में कहीं भी, धूप की सीधी रोशनी नहीं आती थी. लेकिन उस मिट्टी की नर्तकी… अगर वह वाकई इस पहेली का हिस्सा थी, तो उसे कहीं न कहीं धूप के संपर्क में आना चाहिए था.
आलोक ने कक्ष के ठीक ऊपर की छत को देखा, जो ढही हुई थी. एक तरफ से थोड़ी सी धूप कक्ष में आ रही थी, लेकिन वह भी इतनी धुंधली थी कि शायद ही कोई प्रभाव डाल सके.
उसने खुद से कहा, “अगर पुरोहित ने हस्तलिपि को बचाने के लिए इतनी पहेलियाँ छोड़ी हैं, तो अंतिम पहेली इतनी आसान नहीं होगी.”
वह फिर से उस दरार के पास गया. उसने उसे ध्यान से देखा. फिर, अचानक उसे कुछ दिखा. दरार के ठीक ऊपर, दीवार पर, कुछ छोटे-छोटे अस्पष्ट निशान बने थे. वे धूल से लगभग ढके हुए थे, लेकिन आलोक ने उन्हें अपनी उंगलियों से साफ किया.
वे निशान छोटे-छोटे घेरे थे, और उनके भीतर कुछ बारीक रेखाएँ थीं, जैसे तारों का एक छोटा नक्शा. और उस नक्शे में एक विशेष बिंदु पर एक छोटा छेद था, जो मुश्किल से दिखाई दे रहा था.
क्या यह छेद उस मिट्टी की नर्तकी के किसी हिस्से को रखने के लिए था? और क्या उस छेद में मूर्ति को रखने के बाद, और सही नक्षत्रों के संरेखण में, कुछ होगा?
आलोक का दिल तेजी से धड़क रहा था. उसे लगा कि वह अंतिम समाधान के बहुत करीब है. अब उसे सिर्फ एक चीज़ की ज़रूरत थी: पुरोहित वासुदेव की वह मिट्टी की नर्तकी. क्या वह भी कहीं इस धूल में खो गई थी, या उसे कोई और रास्ता मिल सकता था? अंबरपुर की धूल उसे अपने अंतिम रहस्य की ओर खींच रही थी, और वह जानता था कि अब उसकी खोज एक निर्णायक मोड़ पर आ चुकी थी.
शेष भाग अगले अंक में…,