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गलियों का शहर और उड़ता गुबार …

अध्याय 2: धूल में लिपटे चेहरे

आलोक ने उस बूढ़े व्यक्ति को धन्यवाद कहा और गुपचुप गली में आगे बढ़ गया. हर कदम पर, उसे लगता था जैसे धूल के कण उससे कुछ कहने की कोशिश कर रहे हों. गली के एक मोड़ पर, उसने एक पुराने घर की देहरी पर बैठी एक महिला को देखा. उसकी उम्र का अंदाज़ा लगाना मुश्किल था; उसके चेहरे पर गहरी झुर्रियाँ थीं, जैसे वे किसी प्राचीन मानचित्र की रेखाएँ हों, और उसकी आँखें उतनी ही गहरी थीं जितनी अंबरपुर की सबसे पुरानी बावड़ी.

“क्या तुम्हें कुछ चाहिए, बेटा?” महिला की आवाज़ में एक अजीब-सी खनक थी, जैसे पुराने पीतल के बर्तनों की.

आलोक उसके पास गया. “मैं अंबरपुर के बारे में जानना चाहता हूँ, माई। यहाँ की कहानियाँ, यहाँ के लोग.”

महिला ने एक सूखी हँसी हँसी. “कहानियाँ तो यहाँ हर पत्थर में दफ़न हैं, और लोग… लोग भी इन कहानियों का ही हिस्सा हैं. तुम किसे जानना चाहते हो?”

“मुझे ‘कायापलट की रात’ के बारे में जानना है,” आलोक ने कहा. “और उस हस्तलिपि के बारे में जो उस रात का राज़ बताती है.”

महिला की आँखों में एक पल के लिए उदासी की गहरी छाया तैर गई. “कायापलट की रात… आह! वह रात जब चाँद लाल हो गया था और हवा में मातम की गंध थी.  उस रात के बाद ही यह धूल, जो अब हर चीज़ पर जम गई है, कभी हटती नहीं. हस्तलिपि? उसे तो शहर के आखिरी पुरोहित ने लिखा था, लेकिन वो भी उस रात के बाद से लापता हो गया.”

आलोक को एक नया सुराग मिला था. “पुरोहित? उनका नाम क्या था? और वह कहाँ रहते थे?”

“उनका नाम वासुदेव था,” महिला ने कहा। “वह एक ज्ञानी व्यक्ति थे. उनका घर यहीं पास में था, लेकिन अब वह सिर्फ खंडहर है. धूल ने उसे पूरी तरह से निगल लिया है.”

महिला की बातों से आलोक के मन में उत्सुकता और बढ़ गई. उसने धन्यवाद कहा और पुरोहित वासुदेव के घर की तलाश में निकल पड़ा.  गलियों में भटकते हुए, उसने देखा कि अंबरपुर के लोग एक अलग ही लय में जी रहे थे. बच्चे धूल में खेलते थे, उनके कपड़े और चेहरे धूल से सने रहते थे, फिर भी उनकी हँसी में एक बेफिक्री थी. औरतें अपने घरों के बाहर छोटे-मोटे काम करती थीं, और उनकी साड़ियों पर भी धूल की परत जमी थी, जैसे वह उनके जीवन का एक अभिन्न अंग हो.

आलोक को लगा कि अंबरपुर के लोग धूल के साथ एक अजीब-सा रिश्ता साझा करते हैं. यह धूल उनके दुश्मन नहीं थे, बल्कि उनके साथी थे, उनके इतिहास के संरक्षक.

कुछ और गलियों को पार करने के बाद, आलोक को एक बड़ा, टूटा हुआ ढाँचा मिला. यह कभी एक भव्य घर रहा होगा, लेकिन अब उसकी दीवारें ढह चुकी थीं और छत गायब थी. चारों ओर धूल के टीले थे, मानो घर को किसी ने जानबूझकर धूल में दबा दिया हो. यही पुरोहित वासुदेव का घर था.

आलोक ने खंडहर में प्रवेश किया. हर कदम पर, धूल का एक नया गुबार उठता और उसे घेर लेता. उसे लगा जैसे वह समय में पीछे जा रहा हो. घर के केंद्र में, उसे एक बड़ा, टूटा हुआ पत्थर मिला, जिस पर कुछ अस्पष्ट नक्काशी थी. उसने अपनी उंगलियों से धूल हटाई और देखा कि वह एक पुराना पंचांग था, जिस पर कुछ खगोलीय चिन्ह बने थे.

पंचांग पर लिखे कुछ शब्द अभी भी पढ़े जा सकते थे: “पुनर्जन्म की रात, जब नक्षत्रों का चक्र पूर्ण होगा…”

यह क्या था? “पुनर्जन्म की रात”? क्या यह वही “कायापलट की रात” थी जिसका जिक्र हर कोई कर रहा था? और नक्षत्रों का चक्र… क्या इसका मतलब यह था कि वह रात कोई खगोलीय घटना थी, न कि सिर्फ एक सामान्य तूफान?

आलोक ने अपने कैमरे से पंचांग की तस्वीरें लीं और उसे अपनी नोटबुक में दर्ज किया. उसे लगा कि वह किसी बड़े रहस्य के करीब पहुँच रहा है. जैसे ही वह खंडहर से बाहर निकलने लगा, उसकी नज़र एक छोटी, छिपी हुई सुरंग पर पड़ी, जो धूल के एक बड़े ढेर के पीछे थी. सुरंग संकरी और अँधेरी थी, और उसमें से ठंडी, नम हवा आ रही थी.

क्या यह सुरंग पुरोहित वासुदेव के किसी गुप्त स्थान पर जाती थी? क्या हस्तलिपि यहाँ छिपी हो सकती थी? आलोक के मन में कई सवाल उठ रहे थे. अंबरपुर की धूल उसे अपने भीतर और गहराई तक खींच रही थी, और वह जानता था कि अब पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं था.

वह इस धूल के शहर में अकेला नहीं था; वह उन अनगिनत कहानियों और रहस्यों के साथ था जो हर गुबार में तैर रहे थे. अब उसे यह पता लगाना था कि यह सुरंग उसे कहाँ ले जाती है, और क्या यह उसे “कायापलट की रात” के अंतिम सत्य तक पहुँचाएगी.

शेष भाग अगले अंक में…,

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