
अंबरपुर की गलियाँ एक भूलभुलैया थीं. इतनी पुरानी, इतनी संकरी कि सूरज की रोशनी भी उनमें से मुश्किल से झाँक पाती. और फिर था वह गुबार—एक सतत, अदृश्य चादर, जो शहर के हर कोने, हर पत्थर, हर साँस में घुली हुई थी. लोग कहते थे कि अंबरपुर की धूल सिर्फ मिट्टी नहीं, बल्कि सदियों का इतिहास है, जो हवा में तैरता है, कानों में फुसफुसाता है और कभी-कभी आँखों को चकाचौंध कर देता है.
आलोक, एक युवा इतिहासकार, अंबरपुर की इसी रहस्यमय अपील से खिंचा चला आया था. उसने शहर के बारे में कई किताबें पढ़ी थीं, कई शोधपत्र खँगाले थे, लेकिन कोई भी वर्णन उस अहसास को बयाँ नहीं कर पाया था जो उसे यहाँ पहली बार कदम रखते ही हुआ. रेलवे स्टेशन से निकलकर उसने अपनी पुरानी जीप में सामान रखा और शहर के केंद्र की ओर बढ़ चला. जीप का इंजन पुरानी यादों की तरह खड़खड़ कर रहा था, और हर मोड़ पर धूल का एक नया बबार उठकर उसे घेर लेता.
उसका लक्ष्य स्पष्ट था- अंबरपुर की खोई हुई हस्तलिपि को खोजना. एक ऐसी हस्तलिपि जिसके बारे में कहा जाता था कि उसमें शहर के सबसे बड़े रहस्य “कायापलट की रात” का जिक्र था. वह रात जब अंबरपुर की नियति हमेशा के लिए बदल गई थी, और जब उसकी गलियों में धूल का यह अनवरत गुबार उठना शुरू हुआ था.
शहर की बाहरी गलियाँ अभी भी थोड़ी चौड़ी थीं, लेकिन जैसे-जैसे वह अंदर की ओर बढ़ता गया, गलियाँ संकरी होती गईं और धूल का घनत्व भी बढ़ता गया. कहीं-कहीं तो लगता था जैसे सूरज भी धूल में लिपटा हुआ हो. लोग धूल से बचने के लिए अपने चेहरे ढँके हुए थे, फिर भी उनकी आँखों में एक अजीब-सी चमक थी, जैसे वे भी इस गुबार का हिस्सा हों.
आलोक ने अपनी जीप एक पुरानी धर्मशाला के सामने रोकी. धर्मशाला भी धूल से ढँकी थी, लेकिन उसकी दीवारों पर उकेरी गई पुरानी नक्काशी अभी भी कुछ कहानियाँ सुना रही थी. उसे एक कमरा मिला, जिसमें खिड़की से अंबरपुर की सबसे पुरानी गली दिखती थी – “गुपचुप गली”. नाम से ही स्पष्ट था कि इस गली में कई राज़ दफन थे.
अपना सामान रखने के बाद, आलोक ने सबसे पहले गली में उतरने का फैसला किया. वह अपनी नोटबुक और कैमरा लिए निकल पड़ा. गुपचुप गली में पैर रखते ही उसे एक अजीब-सी शांति का अनुभव हुआ. यहाँ धूल उतनी नहीं थी जितनी बाहर थी, मानो यह गली अपनी धूल को खुद में समेटे हुए हो. गली की दीवारों पर पुराने घरों की बालकनियाँ झाँक रही थीं, और नीचे कुछ बूढ़े लोग एक पेड़ के नीचे बैठे बीड़ी पी रहे थे.
एक बूढ़ा व्यक्ति, जिसकी सफेद दाढ़ी धूल से अटी हुई थी, आलोक को देखकर मुस्कुराया. “नया बाबू आया है, लगता है,” उसने खुरदुरी आवाज में कहा. “किस खोज में हो, बाबू? अंबरपुर की धूल में तो लाखों कहानियाँ छिपी हैं, पर सब दिखती नहीं.”
आलोक उसके पास जाकर बैठ गया. “मैं अंबरपुर के इतिहास को समझना चाहता हूँ, बाबा. उस हस्तलिपि को, जिसमें कायापलट की रात का ज़िक्र है.”
बूढ़ा व्यक्ति हँस पड़ा. उसकी हँसी सूखी पत्तियों पर चलने जैसी थी. “कायापलट की रात? हाँ, वो रात थी जब अंबरपुर सिर्फ पत्थरों का शहर नहीं रहा, बल्कि साँसों का गुबार बन गया. पर वो हस्तलिपि? उसे तो किसी ने देखा नहीं सालों से. लोग कहते हैं वो धूल में कहीं खो गई है, या शायद धूल ने उसे खुद में बदल लिया है.”
आलोक ने अपनी नोटबुक निकाली. “क्या आप मुझे उस रात के बारे में कुछ बता सकते हैं?” बूढ़े व्यक्ति ने आसमान की ओर देखा, जहाँ धूल के बादलों में सूरज का पीला गोला मुश्किल से दिख रहा था. “वो एक तूफानी रात थी, बाबू. सिर्फ हवा नहीं, कुछ और भी उड़ रहा था उस रात. कुछ ऐसा जो आँखों से दिखता नहीं, पर रूह को छू जाता है. उस रात के बाद से ही, यह धूल… यह सिर्फ धूल नहीं रही.”
उसकी बात सुनकर आलोक के रोंगटे खड़े हो गए. उसे लगा जैसे बूढ़े व्यक्ति की आँखों में अंबरपुर की सदियों पुरानी कहानियाँ तैर रही हों. वह समझ गया था कि उसकी खोज सिर्फ एक हस्तलिपि की नहीं, बल्कि इस धूल में छिपे एक जीवित इतिहास की है. अंबरपुर ने उसे अपने पहले ही दिन निमंत्रण दे दिया था – एक ऐसा निमंत्रण जो रहस्यों और अनकही सच्चाइयों से भरा था.
क्या आलोक अंबरपुर के रहस्यों को सुलझा पाएगा, या वह भी इस उड़ते गुबार का एक हिस्सा बन जाएगा?
शेष भाग अगले अंक में…,