
इतिहास एक बार फिर दोहरा रहा है लेकिन, आधुनिक सोच या मानसिकता के कारण हम सभी महूसस नहीं कर पा रहें है. एक बार फिर से आधुनिक महाभारत होने वाला है. पुरातन में भी कौरव और पांडव का युद्ध हुआ था और इस बार भी बिहार चुनाव -25 भी कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा है. नए महाभारत का कुरुक्षेत्र बिहार की राजनीतिक भूमि बन गया है तो हुई ना, कौरव और पांडवों का युद्ध पर व्यंग लिख रहा हूँ. यह व्यंग्य बिहार के राजनीतिक परिदृश्य और चुनावी गठबंधनों की संख्यात्मक तुलना पर आधारित है, जिसका उद्देश्य सिर्फ हास्य और विश्लेषण है, किसी व्यक्ति या दल की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है.
स्थान: – चुनावी कुरुक्षेत्र, बिहार.
समय: – अक्टूबर-नवंबर, 2025 (घोर कलयुग का चरम).
युद्ध का उद्देश्य: – सत्ता-सिंहासन पर ‘चिर-स्थायी’ अधिकार.
वर्तमान युग के नागरिकों, जिन्हें ‘सोशल मीडिया योद्धा’ भी कहा जाता है! आपने सही पहचाना! इतिहास फिर से दोहराया जा रहा है, लेकिन इस बार ‘आधुनिक सोच’ नामक चश्मा पहनकर, इसलिए युद्ध के ड्रम की आवाज़ नहीं, बल्कि डिबेट शो के शोर सुनाई पड़ रहे हैं. पुरातन काल में महाभारत हुआ था, अब हमारे पास है ‘एक और महाभारत – 2025’, जिसका मंच है बिहार विधानसभा चुनाव.
कौरव-पक्ष (NDA): – इसमें शामिल हैं पाँच दल (भाजपा, जदयू, लोजपा-आर, हम, रालोमो). यह पक्ष संख्या में बड़ा है, इसलिए ‘कौरव’ नाम सार्थक है, जिनके 100 भाई थे.
पांडव-पक्ष (महागठबंधन/INDIA): – जिसमें राजद, कांग्रेस और वाम दल शामिल हैं. यह पक्ष संख्या में छोटा है, लेकिन दावा करता है कि ‘धर्म’ और ‘युवा शक्ति’ उनके साथ है, बिलकुल पांडवों की तरह.
धृतराष्ट्र और शकुनि (बिहार संस्करण)
धृतराष्ट्र (नीतीश कुमार): – यह वो पात्र है जो सिंहासन से चिपके हुए हैं, भले ही ‘दृष्टि’ यानी राजनीतिक दृष्टि कितनी ही धुंधली क्यों न हो. कब कौन सा गठबंधन ‘पुत्र’ बन जाए और कब ‘विपक्ष’, यह बताने के लिए ज्योतिष की नहीं, बल्कि उनके मन की पल-पल बदलती ‘इच्छाशक्ति’ की ज़रूरत होती है. उनके लिए, सत्ता का मोह ही सबसे बड़ा बंधन है. वो हर बार पलटी मारते हैं, और हर बार कहते हैं, “अब हम स्थिर हैं.”
शकुनि (सीट बंटवारा समिति): – असल शकुनि तो अब वो अदृश्य शक्तियां हैं, जो दिल्ली और पटना में बैठकर ‘सीटों के पासे’ फेंकती हैं. हर दल पासे फेंकता है, और हारता हमेशा ‘छोटा’ सहयोगी ही है. इस बार तो भाजपा और जदयू ने 101−101 सीटों पर बराबरी का पासा फेंका है, जिससे यह भ्रम बना रहे कि गठबंधन में ‘कोई बड़ा भाई’ नहीं है, जबकि असली खेल तो ‘सुपरपावर’ के हाथों में है.
अर्जुन और दुर्योधन (युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि)
अर्जुन (तेजस्वी यादव): – पांडवों के पक्ष का युवा चेहरा. धनुष-बाण तो नहीं, पर हाथ में ‘बेरोजगारी और महंगाई’ का तीर लिए खड़ा है. जनता को उम्मीद है कि यह युवा ‘सारथी’ की मदद से गरीबी के चक्रव्यूह को तोड़ देगा.
