
हुई घोषणा बिहार चुनाव की…
दुनिया को जिसने गणतंत्र का पहला पाठ पढ़ाया, वह एक बार फिर अपने सबसे बड़े लोकतांत्रिक पर्व के लिए तैयार है. भारत निर्वाचन आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव वर्ष 2025 के विस्तृत कार्यक्रम की घोषणा कर दी है, जिसके साथ ही राज्य में आदर्श आचार संहिता तत्काल प्रभाव से लागू हो गई है. यह चुनाव न केवल राज्य की भावी दिशा तय करेगा, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति पर भी इसका गहरा प्रभाव देखने को मिलेगा.
ज्ञात है कि, वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 22 नवंबर, 2025 को समाप्त हो रहा है, और उससे पहले नई सरकार का गठन हो जाना अनिवार्य है. चुनाव आयोग ने इस बार मतदान को दो चरणों में कराने का फैसला किया है. 6 और 11 नवंबर को बिहार में डाले जाएंगे वोट, 14 नवंबर को आएंगे नतीजे.
बिहार की राजनीति लंबे समय तक ‘जाति’ और ‘वर्ग’ के इर्द-गिर्द घूमती रही है. आजादी के बाद के दशकों तक बिहार पर कांग्रेस का वर्चस्व रहा. वर्ष 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के नेतृत्व में ‘सामाजिक न्याय’ की लहर ने राजनीति का पूरा नक्शा बदल दिया. इसने पिछड़े वर्गों (OBC) और दलितों (SC) को राजनीतिक सशक्तिकरण का अहसास कराया. लालू प्रसाद यादव की RJD ने MY (मुस्लिम-यादव) समीकरण पर जोर दिया, जबकि नीतीश कुमार की JDU ने एक व्यापक ‘महागठबंधन’ की राजनीति शुरू की, जिसमें पिछड़े, दलित और महादलित शामिल थे. वर्ष 1990 के दशक में ही भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने राज्य में अपनी पैठ बनानी शुरू की और धीरे-धीरे एक प्रमुख खिलाड़ी बनकर उभरी.
बिहार की राजनीति गठबंधनों के इर्द-गिर्द ही घूमती है. इसके प्रमुख खिलाड़ी हैं – वर्तमान विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है और इनका मुख्य आधार यादव और मुस्लिम मतदाता हैं. तेजस्वी यादव अब इस पार्टी के युवा और प्रमुख चेहरे हैं. दूसरी तरफ, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी, जो अपने ‘सुशासन’ और विकास के मॉडल के लिए जानी जाती है. इसका समर्थन आधार कुर्मी, कोइरी और महादलित समुदायों में है. साथ ही राष्ट्रीय पार्टी होने के साथ-साथ राज्य में मजबूत संगठन. इसका समर्थन उच्च जातियों, कुछ OBC और आर्थिक रूप से मजबूत वर्गों में है. वहीं, बिहार के कुछ इलाकों में, खासकर दलित और मजदूर वर्ग में, इसकी अच्छी पकड़ है. रही बात, राष्ट्रीय स्तर की पार्टी के रूप में महागठबंधन का हिस्सा रहती है, लेकिन अपने दम पर सीमित प्रभाव रखती है.
बिहार का मतदाता अब पहले से कहीं अधिक जागरूक हो गया है और इनके प्रमुख मुद्दे हैं…. – बेरोजगारी बिहार की सबसे बड़ी समस्या है. लाखों युवा रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं. ‘जंगलराज’ की छवि से छुटकारा पाने के बावजूद, कानून-व्यवस्था अभी भी एक अहम मुद्दा बनी रहती है. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव.
बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है. किसानों के लिए बेहतर मूल्य, सिंचाई की सुविधा और फसल बीमा जैसे मुद्दे महत्वपूर्ण हैं. महिला मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी और उनके लिए चलाई गई योजनाएँ (जैसे शराबबंदी, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ) चुनावी नतीजों को प्रभावित करती हैं. अक्सर चुनाव इस बात पर केंद्रित होता है कि मतदाता जातीय समीकरणों के आधार पर वोट करेंगे या विकास के मुद्दों पर ?
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी पहचान ‘विकास पुरुष’ के रूप में बनाई है. उनके शासनकाल में हुई प्रमुख पहलों में शामिल हैं: – कानून-व्यवस्था में सुधार, सड़क निर्माण और बिजली की स्थिति में सुधार, शराबबंदी लागू करना और साइकिल योजना जैसे कदम, छात्रवृत्ति और स्कूलों का उन्नयन.
बिहार के नतीजे केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन और विपक्ष की ताकत को दर्शाते हैं.साथ ही इसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ता है. क्षेत्रीय नेता के तौर पर नीतीश कुमार की राष्ट्रीय भूमिका बिहार के चुनावी नतीजों पर निर्भर करती है. वर्ष 2015 में JDU-RJD-Congress के महागठबंधन की जीत ने राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट विपक्ष की संभावना दिखाई थी. वर्ष 2020 में NDA की जीत और फिर 2022 में नीतीश कुमार का NDA छोड़कर महागठबंधन में वापस आना, यह दर्शाता है कि बिहार की राजनीति कितनी गतिशील और अप्रत्याशित है.
बिहार विधानसभा का चुनाव सिर्फ सत्ता की लड़ाई नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, आर्थिक विकास और सांस्कृतिक पहचान की लड़ाई है. यह एक ऐसा राजनीतिक महाकाव्य है जो हर पांच साल में लिखा जाता है. बिहार का मतदाता आज सूचना और शिक्षा के नए युग में जी रहा है. वह जाति के साथ-साथ विकास और रोजगार को भी समान महत्व दे रहा है.