
आलोक ने टॉर्च की रोशनी में कक्ष को फिर से ध्यान से देखा. धूल का ढेर इतना विशाल था कि उसे हटाने का विचार ही थका देने वाला था. लेकिन उन चमकदार कणों ने उसे जो झलक दिखाई थी, वह इतनी वास्तविक थी कि अब पीछे हटना असंभव था. हस्तलिपि यहीं कहीं थी, उसे यकीन था.
उसने अपने हाथों से धूल हटाना शुरू किया. शुरुआत में यह एक निरर्थक काम लग रहा था, क्योंकि हर मुट्ठी धूल हटाने पर नई धूल हवा में उड़कर वापस आसन पर जम जाती थी. लेकिन आलोक ने हार नहीं मानी. उसने पुरोहित वासुदेव का चेहरा याद किया, जिसने उस अमूल्य हस्तलिपि को बचाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था.
जैसे-जैसे उसने धूल हटाई, उसे लगा कि आसन के चारों ओर की ज़मीन कुछ ढीली है. उसने अपनी टॉर्च को ज़मीन के करीब किया और पाया कि आसन के ठीक बगल में, धूल की मोटी परत के नीचे, एक पतली दरार थी. यह दरार इतनी सूक्ष्म थी कि सामान्य परिस्थितियों में उसे देखना असंभव होता, लेकिन आलोक की आँखों ने, जो अब धूल के रंग में रंग चुकी थीं, उसे पकड़ लिया था.
उसने अपनी उंगलियों से दरार को टटोला. यह एक ऐसी दरार थी जो किसी पुराने दरवाज़े या ढक्कन का संकेत देती थी. उसने अपनी पूरी ताकत लगाकर उस दरार को खोलने की कोशिश की, लेकिन वह टस से मस नहीं हुई। यह स्पष्ट था कि यह किसी गुप्त तंत्र का हिस्सा था.
तभी उसे याद आया वह बूढ़ा आदमी जो गुपचुप गली में मिला था, और उसकी बात, “अंबरपुर की धूल में तो लाखों कहानियाँ छिपी हैं, पर सब दिखती नहीं.” और फिर उस बूढ़ी महिला की बात, “हस्तलिपि? उसे तो शहर के आखिरी पुरोहित ने लिखा था, लेकिन वो भी उस रात के बाद से लापता हो गया.”
आलोक को लगा कि उसे पुरोहित वासुदेव के बारे में और जानना होगा. शायद उसके जीवन से जुड़ी कोई जानकारी उसे इस गुप्त तंत्र को खोलने में मदद कर सके.
वह फिर से सुरंग से बाहर निकला. बाहर सूरज ढल रहा था, और अंबरपुर की गलियों में धूल और भी सुनहरी लग रही थी. वह सीधे उस बूढ़े व्यक्ति के पास लौटा जो उसे गुपचुप गली में मिला था.
“बाबा, मुझे पुरोहित वासुदेव के बारे में और जानना है,” आलोक ने कहा। “वह कैसे व्यक्ति थे? उनकी आदतें क्या थीं?”
बूढ़े व्यक्ति ने अपनी बीड़ी का एक और कश लिया. “वासुदेव? वह बड़े विद्वान थे, बाबू. लेकिन एक बात थी उनमें—वह हर चीज़ में पहेलियाँ छोड़ जाते थे. उनकी पूजा में भी, उनके बोलने में भी, सब में एक पहेली होती थी. वह मानते थे कि सच्चा ज्ञान सिर्फ उसी को मिलता है जो उसे खोजने के लिए पहेलियों को सुलझाता है.”
पहेलियाँ! आलोक के दिमाग में बत्ती जली. क्या पुरोहित ने हस्तलिपि तक पहुँचने के लिए कोई पहेली छोड़ी होगी? उस पंचांग पर लिखी बातें – “पुनर्जन्म की रात, जब नक्षत्रों का चक्र पूर्ण होगा…” – क्या वह भी एक पहेली थी?
वह बूढ़ी महिला के पास भी गया. “माई, क्या पुरोहित वासुदेव के पास कोई ऐसी चीज़ थी जिससे उन्हें बहुत लगाव था? कोई विशेष वस्तु?”
महिला ने अपनी यादों को कुरेदा. “हाँ, एक थी। एक छोटी सी मिट्टी की मूर्ति. एक नर्तकी की मूर्ति. वह उसे हमेशा अपने पास रखते थे. कहते थे कि उसमें अंबरपुर की आत्मा कैद है.”
एक मिट्टी की मूर्ति? और उसमें अंबरपुर की आत्मा? क्या यह भी एक पहेली थी? आलोक के मन में विचारों का बवंडर उमड़ पड़ा. उसे लगा कि वह एक बड़े जाल में फंस गया है, लेकिन हर धागा उसे सत्य के करीब ले जा रहा था.
पुरोहित की पहेलियाँ, मिट्टी की मूर्ति, और नक्षत्रों का चक्र… ये सब कैसे जुड़े थे? क्या यह दरार इन सबका समाधान थी? अंबरपुर की धूल एक बार फिर उसे अपने गूढ़ रहस्यों में उलझा रही थी, और आलोक जानता था कि उसे इन पहेलियों को सुलझाना ही होगा.
शेष भाग अगले अंक में…,