दुर्योधन (चिराग पासवान): – कौरव पक्ष का दूसरा युवा चेहरा. अपने ‘पिताश्री’ (रामविलास पासवान) की विरासत और प्रधानमंत्री के ‘हनुमान’ की छवि के साथ, अपने ही चाचा (पशुपति पारस, जो इस महाभारत में कहीं साइडलाइन हैं) से युद्ध लड़कर, अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत कर ली है. वो अपनी ताकत का पूरा प्रदर्शन करना चाहता है.
द्रोणाचार्य और भीष्म (वरिष्ठ रणनीतिकार)
द्रोणाचार्य (प्रशांत किशोर): – यह वो ‘आधुनिक गुरु’ हैं, जो किसी भी पक्ष से नहीं हैं. वो ‘जन सुराज’ नामक एक नई सेना तैयार कर रहे हैं. उनका ज्ञान और विश्लेषण दोनों पक्षों के लिए ‘सिर दर्द’ है. वो कहते हैं, “ना कौरवों को वोट दो, ना पांडवों को, अपना नया रास्ता चुनो!”
भीष्म पितामह (लालू यादव): – राजनीति के वयोवृद्ध, जो आजकल ‘नजरबंदी’ में रहकर भी अपने ‘कौरवों’ (यानी परिवार) को मार्गदर्शन दे रहे हैं. उनकी चुप्पी भी एक बयान है, और उनकी एक आवाज़ भी चुनावी माहौल को गर्मा देती है.
युद्ध के आधुनिक नियम
धर्म-क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे… (आजकल इसका मतलब है – ‘जाति-क्षेत्रे पोलिंग-बूथे’) – चुनाव का पहला और अंतिम नियम. विकास, रोजगार, शिक्षा, सब एक तरफ; जातिगत समीकरण एक तरफ. अर्जुन ने तो कुरुक्षेत्र में धर्म के लिए युद्ध किया था, हमारे योद्धा ‘धर्म’ के नाम पर ‘जाति’ का समीकरण बिठाते हैं.
कर्ण का कवच और कुंडल (सरकारी योजनाएँ): – पुरानी सरकारी योजनाएं और नई घोषणाएं ही आज के नेताओं का ‘कवच’ और ‘कुंडल’ हैं. ‘गरीबों को अनाज’ का कवच ऐसा मजबूत है कि ‘महंगाई’ का तीर भी इसे भेद नहीं पाता.
सारथी (मीडिया और सोशल मीडिया): – भगवान कृष्ण अब खुद सारथी नहीं हैं. उनकी जगह ली है 24×7 ‘न्यूज चैनल’ और ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ ने. ये अपनी-अपनी पार्टियों के रथ को इस तरह हाँकते हैं कि जनता को लगता है कि सामने वाला पक्ष ‘अधर्म’ की राह पर है.
जय-पराजय (वोटिंग मशीन): – पुरातन में जय-पराजय का रहस्य ‘रणनीति’ में छिपा था. आधुनिक युग में जय-पराजय का रहस्य ‘EVM’ में छिपा होता है, जिस पर विपक्ष हर बार युद्ध के बाद संदेह जताता है, बिलकुल जैसे पांडव हर बार युद्ध के नियम तोड़ने का आरोप लगाते थे.
यह ‘एक और महाभारत’ है, जहाँ जनता ‘द्रौपदी’ की तरह महंगाई, बेरोजगारी और पलायन के चीर हरण से जूझ रही है, और राजनीतिक योद्धा सिर्फ अपने सिंहासन की लड़ाई लड़ रहे हैं. दोनों पक्षों के पास दावे हैं, वादे हैं, और एक-दूसरे को ‘भ्रष्टाचारी’ साबित करने की आधुनिक गदा है. अगर पुरातन महाभारत 18 दिनों तक चला था, तो यह आधुनिक महाभारत 6 नवंबर और 11 नवंबर को दो चरणों में होगा, और 14 नवंबर को ‘परिणाम’ नामक ‘महा-उपसंहार’ होगा.
अंत में, चाहे कौरव जीतें या पांडव, सत्य तो यह है कि ‘बिहार’ ही वो ‘अभिमन्यु’ है, जो हर बार विकास के चक्रव्यूह को तोड़ते-तोड़ते बीच में फंस जाता है, और जनता को अगले पाँच साल के लिए फिर से ‘युद्ध’ का इंतज़ार करना पड़ता है! विजय उसी की होगी, जिसके पास ‘अंतिम क्षण’ में ‘अंतिम वोट’ होगा!